अभी मैं चिंतामणि जयपुरी की एक वीडियो देख रहा था, जिसमें उन्होंने बताया है कि उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ दी है। वैसे तो नौकरी छोड़ने का मेरा भी इरादा कई वर्षों का है, लेकिन वो एक लालच होता है हर महीने निर्बाध आती सैलरी का। वो जो चालीस-पचास हजार रुपये आते हैं और तमाम सुविधाएँ जो मिलती हैं, आजीवन मेडिकल आदि; उन्हें देखते हुए हिम्मत भी नहीं पड़ती। फिर इस नौकरी के लिए किया गया संघर्ष भी याद आता है। हमने दस साल पहले, बारह साल पहले कितना संघर्ष किया था इसके लिए! कितनी भागदौड़ की थी! कितने बलिदान किए थे!
चिंतामणि ने बताया कि उनके विभाग में किसी ने उनकी शिकायत की थी, जिसके बाद उनके अधिकारी उनके पीछे पड़ गए और रिश्वत तक माँगने लगे थे। आज के समय में चिंतामणि अपनी सैलरी से भी ज्यादा यूट्यूब से कमा रहा है; फिर उन्होंने कोई बिजनेस भी शुरू किया है; तो उन्हें नौकरी छोड़ने के लिए ऐसे ही एक झटके की आवश्यकता थी। अधिकारियों का पीछे पड़ना और रिश्वत माँगना ही वो झटका था और उन्होंने नौकरी छोड़ने का निर्णय ले लिया। अन्यथा वे भी पता नहीं कब से इस निर्णय को टालते आ रहे होंगे।
खैर, एक झटका मुझे भी लगा था पिछले साल, जब मेरा ट्रांसफर दिल्ली में ही 25 किलोमीटर दूर कर दिया गया। हालाँकि मेरी कोई शिकायत नहीं हुई और न ही किसी ने रिश्वत माँगी; यह एक रूटीन ट्रांसफर था। मैं 9 साल से एक ही जगह पर ड्यूटी बजा रहा था, तो ट्रांसफर लाजिमी था भी। लेकिन मुझे यह अच्छा नहीं लगा। शास्त्री पार्क से सरिता विहार डिपो तक जाने में डेढ़ घंटा तक लग जाता था। इसलिए मैंने बाद में बाइक से भी जाना शुरू किया, इससे 45 मिनट लगते थे।
मेरे अधिकारियों का मेरे प्रति रवैया काफी सकारात्मक था और एक-दो बार कहने पर ढाई-तीन महीने बाद मेरा ट्रांसफर यमुना बैंक हो गया। शास्त्री पार्क से मेट्रो से यमुना बैंक जाने में 45 मिनट लग जाते हैं, जबकि बाइक से जाने पर 10 मिनट। मुझे यह स्वीकार्य हो जाता, लेकिन अब तक मैं उन ढाई-तीन महीनों में सरिता विहार जा-जाकर इतना परेशान हो चुका था कि नौकरी छोड़ने का मन बना लिया। दीप्ति से बात की। उसने मना कर दिया। भविष्य की चिंताएँ किसे नहीं होतीं!
तो बीच का एक रास्ता निकाला गया - एक साल की छुट्टी लेना। मैंने एक साल के अवैतनिक अवकाश के लिए एप्लाई किया, लेकिन इससे पहले कि उसका फैसला आता, मैं वहाँ से निकल गया। अब 30 नवंबर को एक साल पूरा हो जाएगा, लेकिन मेरी वो एप्लीकेशन किसी अधिकारी की किसी फाइल में गहरी दबी पड़ी होगी। मुझे नहीं पता कि वे छुट्टियाँ पास हुईं या नहीं। इस दौरान रिकार्ड में मेरी ‘एबसेंट’ चढ़ती रही। आज भी मैं ‘एबसेंट’ ही काउंट होता हूँ।
अभी कुछ दिन पहले ऑफिस की तरफ से हमारे घर पर एक चिट्ठी पहुँची, जिसका शीर्षक था - एब्सकोंडिंग। यानी भगोड़ा। उसमें कुछ यूँ लिखा था - “मिस्टर नीरज कुमार, आप इतनी तारीख से अपने ऑफिस से एबसेंट हो। इस बात का जवाब दो, अन्यथा हम तुम्हें नौकरी से निकाल देंगे।”
मैंने दीप्ति को वो चिट्ठी दिखाई - “ओये, ये देख। सौभाग्य खुद चलकर हमारे पास आ रहा है। कह रहे हैं कि नौकरी से निकाल देंगे।”
खैर, मैंने इस बात का जवाब दे दिया। साथ ही एक साल की छुट्टी वाली एप्लीकेशन की प्रतिलिपि भी लगा दी, जो मेरे अधिकारी की किसी फाइल में दबी पड़ी होगी। साथ ही ये भी लिख दिया कि एक साल की छुट्टी लगाई थी। अगर वो पास नहीं हुई है, तो रिजेक्ट भी नहीं हुई है। जब एक साल पूरा हो जाएगा, तब आकर देखूँगा। अभी 30 नवंबर तक मुझे चैन से जीने दो।
तो वही 30 नवंबर कुछ दिन बाद आने वाला है। लेकिन पिछले ग्यारह महीनों से खुल्ली जिंदगी जीते हुए आदत बदल गई है। ऑफिस के तो अब ख्वाब भी नहीं आते। आमदनी का कोई विशेष स्रोत भी नहीं है, लेकिन हैरानी की बात ये है कि पिछले साल एकाउंट में जितने पैसे पड़े थे, आज भी उतने ही हैं। जबकि हमने अपनी जीवनशैली बिल्कुल भी नहीं बदली है। उसी तरह मस्त होकर सोते हैं; आराम से उठते हैं; मोटरसाइकिल पर देश घूमते हैं; फेसबुक चलाते हैं और हिमाचल में किराये पर कमरा लेकर पूरी गर्मियाँ निकाल देते हैं।
लेकिन अब ऑफिस जाएगा कौन? एक साल से ‘एबसेंट’ था, थोड़ी लेटरबाजी हुई और मैंने जवाब दे दिया। सरकारी नौकरी है। मतलब अगला साल भी इसी तरह निकाला जा सकता है।
हद से हद क्या होगा?
नौकरी से निकाल देंगे।
इतना ही तो होगा। निकाल दो। वी आर रेडी। लेकिन सरकारी नौकरी से निकालना इतना आसान थोड़े ही है?
और अगर एकाउंट में पैसे कम होते दिखेंगे, तो फट से जॉइन भी कर लेंगे। एबसेंट ही तो हूँ। इसका कोई जवाब भी नहीं देना। कोई मेडिकल सर्टिफिकेट भी नहीं देना। एबसेंट हूँ जी। मेरी मर्जी।
यानी मामला अगले साल तक भी खींचा जा सकता है।
...
लेकिन इन बातों से आप मुझे उद्दंड या अनुशासनहीन मत समझ लेना। मेरे अधिकारी लोग मुझे अनुशासनहीन समझें, वो तो ठीक है... ऐसा समझना उनका कर्तव्य भी है। लेकिन आप मत समझ लेना। आप मेरे अधिकारी नहीं हैं।
अप्रैल से जुलाई के चार महीनों में हिमाचल के घियागी गाँव में मैंने कुछ भी नहीं किया। मैं केवल फेसबुक चलाता था, बस। बहुत सारे मित्र वहाँ घूमने गए, मिलने भी गए। और अजीत सिंह जी तो मेरे रूममेट बनकर एक महीने तक मुझे लौकी की सब्जी भी खिलाते रहे। चूँकि लौकी बनी-बनाई मिल रही थी, तो मैं भी खुशी-खुशी खा लेता था।
लेकिन इन चार महीनों में मैंने जिंदगी का एक महत्वपूर्ण सबक सीखा - “जिंदगी जीने के लिए न्यूनतम जितने पैसों की आवश्यकता होती है, उतने पैसे किसी की नौकरी किए बिना आसानी से कमाए जा सकते हैं।”
लेकिन आप चाहें तो अनगिनत अगर-मगर लगा सकते हैं; अपने सामने अनगिनत बैरियर खड़े कर सकते हैं; अनगिनत टोकरे-तसले (जिम्मेदारियाँ) ओढ़ सकते हैं। वो आपकी जिंदगी है, मुझे उससे कोई सरोकार नहीं।
जनवरी 2019 में पाणिनी तिवारी जी जंजैहली गए थे। हम भी उस समय वहीं थे। होटल के सामने सेब का एक बगीचा था। सेब के सभी पत्ते झड़ चुके थे और पेड़ एकदम सूखे हुए बेदम प्रतीत हो रहे थे। गुनगुनी धूप में वहाँ बैठकर पाणिनी भाई ने एक बात कही - “नीरज, यात्राओं के क्षेत्र में तुम्हारा अनुभव और जानकारी अच्छी है। इसे अब अगले मुकाम तक पहुँचाओ। नौकरी तो हो गई, जितनी होनी थी। अब भूल जाओ उसे।”
और फिर मुट्ठी बाँधकर कड़क आवाज में बोले - “तुम्हें ट्रैवल का किंग बनना है। ट्रैवल किंग बनना है।”
...
आज की कहानी ये है कि हमारी एक कंपनी रजिस्टर्ड हो चुकी है... Travel King India Private Limited... इसकी वेबसाइट अभी प्रारंभिक चरण में है... जल्द ही और अच्छी व प्रोफेशनल बना दी जाएगी।
अब आप ये मत पूछना कि सरकारी नौकरी करते हुए हम ये सब क्यों और कैसे कर सकते हैं... अगर हमारे ऑफिस से यह सब पूछा जाएगा, तो हमने इतनी गुंजाइश तो छोड़ी ही है कि उन्हें संतोषजनक उत्तर दे सकें। और समय आने पर आपको भी सब बता देंगे। ऐसे मामलों में कुछ बातें गुप्त भी होती हैं... हाहाहा.. खैर, आप आम खाइए, गुठलियाँ बिना गिने फेंक दीजिए।
जब मैं किसी शहरी बच्चे को मिट्टी में खेलते हुए, कूदकर नाली पार करते हुए या पगडंडी पर संतुलन बनाकर चलते हुए देखता हूँ, तो मुझे वाकई बड़ा अच्छा लगता है। और जब इनके माता-पिता को इन्हें रोकते हुए देखता हूँ तो खराब लगता है।
दिल्ली की शालिनी गुप्ता जी पिछले साल गढ़ गंगा मेले में इसलिए गई थीं कि उनका पाँच साल का बच्चा ग्रामीण भारत को देख सके। गाजियाबाद के पारुल सहगल जी अपने बच्चों को लेकर घियागी इसलिए गए थे कि उनके बच्चे उस छोटी-सी नदी में खेलते-कूदते रहें।
वैसे आज के शहरी माता-पिता अत्यधिक डरपोक हैं। आवश्यकता से ज्यादा डरते हैं। समस्या ये है कि ये अपने डर को जायज भी ठहराते हैं। और उनका यही डर कई गुना बढ़कर बच्चों में ट्रांसफर होता है। “सेफ तो रहेगा ना?” यह उनका तकिया-कलाम बन चुका है। वे भूल जाते हैं कि उनका घर अरुणाचल के किसी घर से ज्यादा असुरक्षित है। उनका शहर किसी अन्य शहर से ज्यादा असुरक्षित है। उनके पडोसी किसी रेलवे स्टेशन के झपटमारों से ज्यादा खतरनाक हैं। और उनके खुद के रिश्तेदार किसी अनजान आदमी से ज्यादा समस्या खड़ी करते हैं।
अभी मैं एक मित्र से बातचीत कर रहा था। वे हनीमून के लिए किसी बर्फीली जगह पर जाना चाहते हैं। मैंने उन्हें मनाली, छितकुल, चोपता और औली के विकल्प सुझाए। उन्हें यह भी नहीं पता था कि ये जगहें किस राज्य में हैं और कैसे पहुँचा जा सकता है, लेकिन यह सब पूछने से पहले उन्होंने पूछा - “इनमें से सबसे ज्यादा सेफ कौन-सी जगह है?”
मैं परंपरागत टूरिज्म के पक्ष में नहीं हूँ। इसने देश, समाज और पर्यावरण का बहुत ज्यादा नुकसान किया है। कुछ अलग-सा हो जाए। हम खुद अलग-से तरीके से घूमते रहे। आप हमारी तारीफ तो खूब करते हो, लेकिन जब हम भी आपसे इसी तरह के व्यवहार को कहते हैं, तो आप एकदम अपनी चादरें ओढ़ लेते हैं - छोटे-छोटे बच्चे हैं; मैं तो महिला हूँ; अनहाइजेनिक; अनसेफ; हमारी तो टट्टी भी खास डिजाइन के टॉयलेट में ही उतरती है; हमारे घर पर अगर खास कंपनी की टैक्सी लेने आएगी, तभी हम जाएँगे... वगैरा वगैरा...
अगर आप इन सब बातों से दूर हैं, तब हमारी और आपकी बहुत अच्छी बनेगी। तब हमें भी आनंद आएगा और आप तो खुशी से पागल ही हो जाओगे।
अभी तो शुरूआत-भर है। हमारी यह नई यात्रा हमें और आपको कहाँ ले जाएगी, न हमें पता है और न आपको।
शानदार
ReplyDeleteJAY HO SAHI JAA RAHE HO BHAGWAN PAR NIRBHAR RAHO NAUKRI PAR NAHI
ReplyDeleteआपकी यात्रा आपको बहुत दूर ले जाएगी ये हमें पता है।
ReplyDeleteयह बात तो माना जाता है कि सरकारी नौकरी मिलना जितना कठिन है। उससे ज्यादा कठिन है सरकारी नौकरी से निकाला जाना। फिर भी अन्याय हो तो लास्ट में कोर्ट है ही। जहाँ तक छुट्टी के स्वीकृत या अस्वीकृत सम्बन्धी बात है। यदि आप ऑफिस में नहीं हैं और छुट्टी अस्वीकृत है तो घर पर लेटर भेज कर सूचित किया जाना चाहिए था। अस्वीकृत की लिखित सुचना मिलने के बाद भी आप छुट्टी चले जाते तो क्लियर कट केस बनता। जहाँ तक जीवन जीने की बात है। संतोषम परम सुखम सभी पर लागू होती है। बाकी तो आप "ट्रवेलर किंग" हैं ही। आगे इसमें फ्यूचर बना भी सकते हैं।
ReplyDeleteGood luck.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया 👍👍
ReplyDeleteBahut hi Sundar likha hai Neeraj Bhai Main Dil Se chahta hun ki aapki travel King 1 Din India Ki Sabse Badi travel company bane aur aap Isi Tarah ghumte aur Logon Ko ghumate Rahe
ReplyDeleteबहुत ही बढिया भाई जी
ReplyDeleteगुड
ReplyDeleteनीरज जी हमने भी 23 साल की बैंक सेवा के बाद वीआरएस ली है तथा पेंशन भी मिल रही है। आज की तारीख में मकान और गाड़ी अपनी है तथा सर पर एक पैसे का लोन भी नहीं है। नौकरी छोड़ना योजनाबद्ध तरीके का कार्य है जिसमें बाद के जीवन के लिए कुछ ना कुछ बैकअप प्लान आवश्यक है। मेट्रो की नौकरी में पेंशन मिलेगी या नहीं मुझे नहीं पता लेकिन आज के दौर में ₹20000 प्रति माह आमदनी के लिए बैंक में 35 लाख रुपए की फिक्स डिपाजिट करनी पड़ेगी। अभी आपकी अगली पीढ़ी की जिम्मेदारी भी आपके पास नहीं आई है उसके लिए भी कुछ ना कुछ करना पड़ेगा। सरकारी सेवा में पेंशन हेतु कम से कम 20 वर्ष की सेवा आवश्यक है और उसमें अनुपस्थित रहने वाला कार्यकाल कम कर दिया जाएगा। आप स्वयं समझदार हैं तथा भविष्य को लेकर सही निर्णय कर सकते हैं।
ReplyDeleteनए सफर की शुरुआत है। उम्मीद है हर सफर की तरह इसमें भी आप झंडे गाढेंगे।
ReplyDeleteनीरज जी नमस्कार, बहुत दिनों बाद आपकी ब्लॉग पर कमेंट लिखा रहा हूँ . आप वेबसाइट बना रहे हैं अच्छी शुरुआत है लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखना की नौकरी मत छोड़ना . चाहो तो छुट्टियां ले लेना आप एक बार में पांच वर्ष के लिए लीव WITHOUT पे ले सकते हो, स्टडी लीव ले सकते हो
ReplyDeleteमेरे एक मित्र थे वो ये कहते थे कि "सरकारी नौकरी आसानी से मिलती नहीं है तो जाती भी नहीं है"
बस कागजों में FAULTY नहीं होना चाहिए . ज्यादा कोई क़ानून बताये तो उसके मुंह पर मेडिकल मार देना . 10 रुपये रेट है पर डे की मेडिकल की , होम्योपैथी या आयुर्वेद वाले खूब बैठे हैं मेडिकल देने को बाकी आप खुद समझदार हो क्या कहूं ?
और हाँ जोधपुर आओ तो मुझे जरुर कॉल करना मेरे मोबाइल न. है 9414914104
नीरज जी आज शायद पहली बार आपके ब्लॉग पर कमेंट कर रहा हूँ। आपकी बात से थोड़ा सा असहमत हूँ। पूछना चाहता हूँ की क्या जिंदगी जीने का मतलब सिर्फ 2 वक़्त का खाना ही है?
ReplyDeleteसरकारी नौकरी आपको तब मिली थी जब आपको इसकी बोहुत ज्यादा जरूरत थी और मेहनत भी वही लोग करते हैं जिनको जरूरत होती है। आज जब आपका इसी नौकरी की वजह से काम बन गया तो आप इसी को छोड़ना वो भी गलत तारीक से चाह रहे है॥ आपको भी शायद मालूम होगा की DMRC आपको इतनी आसानी से नहीं छोड़ेगी क्यूंकी उनको अगला बंदा शायद इतनी जल्दी नहीं मिल पाये और आपके पास तो इतना सारा अनुभव है। कुछ लोग आपको बोल रहे है "मेडिकल मूह पर मार देना" क्या ये तरीका सही है सरकारी नौकरी से पेश आने का। इसीलिए तो सरकारी कर्मचारी को लोग बुरा भला बोलते है।
माफ कीजिये अगर आपको कुछ बुरा लगा हो तो...लेकिन अगर आपने अपने विचार खुले मैं रखे है तो आलोचना के लिए भी तैयार रहिए।
धन्यवाद
झूठा मेडिकल एक गलत चीज है।
Deleteमैंने कभी भी कोई मेडिकल नहीं लिया। न झूठा, न सच्चा। मैंने हमेशा अपनी नौकरी का सम्मान किया है। मुझे अभी भी याद है कि ग्यारह साल पहले मैं जब बेरोजगार था और सरकारी नौकरी के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा था, तो रोया करता था।
इस नौकरी ने मुझे अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया। आज मैं जहाँ हूँ, इसी की वजह से हूँ। एक दिन हमें स्कूल छोड़कर कॉलेज जाना होता है और कॉलेज छोड़कर नौकरी करनी होती है... इसका मतलब ये नहीं है कि स्कूल और कॉलेज खराब होते हैं। लेकिन जिंदगी को आगे बढ़ाने के लिए स्कूल भी छोड़ना पड़ता है और कॉलेज भी... उसी प्रकार जिंदगी के एक मोड पर नौकरी छोड़ना भी सही निर्णय होता है। छत पर पहुँचने के लिए सीढ़ी जरूरी होती है, लेकिन जब आप सीढ़ी चढ़कर सीढ़ी छोड़ नहीं देंगे, आप छत पर नहीं पहुँच सकते। सीढ़ी पर खड़े रहने से आप छत पर कभी नहीं पहुँच सकते।
नीरज जी आपने शायद मुझे गलत समझ लिया और खड़ा कर दिया कटघरे मैं। मैंने ये कभी नहीं कहा की अपने सपने या शौक पूरे न करे। मैंने बस इतना कहा था की अगर नौकरी छोडनी ही है तो तरीके से छोड़िए न...किसी ने ऊपर कमेंट किया था "मेडिकल मुह पर मार देना" मेरे हिसाब से ये तो गलत चीज़ हुयी न।
ReplyDeleteऔर रही बात आगे बढ्ने की तो छत पर पहुचने के बाद कोई सीढ़ी को तो लात तो नहीं मार देता।
वैसे मैं आपका प्रशंसक हूँ और रहूँगा। आप बोहुत से लोगो के लिए प्रेरणा भी हो। आपका हर कदम कई लोगो तो प्रेरित करता है। मैं शायद सोच भी नहीं सकता आपका जितना करना।
पर मेरे विचार से "नौकरी" और वो भी सरकारी ....थोड़ी तो रेस्पेक्ट बनती है न।
और हा जो लोग बोल रहे थे न की उन्होने सरकारी नौकरी छोड़ दी वो कई सालो के बाद तो शायद उन्होने VRS भी नहीं ली होगी।?
इस कमेंट का फ़ेसबुक पर आने का इंतज़ार रहेगा
योगेश जी, आपका यह कमेंट फेसबुक पर नहीं आएगा... इसकी आवश्यकता भी नहीं है... “मुँह पर फेंकना", “लात मारना” ये शब्द प्रयोग करने गलत हैं...
Deleteसरकारी नौकरी भी एक सीढ़ी है, जिसके सहारे हमारी जिंदगी बहुत आसानी से आगे बढ़ती है... लेकिन अगर कोई अन्य बेहतर उपाय दिख रहा है, मसलन जीना, लिफ्ट, एस्केलेटर... तो सीढ़ी को सम्मानित तरीके से उतारकर दूसरी चीजें लगा लेना गलत नहीं है... या अगर किसी को छत पर ही नहीं जाना... नीचे ही रहना है, एक ही जगह पर... तब सीढ़ी की कोई आवश्यकता नहीं है... तब भी उसे अपने आँगन से हटा देना समझदारी है...
मुझे लगता है कि अब मुझे अपने लिए सीढ़ी हटाकर लिफ्ट लगा लेनी चाहिए... सीढ़ी हमेशा याद रहेगी... सीढ़ी ने मुझे ऐसे वक्त में सहारा दिया, जब इसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता थी... लेकिन अब लिफ्ट की आवश्यकता महसूस हो रही है... और मैं लिफ्ट लगाने में सक्षम भी हूँ... लिफ्ट का खर्चा उठाने में भी सक्षम हूँ... तो ऐसे में मुझे सीढ़ी हटानी पड़ेगी...
और हाँ, सीढ़ी की मैं हमेशा रेस्पेक्ट करता रहूँगा... सीढ़ी हमेशा याद रहेगी...
वाकई इंस्पायर करने वाली कहानी है भाई आपकी। एक नॉर्मल इंसान तो सरकारी नौकरी के सहारे पूरी ज़िन्दगी निकाल देता है। अपने कंफर्ट जॉन से निकलना बहुत मुश्किल है और ऊपर से शादी शुदा के लिए तो डबल मुश्किल। मेरी शुभकामनाएं आपके साथ, आप जरूर ट्रैवल किंग बनो।
ReplyDeletedekh bahyi niraj sari baat sahi par nokri mat chhod dena
ReplyDelete