अभी कुछ ही दिन पहले धुन सवार हुई कि नीलकंठ चलें। मैंने ख़ुद ही दिन भी तय कर लिया कि इस इतवार को जाऊँगा। अपना तो एक ही ध्येय वाक्य है- चल अकेला चल अकेला। फिर भी टोकने वाले अंदाज में सभी दोस्तों को टोक डाला। कोई भी साथ चलने को तैयार नहीं हुआ। कोई बात नहीं, यह मुसाफिर जाट किसी की मर्जी का मोहताज नहीं है। नीलकंठ जाना थोड़ा दुर्गम भी है और सुगम भी। पैदल जायें तो दुर्गम और बेहद थकाऊ व खतरनाक। ऋषिकेश से चौदह किलोमीटर की अनवरत खड़ी चढाई। कोई अपने को कितना भी तीसमार खां समझता हो, पैदल जाने में तो फूँक निकल जाती है। दूसरा रास्ता जीप वाला है, जो करीब तीस किलोमीटर पड़ता है।
मैंने अपनी योजना को घरवालों से बताया। उन्होंने अकेले जाने से मना कर दिया। अब मैंने सचिन को पटाया। बहादराबाद में मेरे साथ ही रहता है। तय हुआ कि इतवार को यानी कल सुबह को ही जितना जल्दी हो सके, निकल पड़ेंगे। इसीलिए हम शनिवार को जल्दी ही सो गए थे। सुबह आँख तब खुली जब सचिन ने मेरे ऊपर से कम्बल खींच लिया। चार बजे नींद उचटने से गुस्सा तो बहुत आया, पर क्या कर सकता था। एक बार तो मन हुआ कि सचिन से कह दूँ सो जा, चले जायेंगे और थोडी देर में। नींद नींद में ही मै फ्रेश हुआ, मुहँ धोया, तब आँख खुली। तब तक पाँच बज चुके थे। चाय बनाई और रात के दो तीन 'टिक्कड़' बचे हुए थे, खाए। बस अड्डे पर पहुंचे। कोई बस नहीं दिखायी दी। हमें पकड़नी थी हरिद्वार से हेमकुंट एक्सप्रेस, जिसका टाइम था छः बजे। साढे पाँच बज गए, रोड दूर दूर तक खाली। हमें निराशा होने लगी कि अब ट्रेन को नहीं पकड़ पायेंगे। आखिरकार एक बस आई, और हम सवा छः बजे तक रेलवे स्टेशन पहुँच गए। भला हो भारतीय रेल प्रणाली का, रेल एक घंटा लेट थी। आराम से टिकट लिया। रेल आई आठ बजे, हरिद्वार से चली साढे आठ बजे, ऋषिकेश पहुँची साढे नौ बजे। स्टेशन से ही राम झूला जाने वाला टम्पू लिया, पहुँच गए राम झूला। राम झूला और ऋषिकेश के बीच में एक छोटी नदी पड़ती है, वो देहरादून व टिहरी गढ़वाल जिले की सीमा बनाती है। यानि ऋषिकेश पड़ता है देहरादून में, राम झूला व लक्ष्मन झूला पड़ते हैं टिहरी में तथा गंगा पार करते ही शुरू हो जाता है पौडी गढ़वाल जिला। नीलकंठ पौडी गढ़वाल में ही स्थित है। राम झूला पुल पार करके हमने चोटीवाला भोजनालय में पेट पूजा की। फिर वहीँ पर एक घाट पर गंगा स्नान किया। यहीं पर बैठकर हमने तय किया कि जीप से नीलकंठ चलेंगे, पैदल जाने में बहुत ही खतरा है। रास्ते में लंगूरों की भरमार होती है। रास्ता भी कच्चा है। नीलकंठ के बाद पार्वती मन्दिर जायेंगे, उसके बाद झिलमिल गुफा। नीलकंठ तक तो हम दोनों पहले भी जा चुके थे लेकिन आगे नहीं जा पाए थे।
जीप वालों से किराया पूछा तो बताया- पचास रूपये। बैठे और चल दिए। पूरा रास्ता पहाडी है, कुछ दूर तक तो गंगा के साथ साथ ही चलते हैं, फिर अलग हो जाते है। फूल चट्टी से थोडा आगे इसी रोड में से नीलकंठ जाने वाली रोड निकलती है। जैसे जैसे ऊपर चढ़ते जाते हैं, दूर दूर तक फैले गढ़वाली गाँवों के दर्शन होने लगते हैं। ऋषिकेश से चलने के डेढ़ घंटे बाद हम नीलकंठ पहुंचे। आज रविवार होने के कारण वहां भीड़ काफी थी। जब समुद्र मंथन हुआ था, तो उसका एक प्रोडक्ट हलाहल विष भी था। इसके प्रभाव से ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया था। तब भगवान् शंकर ने इसे पीकर सृष्टि को बचाया था। लेकिन इसके प्रभाव से शिवजी भी विचलित हो गए थे। तब वे हिमालय के इन पहाडों में आ गए थे। विष की उष्णता से शिवजी का गला नीला पड़ गया, जिस कारण इनका नाम नीलकंठ पड़ गया। सभी देवताओं ने गंगा जल से जलाभिषेक कर विष की उष्णता को कम किया। तभी से शिवजी का जलाभिषेक करने की परम्परा चल पड़ी।
झिलमिल गुफ़ा
नीलकंठ महादेव का जलाभिषेक करते करते दो बज गए। हमें पता ही नहीं था कि झिलमिल गुफा कितनी दूर है। लेकिन ये तो तय था कि अब पार्वती मन्दिर तक चढाई ही है, क्योंकि दूर पहाड़ की चोटी पर एक मन्दिर दिख रहा था जो हमें पार्वती मन्दिर बताया गया था। बस क्या था, चल पड़े। यह रास्ता पक्का नही है। पूरे रास्ते भर पत्थर ही पत्थर पड़े हुए थे। निरंतर चढाई। मौसम सुहावना होने के बावजूद भी हमें पसीना आने लगा था। कुछ देर तक तो सचिन ने यह मुश्किल झेल ली। फिर इस आफत का ठीकरा मेरे सिर पर फोड़ने लगा। जितने ऊपर चढ़ते जा रहे थे, मुझे उतनी ही गालियाँ मिल रही थी। जब 'अति' हो गई, मैंने सचिन से कहा-"यार तू तो कतई जी छोड़ रहा है। जाट होके भी तेरी फूँक निकल रही है?" यही बात उसे चुभ गई। जाट से कोई काम करवाना हो तो उसे कोई चुभती बात कह दो, दौड़ दौड़ के करेगा। मै भी तो ऐसा ही हूँ। पहाडों पर तो वैसे ही दिशा का पता नहीं चलता, बस दो ही दिशाएँ होती हैं-आगे और पीछे। जगह जगह आस पास के गाँव वालों ने मुसाफिरों के आराम करने के लिए घास फूंस के शेड बना कर छोड़ रखे हैं।
हमारे साथ नीलकंठ से ही एक कुत्ता भी चला आ रहा था। पहले तो हम डरे कि कहीं यह कोई खतरा न पैदा कर दे। लेकिन जब वो दुम हिलाकर हमारे पास आया तो ऐसा लगा मानो कह रहा हो 'आइये हमारे देश में आपका स्वागत है।' उसके साथ होने से हमें भी खैर हो गई कि अगर कोई जंगली जानवर आ जाए तो ये अपने आप सुलटेगा। नीलकंठ को तो कभी का पीछे छोड़ चुके थे। अब हमें दूर दूर तक कोई भी प्राणी नहीं दिखाई दे रहा था। वैसे यह इलाका राजाजी नेशनल पार्क से सटा हुआ है, इसलिए यहाँ पर हाथी व तेंदुए का सबसे ज्यादा डर होता है। कुत्ते के होने से हमें बहुत सहारा मिल रहा था। हम बिल्कुल निडर होकर चल रहे थे। करीब एक घंटे में हम पार्वती मन्दिर पहुंचे। यहाँ पर एक गाँव भी है। यह पहाड़ की चोटी पर बसा हुआ है। इस गाँव में हमने आधे घंटे तक विश्राम किया। हम मन्दिर में अन्दर नहीं गए, बल्कि सीधे चलते रहे। अपने घर के सामने बैठी एक गढ़वालिन ने हमें टोक कर पूछा कि क्या तुम्हे झिलमिल गुफा जाना है? हमने कहा-"हाँ।" उसने हाथ से इशारा करके बताया कि यह रास्ता नहीं जाता, बल्कि वो वाला रास्ता जाता है। मैंने उत्सुकता से पूछा कि यह रास्ता कहाँ जाता है? बोली कि यह तो सीधा गाँव से होकर नीचे नदी तक जाता है। हम उसके बताये रस्ते पर चल दिए। अब यह रास्ता बिल्कुल कच्चा है। हलकी सी पगडण्डी है, कहीं कहीं तो हाथ से झाड़ झंगड़ हटाते हुए रास्ता ढूंढ़ना पड़ रहा था। एक बात और, इस गाँव का नाम था-भौन। यह हमसे उस औरत ने ही बताया था। चूंकि यह जगह चोटी पर थी, इसलिए यहाँ से दूर दूर तक के खूबसूरत नज़ारे दिख रहे थे। इस पहाड़ के नीचे नदी और उस पार दूसरा पहाड़, उस पर बसे दर्ज़न भर गाँव: बेहद मनमोहक लग रहे थे। भौन गाँव से झिलमिल गुफा करीब दो ढाई किलोमीटर है। रस्ते में बिल्कुल निर्जन जगह पर एक दूकान थी, जहाँ पर चाय बिस्कुट वगैरा मिल सकते थे। यहाँ पर कम से कम दस लड़के बैठे हुए थे, जिन्हें देखते ही मै पहचान गया कि ये भी हमारी तरह ही आए हुए हैं। हमारे वहां पहुँचते ही उन्होंने पूछा कि क्या तुम वापसी में नीलकंठ जाओगे या सीधे शार्टकट से चलोगे। मैंने उनकी संख्या देखकर शार्टकट से चलने की हामी भर दी। उन्होंने कहा कि हमारे कुछ दोस्त भी झिलमिल गुफा की ओर गए है, जब वे वापस आ जायेंगे तब हम चलेंगे। मैंने कहा कि हम भी आ रहे हैं, प्रतीक्षा करना।
वैसे मेरा मन पहले भी शार्टकट से जाने को कर रहा था। लेकिन रास्ते की भयावहता को देखकर मै हिचक रहा था। यह शार्टकट वाला रास्ता दस से कम जनों के लिए भी बेहद खतरनाक है। यह रास्ता पूरी तरह राजाजी नेशनल पार्क से होकर गुजरता है। इस रास्ते पर पानी की भरमार है, इसलिए जानलेवा जानवरों से मुठभेड़ की पूरी संभावना है। खैर हम पुनः अपने रास्ते पर चल दिए। आधा किलोमीटर बाद ही गुफा भी आ गई। आठ नौ लड़के यहाँ पर थे। एक चाय वाला भी था, एक क्या पूरा परिवार था। कुछ सीमेंट की बेंचें रखी थी। बाकी वही घास फूस का छप्पर। चारों तरफ़ नज़र दौडाई तो कोई भी गाँव नहीं दिखाई दिया। चाय वाले से पूछा। उसने बताया कि वह भौन गाँव का ही रहने वाला है। सुबह को खाना वाना खाकर व लेकर सपरिवार यहाँ आ जाते हैं। दो बच्चे थे , जो वहीँ पर बैठे स्कूल का होमवर्क कर रहे थे। एकदम प्राकृतिक वातावरण में, जहाँ चारों तरफ़ हरियाली ओर पक्षियों का कलरव गूँज रहा था।
अब चलते हैं गुफा के अन्दर। यह कोई ज्यादा बड़ी गुफा तो नही है, लेकिन मैंने इतनी बड़ी गुफा पहली बार देखी है। किसी समय यहाँ पर कोई महाराज तपस्या करते होंगे, अब उनके चेले ने धूनी रमा रखी है। एक हट्टा कट्टा पीताम्बर वस्त्र धारी चेला। लेकिन आवाज में अजीब सी मिठास। गुफा के अन्दर छत में इतना बड़ा छेद है कि तीन चार आदमी आराम से निकल सकते है। उस छेद की वजह से गुफा के अन्दर पर्याप्त प्रकाश व हवा थी। उनमे से एक लड़के ने पूछा -महाराज , या गुफा किन्ने बनाई?
महाराज बोला- अरे यार तुममे कॉमन सेंस नहीं है क्या? ये तुम्हे किसी की बनाई हुई लग रही है? ये तो ऊपर वाले ने बनाई है।
अब मैंने पूछा- महाराज, ये जो ऊपर छेद है, क्या यहाँ से कोई गिरता नहीं है?
महाराज बोला- नहीं, ऊपर इसके चारों ओर कंटीली तार व झाडी लगी हुई हैं। कभी कभी उपाद्दी लोग ऊपर चढ़ जाते है।
अब हमारा यहाँ आने का लक्ष्य पूरा हो गया था। सभी वापस चलने की तैयारी में थे। तभी किसी ने कहा- अरे यार, थोड़ा आगे एक गणेश गुफा और है। चलो वहां भी चलते हैं। नहीं तो जिन्दगी भर मलाल रहेगा कि झिलमिल गुफा तो देख ली, गणेश गुफा नहीं देखी।
पता चला कि गणेश गुफा मात्र आधा किलोमीटर दूर ही है। सारे के सारे लड़के लाइन में चल पड़े। अब वहां पर चौड़ी सड़क तो थी नहीं कि हम गुच्छा बनाकर चलते। एक छोटी सी पगडण्डी ही थी। रास्ते में हमारा ध्यान गया एक नन्हे से झरने पर। यह एक पेड़ की जड़ के पास पत्थरों में से निकलकर कुछेक सेंटीमीटर नीचे गिरकर फ़िर पत्थरों में ही विलीन हो रहा था। माना जाता है कि ऐसा पानी बिल्कुल शुद्ध होता है।
मुझे तो गणेश गुफा पहुंचकर निराशा ही हाथ लगी। गुफा वुफा कुछ नहीं थी, बल्कि एक चट्टान पर गणेश जी की आकृति उभरी हुई थी। लेकिन वहां का प्राकृतिक नज़ारा बेहद जबरदस्त था। इस जगह से आगे एकदम अंधी खाई है- कम से कम अस्सी डिग्री पर। लेकिन यहाँ भी नीचे उतरती हुई पगडण्डी जा रही थी। कौन आता होगा यहाँ पर?
अब हम सभी वापस चल दिए। झिलमिल गुफा के सामने से होते हुए वहीँ जा पहुंचे, जहाँ दर्जन भर लड़के हमारी बाट देख रहे थे। चाय बनवाई गई। हमने एक एक कोल्ड ड्रिंक की बोतल ली और पारले जी का पैकिट। हालाँकि चार रूपये वाला पैकिट छः रूपये में मिला था। लेकिन पहाड़ की चोटी पर बिल्कुल सुनसान जंगल में यह भी एक अनोखा अनुभव था। अब हम सबकी योजना थी कि शोर्ट कट वाले रास्ते से चलेंगे। हमने अपनी योजना से चाय वाले को भी अवगत कराया। उसने बताया कि वो रास्ता यहीं से जाता है। तुम कम से कम बीस जने हो। लेकिन जाना बिल्कुल होशियारी से। अगर हाथी मिल गया तो खतरा पैदा कर देगा। तुम एक काम और करो, वहां उधर कुछ बांस व डंडे पड़े हुए हैं, उन्हें भी ले जाओ, तुम्हारे काम आयेंगे। हमने तुंरत आज्ञा का पालन किया।
चलने से पहले गिनती हुई। कुल बाइस जने थे। एक अच्छी खासी फौज की तरह हम जंगल फतह करने निकल पड़े। शुरू में मै सबसे पीछे था। पीछे से बाइस डिब्बों की ट्रेन को देखना अजीब अनुभव था। हम दोनों को छोड़कर बाकी सभी हरियाणा के थे। जाहिर सी बात थी कि ज्यादातर जाट थे। बिल्कुल घनघोर जंगल में खूब शोर शराबा मचाते हुए आर्मी चल रही थी। सभी निश्चिंत थे कि कोई खतरा आएगा भी तो आपस में मिल बाँट के सुलट लेंगे। जो ज्यादा तेज चलने वाले थे, वे सबसे आगे नॉन स्टाप भागे जा रहे थे। कुछ मोटे और आलसी लोग पीछे थे। मै तो जान बूझकर पीछे पीछे चल रहा था। तभी अचानक रेल रुक गई और इंजिन कहने लगा कि अभी अभी मेरे सामने से एक अजगर गुजरा है। पूरी ट्रेन में अफरा तफरी मच गई। उस अजगर को आगे वाले दो जनों ने ही देखा था। जिन्होंने नहीं देखा, वे इस घटना को बकवास बता रहे थे। इसके बाद कोई भी आगे चलने को तैयार नहीं हुआ। सभी बीच में ही चलना चाहते थे। उनमे आपस में ही झगडा शुरू हो गया। सभी के सभी उसी जगह पर रुक कर शोर शराबा करने लगे जहाँ से अभी अभी अजगर गुजरा था। अब मैंने कमान संभाली। सबसे आगे मै ही हो लिया।
पहाडों पर बिना बारिश के ही ऊपर से पानी आता रहता है। पेड़ पौधों और अथाह झाडियों पर जमी ओस के कारण पानी कभी भी कम नहीं पड़ता। इसी तरह हमारे रास्ते में भी पानी आ गया। पत्थरों पर लगातार बहते पानी के कारण काई जम जाती है। ऐसे में पत्थरों पर पैर रखकर नीचे उतरना बेहद खतरनाक होता है। लेकिन क्या करें? कही बैठ बैठ कर, कहीं झाडियों को पकड़कर एक दूसरे को सहारा देते हुए हम बढे जा रहे थे।
वैसे हम थोडी थोडी देर में रुक रुक कर सुस्ता भी रहे थे। इस दौरान गिनती भी होती। जंगल में पैदा होने वाली हर एक आवाज को मै सुनने की कोशिश कर रहा था। तभी एक पेड़ की दो शाखाओं के बीच में मुझे लंगूर दिखाई दिया। लड़के उसे भगाने को शोर मचाने लगे। मैंने कहा कि शोर मत मचाओ, चुपचाप निकल लो। यहाँ पर और भी लंगूर हो सकते हैं। तब जाकर वे माने। हम और पास गए तो पता चला कि वो लंगूर मरा हुआ था। उस पर मक्खियाँ भिनक रहीं थीं।
एक जगह मुझे काफी सारा गोबर दिखा। यह हमारी बटिया पर ही पड़ा हुआ था। मैंने सभी को रुकने को कहा। तब मैंने बताया कि यह हाथी का गोबर हो सकता है। उसमे डंडा गाड़कर देखा, अंदाजा लगाया कि यह कुछ ही देर पहले का है। सभी को चेतावनी दी कि आस पास हाथी हो सकता है। अपने आस पास निगाह रखें, शोर न मचाएं। दसेक मीटर आगे चलने पर कुछ ताज़ी रौंदी हुई झाडियाँ दिखीं। गौर से देखा। उनकी टूटी हुई शाखाओं से पानी निकल रहा था। इसका मतलब था कि हाथी को यहाँ से गुजरे हुए ज्यादा देर नहीं हुई है।
इस घटना का तत्काल असर पड़ा। जो पहले अति उत्साही लड़के थे, उनका उत्साह बिल्कुल ठंडा पड़ गया। वे आपस में बेहद धीमी फुसफुसाहट से ही काम चला रहे थे। जो पहले चलते हुए काफ़ी पीछे रह जाते थे, वे भी अब आगे निकलने को बेताब थे। मेरे बिल्कुल पीछे जो बन्दा था, उसे भी मेरी तरह जंगल का काफ़ी अनुभव था। वो ही बाकी अन्य लड़कों को पटाकर इस जंगल वाले रास्ते से लाया था। लेकिन अब लड़कों की हवा बिल्कुल ख़राब हो गई थी। उसने बताया-ये सारे लड़के ऐसे हैं कि अगर इनसे कह दो उसे पीटना है, तो उसे मार डालेंगे। लेकिन अब यहाँ पर इनका बोल भी नहीं निकल रहा।
एक जगह पर तो बरसात के पानी ने एक चट्टान को इस तरह से काटा कि उसमे से बहुत ही संकरा रास्ता बन गया था। इस रास्ते से निकलना हमारी मजबूरी थी, क्योंकि यह दस मीटर से भी अधिक ऊंची थी। रास्ता इतना संकरा था कि हमें भी तिरछा हो कर निकलना पड़ रहा था। इस चट्टान से निकलते निकलते सभी के कपड़े गारा मिटटी से सन गए थे।
एक जगह पर दो बरसाती नदियां मिल रही थी। भू-स्खलन के कारण एक पेड़ पहाड़ से इस तरह गिरा कि नदी पर स्वतः ही पुल बन गया। लगातार दो घंटे से चलते रहने के कारण सभी काफी थक गए थे। यहाँ पर हमने करीब आधा घंटा विश्राम किया। हालाँकि अब पहले के मुकाबले ढलान काफ़ी कम था। बार बार यही लगता था कि हो गया जंगल ख़त्म। लेकिन फ़िर भी दूर दूर तक जंगल की कोई सीमा नहीं दिख रही थी।
आगे चलने वाले को सबसे ज्यादा डर इसी बात का होता है कि जैसे ही वो झाडियों के बीच बनी पगडण्डी पर मुड़ता है, पता नहीं अचानक सामने क्या आ जाए? इसी तरह मै जैसे ही मुडा, सामने एक नेवला आ गया। वो हमें देखते ही रास्ते से हटकर झाडियों में घुस गया। जैसे ही वो घुसा, मेरी हवा ख़राब। सोचा, पता नहीं क्या आफत है? मेरे पीछे वाले को भी नेवला दिख गया था। वो भी एक बार को बुरी तरह डर गया। हमारे डरने से बाकियों को अच्छी कॉमेडी मिल गई। उन्होंने हमारी मज़ाक बनानी शुरू कर दी। हमने आपस में तय किया कि एक बार जंगल की सीमा ख़त्म हो जाने दो, फ़िर देखना कैसी होती है मज़ाक। क्योंकि हमने तय कर लिया था कि इन्हे भी बुरी तरह डराना है। लेकिन तब, जब हम भी संभावित खतरे से बाहर आ जाएँ।
मैंने एक चट्टान पर खड़े होकर देखा कि कुछ ही दूर चलने पर जंगल ख़त्म हो जाएगा। अब हमने अपनी योजना को मूर्त रूप देने का निश्चय किया। मेरे पीछे वाला मौका देखकर झाडियों में छुप गया। अब मैंने अचानक अपने कदम रोक दिए। मेरे रुकते ही सभी चौकन्ने हो गए। फुसफुसाहट करके पूछने लगे कि क्या हुआ। मैंने कहा अभी अभी इधर झाडियों में कुछ काला सा जानवर घुसा है। उन्होंने पूछा कौन सा जानवर है? मैंने कहा कि वो बड़ी ही तेजी से गया है, मै उसे पहचान नही सका। उनमे कानाफूसी शुरू हो गई। कोई कहता शेर है, कोई कहता भालू है, कोई कहता भेडिया हो सकता है।
तभी झाडी में घुसे लड़के ने बडी जोर की भयंकर आवाज निकाली। इसी के साथ मै भी बड़ी तेजी से चिल्लाते हुए बाकी लड़कों की तरफ़ दौड़ा-अरे भागो, अपनी जान बचाओ, वे झाडियों में बैठे हुए हैं, कई सारे हैं। इतना सुनते ही किसी ने भी असलियत जानने की कोशिश नहीं की। सभी को अपनी जान बचाने की लगी हुई थी। ज्यादातर तो वापस उसी रास्ते से भागने लगे, जिधर से आए थे। कोई बदहवासी में झाडियों में ही घुस गया। तभी चुपके से झाडी में घुसा लड़का भी निकल गया। उसने कहा कि अरे यार, यहाँ कुछ नहीं है। दो तीन गायें हैं जो घास चर रहीं हैं। वास्तव में थोड़ा आगे कुछ पालतू पशु घास चर रहे थे।
और जंगल ख़त्म हो गया। सामने एक सड़क थी। सड़क के दूसरी तरफ़ गंगाजी बह रही थी। हमारे दाहिने हाथ की तरफ़ ऋषिकेश और बायीं तरफ़ दस किलोमीटर दूर हरिद्वार था। जैसे ही हम जंगल से बाहर निकले, वहीँ पर तीन सूचना पट लगे हुए थे- एक वन विभाग का, एक उत्तराखंड पुलिस का, तीसरा पर्यटन विभाग का। उन पर लिखा हुआ था-
इस रास्ते से जाना मना है। यह राजाजी नेशनल पार्क का जंगल है। इसमे जंगली जानवर जैसे हाथी, तेंदुआ, बाघ, भेडिये , भालू बहुतायत में हैं, वे हमला भी कर सकते हैं। किसी नुकसान के लिए हम जिम्मेदार नहीं हैं।
अब सभी लड़के राहत की साँस ले रहे थे। ज्यादातर कह रहे थे- आज तो हमें नया जीवनदान मिला है।
हम भी गंगा पार करके टम्पू में बैठे। रेलवे स्टेशन पहुंचे, हरिद्वार की ट्रेन पकडी। रात को दस बजे तक आधी नींद खींच चुके थे।
(हमने इस यात्रा के फोटू भी खींचे थे। वीडियो भी बनाई थी। लेकिन तकनीकी कारणों से हमारी ये अनमोल धरोहर ज्यादा देर तक टिक नहीं पायी। सभी पता नहीं कैसे अपने आप डिलीट हो गयीं। )
बहुत बढिया यात्रा वृतांत लिखा आपने ! ऐसा लगा की हम भी आपके साथ साथ नीलकंठ महादेव का जलाभिषेक कर आए ! आपकी झिलमिल गुफा का यात्रा वृतांत पढने का इंतजार है ! बहुत शुभकामनाएं !
ReplyDeleteआपके साथ मुसाफिरी का मजा आएगा. इसमें मेरी भी रुची रही है. शुभकामनाएं.स्वागत अपनी विरासत को समर्पित मेरे ब्लॉग पर भी.
ReplyDeletenarayan narayan
ReplyDeleteयार तुम्हारे इतना अच्छा लिखने से मुझे शक होता है कि प्रोफाइल में उम्र कम दिखाई गई है :)
ReplyDeletebahut badhiya laga nilkanth tak pahunchneka yatra vrutant
ReplyDeleteचलिए जानकर खुसी हुई आपका यात्रा वृतांत ..हम तो यहाँ एक रूम में बंद हैं ..खराब तबियत के कारन ..दूसरी वाली का इन्तिज़ार है.
ReplyDeleteYatra ka vritant bahut achchha laga!...Nilkanth Mahaadev ki Jay!
ReplyDeleteब्लोगिंग जगत में आपका स्वागत है. खूब लिखें, खूब पढ़ें, स्वच्छ समाज का रूप धरें, बुराई को मिटायें, अच्छाई जगत को सिखाएं...खूब लिखें-लिखायें...
ReplyDelete---
आप मेरे ब्लॉग पर सादर आमंत्रित हैं.
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अमित के. सागर
(उल्टा तीर)
मैं भी घूम लिया आप सभी की रेल में, मैं भी अपनी माँ के साथ नीलकंठ से ऋषिकेश तक पैदल वाले रास्ते से ही आया था।
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