Skip to main content

मुसाफिर जा पहुँचा कुमाऊँ में (भाग-1)

दिनांक- दीवाली के बाद, 2007। मैं जैसे ही कंपनी में पहुँचा, पता चला कि आज रमेश नहीं आया था। उन दिनों मैं नोएडा में था। रमेश का भाई कैलाश भी इसी कंपनी में था। दीवाली के एक दिन बाद कैलाश तो आ गया था, लेकिन रमेश अभी तक नहीं आया था। दीवाली की छुट्टियों में गाँव गया हुआ था। मुझे पता था कि उनका गाँव नैनीताल के पास कहीं है। पक्का नहीं पता था कि कहाँ है, न ही गाँव का नाम मालूम था।
जब कैलाश आ गया तो मैंने उससे रमेश के बारे में पूछा। उसने बताया कि वो अभी गाँव में ही है। दो तीन दिन में आ जाएगा। तभी मेरे दिमाग में आया कि उसके गाँव जाया जाए। दो तीन दिन बाद मैं और रमेश दोनों इकट्ठे वापस आ जायेंगे।
मैंने कैलाश से पूछा कि तुम्हारा गाँव कहाँ पर है?
"क्यों जाना है क्या?"
"हाँ भाई, जाना है।"
"हमारे गाँव के लिए हल्द्वानी से बस मिलेगी। भीडापानी जाने वाली बस में बैठ जाना। उससे मोतियापाथर में उतर जाना। वहां से रमेश को फोन कर देना, रमेश लेने आ जाएगा। "
उसने सोचा था कि मैं तो ऐसे ही पूछ रहा हूँ, वहां पर जाऊंगा ही नहीं। इसलिए उसने भीडापानी वाली बस में बैठने को कहा। अन्यथा अल्मोडा और पिथौरागढ़ जाने वाली ज्यादातर बसें मोतियापाथर से ही निकलकर जाती हैं। ये जानकारी मुझे बाद में मिली।
रमेश को मैंने फोन करके बता दिया कि मैं आ रहा हूँ। उसने सलाह दी कि हल्द्वानी से मोतियापाथर वाली जीप में बैठ जाना। वे भी बस वाला ही किराया लेंगे। मैंने पूछा कि कितना किराया लगेगा। बोला कि पैंसठ रूपये। मैंने अंदाजा लगाया कि कम से कम तीन घंटे का सफर होगा। पूरी तरह पहाडी। मजा आ जाएगा।
बस फ़िर क्या था? मैं शुक्रवार को शाम को गाजियाबाद स्टेशन से रानीखेत एक्सप्रेस से सुबह तक हल्द्वानी पहुँच गया। छः बजे मैं हल्द्वानी मैं था। पेंट-शर्ट और हलकी सी जैकेट पहने हुए था। इसके अलावा मेरे पास कुछ भी नहीं था। चल दिया खाली हाथ मुसाफिरगिरी करने। स्टेशन से बाहर निकलकर ढूंढता ढूंढता एक किलोमीटर दूर बस अड्डे पर पहुँचा। जाते ही जीप वालों ने लपक लिया। मैं सोच रहा था कि बस से जाऊंगा, इसलिए उन्हें रिजेक्ट करके सीधे पूछताछ पर पहुँचा। मैंने भीडापानी वाली बसों के बारे में पूछा। अब सुबह सुबह का टाइम, उन्होंने मुझे झिड़क दिया। मैं मुँह लटकाकर बसों के सामने लगे बोर्ड को पढने लगा कि कौन सी बस भीडापानी जायेगी। कोई बस नहीं मिली। कोई अल्मोडा जा रही थी, कोई नैनीताल, कोई देविधूरा तो कोई पिथौरागढ़। मैंने भीडापानी के चक्कर में सभी बसें छोड़ दी। आठ बज गए, अगले को बस ही नहीं मिली। हार थक कर बस अड्डे से बाहर आया। जीप वाले से पूछा-" भाई, भीड़ाघाट जाओगे क्या?"
"भीड़ाघाट? ये कहाँ पर पड़ता है?"
"अरे यार तुम्हे भीड़ाघाट का नहीं पता?"
"भाई, भीड़ाघाट तो कहीं नहीं है। हाँ, लोहाघाट जरूर है।"
"अरे नहीं यार लोहाघाट नहीं जाना। भीड़ाघाट जाना है।"
ये लो एक पंगा और हो गया। कैलाश के बच्चे ने भीड़ाघाट बता दिया। यहाँ पर तो कोई जनता भी नहीं कि भीड़ाघाट कहाँ है।
"हाँ भाई साहब, कहाँ जाना है?" एक दूसरे ने आवाज दी।
"भीड़ाघाट, बोल चलेगा?"
"अरे भाई, भीड़ाघाट नहीं, कहीं आपको भीडापानी तो नहीं जाना?"
"अरे हाँ यार, भीडापानी।"
"हाँ आओ बैठो।"
"रास्ते में मोतियापाथर पड़ता है ना?"
"हाँ हाँ पड़ता है।"
"बस मुझे वहीँ पर उतार देना। किराया कितना लगेगा?"
"अरे भाई, वो ही बस वाला। पैंसठ रूपये।"
बस अपना क्या था। चल पड़े उसके साथ। जीप भरने को थी। सबसे पीछे वाली सीट मिली। चल पड़े एक लंबे सुहावने सफर पर।
जीप में बैठते ही मैंने सोचा कि यार तू मेहमान बनकर जा रहा है, कुछ खाने की चीज तो साथ ले लेनी चाहिए। जीप वाले से बोला कि जरा सी देर रुक जा, मैं मूंगफली ले आऊँ। वो बोला कि यहाँ मूंगफली नहीं मिलेगी, आगे धानाचूली बेन्ड से ले लेना। मेरी अक्ल में उस समय नहीं आया कि ये धानाचूली बेन्ड कौन सा 'बेन्ड' है। चलो अपना क्या है? आगे से ले लेंगे।
हल्द्वानी से काठगोदाम, और फ़िर पहाड़। कुछ आगे जाकर हमने नैनीताल वाली रोड छोड़ दी। अब हम भीमताल रोड पर बढ़ चले। गोला नदी पार करके निरंतर चढाई शुरू हो गई। यहाँ से काठगोदाम और हल्द्वानी और उससे आगे के मैदान दूर दूर तक दिख रहे थे। एक घंटे बाद भीमताल पहुंचे। यह ताल उत्तराखंड का सबसे बड़ा ताल है। हमें यहाँ तो रुकना नहीं था। जीप में जो और सवारियां बैठी थीं, उन्हें देवीधूरा जाना था। इसलिए बिना रुके ही भीमताल पार कर लिया। यहाँ से एक रोड नैनीताल के लिए भी जाती है। दूर दूर तक फैले रंग बिरंगे पहाड़। पहाड़ की मिटटी, वनस्पति और धूप की मात्रा के हिसाब से पहाड़ रंग-बिरंगे दिखते हैं।
तभी एक पंगा हो गया। एक औरत ने उल्टी करनी शुरू कर दी। जीप वाला बार बार उससे कह रहा था कि बाहर मत देखो, चक्कर आ जायेंगे। लेकिन वह कहाँ मानने वाली थी। शीशा खोलकर बार बार उलटी करने लगी। उसकी देखा देखी एक ने और शुरू कर दी। सभी का जी ख़राब हो गया। तभी मेरे बगल में बैठे एक भले चंगे दिखने वाले शख्श ने भी खिड़की का शीशा खोल लिया। मतलब साफ़ था। जहाँ तीन तीन आदमियों में एक कॉम्पटीशन चल रहा हो, वहां दर्शकों का क्या हाल होता होगा, इसे दर्शक ही बता सकता है।
मेरा मन भी ख़राब हो गया था। ऐसा लग रहा था कि अब उलटी लगी कि तब लगी। मै ही जानता हूँ कि मेरी हालत उस समय कैसी थी। पहाडों पर हिचकोले खाते हुए ढाई घंटे से भी ज्यादा हो गया था। अभी तो अगले को ये भी नहीं पता था कि मंजिल कितनी दूर है। ऊपर से लगातार उलटी लगने का डर। तभी मेरी निगाह पड़ी झक सफ़ेद पहाडों पर। मैंने सोचा कि उन पहाडों पर कोई वनस्पति नहीं है और धूप भी किसी विशेष कोण से पड़ रही है इसलिए सफ़ेद दिख रहे हैं। लेकिन बाद में ध्यान आया कि बर्फ भी तो हो सकती है। मैंने जीप वाले से पूछा। उसने बताया कि बर्फ ही है। अरे, आज मैंने हिमालय देख लिया। हालाँकि वे बहुत ही दूर थे। और पूरब से पश्चिम तक पूरी श्रृंखला थी।
तभी एक जगह जीप रुक गई। यह धानाचूली बेन्ड था। यहाँ से एक रास्ता मुक्तेश्वर के लिए भी जाता है। पहाडों पर जहाँ कही तिराहा होता है, उसे आमतौर से 'बेन्ड' कह देते हैं। यहाँ से मैंने आधा किलो मूंगफली ली। छोटी छोटी दुकानें भी थी, लेकिन मन ख़राब था, इसलिए कुछ खाया नहीं। नवम्बर की गुनगुनी धुप में बैठना भी अच्छा लग रहा था। करीब आधे घंटे तक यहाँ रुके। जीप वालों से पूछा कि भाई, मोतियापाथर अभी कितनी दूर है। बोला कि बस आधे घंटे का सफर है। यानि आधे घंटे और मुसीबत झेलनी पड़ेगी।
आधे घंटे बाद जीप रुकी। मोतियापाथर आ गया था। पहाड़ की चोटी पर बसा एक छोटा सा गाँव। यहीं पर रमेश भी मिल गया। उसने बताया कि मैं दो घंटे से बाट देख रहा हूँ। आने वाली हर बस में भी देखता था कि कहीं अनजाने में निकल ना जाए। फ़िर पूछा कि क्या खायेगा। मैंने कहा कि अभी हालत ख़राब है, कुछ नहीं खाऊंगा। हल्द्वानी से बिना कुछ खाए ही चला था। शायद इसीलिए मुझे उलटी नहीं हुई, अन्यथा निश्चित थी। फ़िर भी एक दुकान से लेकर चाय-बिस्कुट खाए। अब रमेश बोला कि असली सफर तो अब शुरू होगा। दो किलोमीटर दूर पैदल चलना है। मैंने सोचा कि इस समय हम चोटी पर हैं, इसलिए आगे तो उतरना ही होगा। उससे बोल दिया कि बस से अच्छा तो पैदल ही है, मजा आएगा। मैंने उससे ये भी बताया कि मैं एक बार पैदल नीलकंठ की चढाई कर चुका हूँ।
मोतियापाथर से उसके गाँव भागादयूनी तक बिल्कुल कच्चा रास्ता है। रास्ता भी मुश्किल से दो फीट चौडा। टोटली पथरीला। निरंतर ढलान। सामने दूर हिमाच्छादित चोटियाँ। रमेश ने बताया कि वे पाँच चोटियाँ जो बराबर बराबर में हैं, पंचचूली हैं। उधर जो चोटी है, वो नंदा देवी है। नंदा देवी से उतरता हुआ ग्लेशियर बिल्कुल साफ़ दिख रहा था। उसने बताया कि आजकल वहां पर बर्फ़बारी हो रही है। इसलिए वे सभी चोटियाँ पूरे निखार पर हैं।
एक घास की तरफ़ इशारा करके उसने बताया कि इस घास से बचो, यह बिच्छू बूटी है। अगर यह तुम्हारी पेंट पर भी लग गई तो बहुत देर तक खुजली करेगी। तभी सामने से कुछ घोडे आ रहे थे। दोनों तरफ़ बिच्छू बूटी। पास आकर घोडे रुक गए। उनका मालिक भी पीछे था। हम घोडों की पीठ का सहारा लेकर निकल गए। ऐसे ही चलती है यहाँ पर ज़िन्दगी, एक दूसरे को सहारा देकर। रमेश ने इशारा करके बताया कि वो जो घर दिख रहा है ना, जिसके बगल में पेड़ है, और कपड़े टंगे हुए हैं, हमारा है।
अब हम यह पथरीला रास्ता छोड़कर एक पगडण्डी पर बढ़ चले। यह पगडण्डी बिल्कुल ढलान पर थी। हम कहीं तो बैठकर सरक कर, कहीं पेडों की डालियों को पकड़कर उतारते जा रहे थे। जब उसके घर से पचासेक मीटर दूर रह गए, मेरी निगाह कुछ बच्चों पर पड़ी। वे रमेश के भतीजे-भतीजी थे। हमें आते देखकर ताली बजा-बजाकर खुश हो रहे थे।
सामने दीवार पर रमेश के पिताजी बैठे हुए थे। मैंने उनसे बिल्कुल देशी अंदाज़ में "नमस्ते जी" कहा। उन्होंने हाथ जोड़कर नमस्ते ली। मुझे बड़ा ताज्जुब सा हुआ और अपने पर शर्म भी आई। तभी अन्दर से भाभीजी निकलकर आई। मैंने उनसे भी उसी अंदाज़ में "नमस्ते जी" कहा। उन्होंने भी हाथ जोड़कर नमस्ते ली। अब मेरी समझ में आया कि ये लोग हाथ जोड़कर ही तो नमस्ते करते होंगे और हाथ जोड़कर ही लेते हैं। इसके बाद तो मैंने सभी से हाथ जोड़कर ही नमस्ते की।
तभी दो तीन पड़ोसी भी आ गए, घर का और घर वालों का हाल चाल पूछने के बाद उन्होंने औपचारिकतावश इधर उधर की बातें की। यहाँ से हिमालय की बर्फीली श्रृंखला बिल्कुल साफ़ दिखाई देती है। चारों और सेब के पेड़। हालाँकि अभी इन पर सेब तो नहीं आ रहे थे। कहते हैं कि जाडों में जितनी अच्छी बर्फ पड़ती है, उतनी ही अच्छी सेब की फसल होती है। इन दिनों तक सभी पेडों के पत्ते झड़ चुके थे।
मुझे यहाँ तक पहुँचने में बारह घंटे से भी ज्यादा लगे थे। इसलिए जाहिर सी बात थी कि मैं बहुत थका हुआ था। इतने में ही खाना बन चुका था। मैं जैसे ही अन्दर घुसा, मेरा सिर छत से टकराया। यहाँ घरों की छतें नीची होती हैं। और लकड़ी की बनी होती हैं। इसका कारण होता है कि यहाँ पर जाडों में बर्फ पड़ती है। खैर, पूरे परिवार ने एक साथ खाना शुरू किया। खाने में रोटी, चावल और राजमा बने थे। चावल खाने के लिए मैंने चम्मच मांगी। वे लोग बिना चम्मच के ही खा रहे थे। पता नहीं कहाँ से ढूंढ-ढांढ कर चम्मच लायी गई।
एक तो लंबे सफर की थकावट, दूसरे अचानक बदला परिवेश; जितने चावल मेरे सामने रखे थे, मैं नहीं खा पाया। इससे मुझे उनके सामने शर्मिंदगी झेलनी पड़ी। खाना- वाना खाने के बाद रमेश ने दूसरे कमरे में मेरे आराम करने के लिए बिस्तर तैयार कर दिया। भारी-भरकम रजाई ओढ़कर मैं सो गया।
दो घंटे बाद रमेश ने मुझे आवाज दी। इतनी अच्छी नींद आ रही थी, पता नहीं कौन है- यह सोचकर जैसे ही उठा, तभी ध्यान आया कि बेटे आज तू अपने कमरे पर नहीं है, बल्कि पहाडों पर है। वह चाय लेकर आया था। रजाई में बैठकर जैसे ही चाय पीने लगा, सोचने लगा कि कितने दिनों बाद आज रजाई में बैठकर चाय पी रहा है। सामने दूर हिमालय। ऐसा मौका नसीब वालों को ही मिलता है।
चाय पीकर रमेश ने कहा कि चलो "माउन्ट एवरेस्ट" पर चढ़ते हैं। असल में गाँव के चारों तरफ़ पहाड़ ही पहाड़ हैं। इनमे से एक पहाड़ बिल्कुल बंजर है। पेड़ पौधे तो इस पर हैं नहीं, खालिस चट्टान हैं। एक बात और यह पहाड़ आस पास वाले पहाडों से ज्यादा ऊंचा भी है। इस पर धूप भी पड़ रही थी। उसने घरवालों से बता दिया और हम चल पड़े। पहले तो रमेश अपने खेतों में ले गया। गेहूं बोया हुआ था। सेब का बाग़ भी है। हम मूंगफली खाते हुए "माउन्ट एवरेस्ट" की तरफ़ बढ़ रहे थे। हमारे और उस पहाड़ के बीच में एक नदी पड़ती है। यह आगे जाकर कोसी नदी में मिल जाती है, और यहाँ पर नैनीताल और अल्मोडा जिलों की सीमा बनाती है। इस पर एक बड़ा ही शानदार झरना भी है। पानी का बहाव बेहद तेज है। फ़िर भी पत्थरों पर पैर रखकर हमने इसे पार कर लिया।
अब हम उस पहाड़ पर चढ़ने लगे। आगे आगे रमेश चल रहा था। बड़ी ही विकट चढाई थी। बार बार ऐसा लग रहा था जैसे अब फिसले। एक जगह रमेश रुक गया। देखा कि आगे ऊपर चढ़ने का रास्ता ही नहीं मिल रहा था। सामने एकदम खड़ी चट्टान थी। उस पर हम तो चढ़ नहीं सकते थे। हमें निराशा होने लगी। अब वापस उतरने के अलावा कोई चारा ही नहीं था।
तभी मेरी निगाह उस चट्टान के नीचे पड़ी। यहाँ से चढ़ने की तो कोई संभावना ही नहीं थी, हाँ चट्टान के बराबर बराबर में चलने की जरा सी संभावना थी। इसमे रिस्क भी था। पता नहीं आगे भी रास्ता बंद हो, या आगे रास्ता खुल भी सकता था। पहल मैंने की। चट्टान की दरारों में पैर रखकर और दरारों को ही पकड़कर चलना पड़ रहा था। कही तो वह चट्टान हमारी छाती से भी टकरा जाती थी। ऐसे में संतुलन बनाना बहुत मुश्किल काम था। सैकडों फीट नीचे नदी पूरे वेग से बह रही थी। अगर आगे भी रास्ता नहीं मिलता तो, अब वापस लौटना भी लगभग असंभव था। मेरे बिल्कुल पीछे रमेश की भी यही हालत थी।
लेकिन पंगा तो हर जगह पड़ता है। यहाँ भी एक पंगा पड़ गया। चट्टान का एक बड़ा सा टुकडा टूटकर नीचे गिर गया था। वह सीधे नीचे तो गया नहीं, वही एक पेड़ से टकराकर रुक गया था। बस यूँ समझ लो कि किसी तरह वो पहाड़ और पेड़ के सहारे संतुलित हो गया था। यह हमारे रास्ते में था, इसलिए इसे पार करना जरूरी था। यह भी सम्भावना थी कि अगर हम इस पर चढ़े तो यह असंतुलित भी हो सकता था। लेकर हरि का नाम मैं इस पर चढ़ गया। शुक्र है कि वो असंतुलित नहीं हुआ। मेरे बाद रमेश भी चढ़ गया। जिस जगह से यह टुकडा चट्टान से टूटा था, वहीँ से हमें ऊपर चढ़ने का रास्ता मिल गया। चट्टान पर चढ़कर हम बैठ गए। हालाँकि पहाड़ अभी भी काफी बाकी था। हम नीचे नदी को देखने लगे। मेरे तो रौंगटे खड़े हो गए। हम इतनी ऊपर इतनी विकट चढाई करके आए हैं! विश्वास ही नहीं हो रहा था। "एवरेस्ट " फतह करने का इरादा त्याग दिया। चलो वापस चलते हैं। अब जिस रस्ते से आए उधर से जाने का तो सवाल ही नहीं उठता। ऊपर से पहले ही देख लिया था कि कहाँ से उतरना ठीक रहेगा। इधर भी उतरते हुए पैर रपट रहे थे, फ़िर भी हम उतर गए। नदी पुनः पार की। थोडी सी चढाई करके हम खेत में पहुंचे। वहां पर रमेश की भाभी घास काट रही थी। कुछ देर तक उनके साथ गपशप मारी, फ़िर गाँव में घूमने निकल पड़े।
एक बात और, मेरे सफलता पूर्वक चट्टान को 'फतह' करने के कारण रमेश ने पूरे गाँव में प्रचार कर दिया कि मैं तो पक्का पहाडी हूँ। पहाड़ पर चढ़ते-उतरते बिल्कुल भी नहीं थका। यह मेरे लिए सम्मान की बात थी। खैर, एक खेत में बंदगोभी बुई हुई थी। पास में ही खेत की रख्वालिन थी। रमेश ने दो तीन बन्दे तोडे, रख्वालिन को देते हुए बोला कि इसे हमारे घर पर पहुँचा दो, हम थोडी देर में आ रहे हैं। यह देखकर मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ। अगर हम किसी के खेत से कुछ तोड़ लेते हैं तो, लडाई होना पक्की बात है।


1. मुसाफ़िर जा पहुँचा कुमाऊँ में (भाग-1)
2. मुसाफ़िर जा पहुँचा कुमाऊँ में (भाग-2)

Comments

  1. बढ़िया ! आगे का पढ़ने की प्रतीक्षा है ।
    घुघूती बासूती

    ReplyDelete
  2. अच्छा है भीडापानी का भीडाघाट ही किया ! :) आगे का इंतजार करते हैं ! रामराम !

    ReplyDelete
  3. नीरज जी बहुत बढ़िया यात्रा वृतांत......ये पहाड़ हैं ही कुछ ऐसे जो हर आने वाले पर अपनी छाप छोड़ देते है.......

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब