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दुधवा रेलवे - भारतीय रेल का कश्मीर

13 मार्च 2018
आखिरकार वो दिन आ ही गया, जब मैं दिल्ली से शाहजहाँपुर के लिए ट्रेन में बैठा। पिछले साल भी इस यात्रा की योजना बनाई थी और मैं आला हजरत में चढ़ भी लिया था, लेकिन गाजियाबाद से ही लौट आया था - पता नहीं क्यों। लेकिन आज काशी विश्वनाथ पकड़ी और शाम छह बजे जा उतरा शाहजहाँपुर। यहाँ बुलेट लेकर नीरज पांडेय जी मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे और अपने घर ले गए, जहाँ मिठाई व पानी से मेरा स्वागत किया गया। शाम को शहर से बाहर एक रेस्टोरेंट में चल दिए, जहाँ मच्छर-दंश से अपनी टांगें खुजाते हुए मैंने इसे गूगल मैप पर फाइव-स्टार रेटिंग भी दी।
होटल मालिक पांडेय जी का दोस्त था - “हमारी एक खास बात है। हमारे यहाँ किसी भी हालत में कोई भी दारू नहीं पी सकता। ऐसा करने से मैं अपने बहुत सारे मालदार ग्राहकों को खो चुका हूँ, लेकिन मुझे बड़ा सुकून है कि हमारी पहचान एक ऐसे रेस्टोरेंट के तौर पर हो रही है, जहाँ कोई भी दारू नहीं पी सकता।”
“हाँ, सही कहा भाई आपने। यही आपकी पहचान है।” - होटल मालिक के एक अन्य मित्र ने दारू का पव्वा काँच के गिलास में उड़ेलते हुए कहा, जो अभी-अभी अपने बच्चों को थोड़ी ही दूर एक पेड़ के नीचे बैठाकर आया था।
...




शाहजहाँपुर, पूर्वोत्तर रेलवे।
वैसे तो शाहजहाँपुर उत्तर रेलवे में है, लेकिन मीटरगेज की ट्रेनों के लिए ब्रॉडगेज के मुख्य स्टेशन से कुछ दूर इसका एक हिस्सा पूर्वोत्तर रेलवे में भी है। दोनों के कोड़ भी अलग-अलग हैं। उत्तर रेलवे के लिए SPN और पूर्वोत्तर रेलवे के लिए SZP. हाँ, जब कभी गेज परिवर्तन हो जाएगा, तो पूरा शाजहाँपुर उत्तर रेलवे में ही आ जाएगा।
तो सुबह साढ़े छह बजे मीटरगेज की ट्रेन पीलीभीत के लिए चली। गाड़ी में भीड़ तो उतनी नहीं थी, लेकिन सभी सीटें भरी थीं और लोग दरवाजों पर भी खड़े थे। यह मेरी उम्मीद से ज्यादा भीड़ थी। कहाँ से आए हैं ये सब लोग और कहाँ जाएंगे? क्या ये दैनिक यात्री हैं? दैनिक यात्री इतनी सुबह तो नहीं निकलते। और अगर दैनिक यात्री भी हैं, तो रोजगार के लिए शहर से बाहर क्यों जा रहे हैं? पहनावे और महिलाओं-बच्चों को देखकर अंदाजा लग रहा था कि ये कहीं बाहर से किसी दूसरी ट्रेन से यहाँ आए हैं और अब इस ट्रेन से अपने घर जा रहे हैं।
शाहजहाँपुर के बाद स्टेशन हैं - शाहबाजनगर, खिरिया खुर्द, अरेली हाल्ट, ढकिया तिवारी हाल्ट, निगोही, वजीरपुर हाल्ट, जिंदपुरा हाल्ट, चक सफौरा हाल्ट, मिघौना हाल्ट, बीसलपुर, शेरगंज हाल्ट, भोपतपुर, पौटा हाल्ट, प्रताबपुर हाल्ट और पीलीभीत जंक्शन।
इस लाइन पर सबसे बड़ा स्टेशन बीसलपुर है। भीड़ बेशुमार। यहाँ से गाड़ी चली तो शेरगंज में पूरी तरह पैक हो गई। पीलीभीत से पहले एक नदी और फ्लाईओवर के बीच में ट्रेन रुक गई। ट्रैक के दोनों तरफ तारबंदी और भारी संख्या में पुलिस तैनात। सभी यात्रियों के टिकट जाँचे गए, उसके बाद ही गाड़ी को आगे जाने दिया गया। कुछ यात्रियों ने उतरकर भागने की कोशिश भी की, लेकिन भाग नहीं सके।
हमारी आज की यात्रा केवल इस लाइन को ‘कवर’ करने के लिए हो रही है। पहले यही ट्रेन टनकपुर तक जाया करती थी, लेकिन अब पीलीभीत से टनकपुर का मार्ग ब्रॉडगेज हो चुका है, तो हमें अब गाड़ी बदलनी पड़ेगी। ब्रॉडगेज के दोनों प्लेटफार्मों पर एक-एक गाड़ी खड़ी थी। एक बरेली जाएगी, दूसरी टनकपुर। यहाँ टनकपुर लाइन का गेज परिवर्तन हाल ही में संपन्न हुआ है, तो पूरा प्लेटफार्म मिट्‍टी का ढेर बना हुआ था और धूल उड़ रही थी। बार-बार एनाउंसमेंट भी हो रहा था कि फलां ट्रेन फलां प्लेटफार्म से इतने बजे जाएगी, लेकिन कहीं भी प्लेटफार्म नंबर नहीं लिखा था। यात्री लोग एक-दूसरे से ही पूछ-पूछकर ट्रेनों में बैठ रहे थे।
मैंने शाहजहाँपुर से ही टनकपुर का टिकट ले लिया था। दस बजकर दस मिनट पर ट्रेन चली तो एक-एक करके स्टेशन पीछे छूटते गए और हम उत्तर प्रदेश से निकलकर उत्तराखंड में प्रवेश कर गए और डेढ़ घंटे में टनकपुर जा लगे। कौन-कौन-से स्टेशन पीछे छूटे, बताता हूँ: न्यौरिया हुसैनपुर, मझौला पकड़िया, खटीमा, चकरपुर, बनबसा और टनकपुर।
बस अड्‍डे पहुँचा, खाना खाया और बस पकड़कर वापस पीलीभीत लौट आया।
...
ठीक तीन बजे पीलीभीत से मैलानी की ट्रेन रवाना हुई। और इतनी भीड़ मैंने किसी मीटरगेज की ट्रेन में नहीं देखी थी। भयानक भीड़। गाड़ी के चलने से पहले ही दरवाजों पर भी यात्री लटके हुए थे। कोई नया यात्री आता, तो उसे अगले दरवाजे पर जाने को कह दिया जाता। ट्रेन चली, तो बहुत सारे यात्री चढ़ भी नहीं सके।
लेकिन ऐसे में मेरी मूँछें बड़ी काम आईं। दिल्ली से निकलने के एक घंटे पहले जब मैं शेविंग कर रहा था और मूँछें छोड़ दी थीं, तो दीप्ति ने इन्हें भी खत्म कर देने का आदेश दिया। मैंने कहा - आज मूँछें शेव नहीं करूंगा, भले ही दो दिन बाद वापस लौटकर कर दूँ। इन्हीं मूँछों और सफाचट दाढ़ी की वजह से आज ट्रेन में चढ़ पाया। दरवाजों पर बैठे यात्री देखते ही उठ गए और मैं उनकी जगह पर जा खड़ा हुआ - बिना एक भी शब्द कहे।
ऐसा चेहरा फौजियों का होता है जनाब।
पूरनपुर तक ऐसी ही भीड़ रही। उसके बाद लगभग खाली हो गई।
शाम साढ़े पाँच बजे ट्रेन मैलानी पहुँच गई। मित्र सरयू प्रसाद मिश्र की बदौलत मुझे पता चला कि यहाँ के स्टेशन मास्टर दिव्यांक जी मेरा ब्लॉग पढ़ते हैं। जब यात्रा से पहले दिव्यांक जी से संपर्क किया तो पता चला कि आज यानी 13 मार्च को उनका स्थानांतरण मैलानी से वाराणसी हो गया है और वे किसी भी हालत में मुझसे नहीं मिल पाएंगे, लेकिन मेरे रुकने की व्यवस्था कर देंगे।
मैं आज मैलानी ही रुकना चाहता था, लेकिन यहाँ कोई होटल नहीं है। चूँकि यात्रा से पहले मैं दिव्यांक जी को भी नहीं जानता था इसलिए मैलानी में नहीं ठहर सकता था। एक विकल्प पूरी रात प्लेटफार्म पर भी सो जाना था, लेकिन कल पूरे दिन ट्रेन-यात्रा करनी है और ज्यादातर समय दरवाजे पर खड़े रहना है, तो मच्छरों से भरे प्लेटफार्म पर सोकर अपनी नींद भी खराब नहीं करना चाहता था। यानी अब मैलानी से कुछ आगे पलिया कलां जाना पड़ेगा। पलिया कलां दुधवा नेशनल पार्क का प्रवेश द्वार है, इसलिए वहाँ ठहरने के कई बेहतरीन विकल्प हैं।
ऐसे में दिव्यांक जी से संपर्क होना बहुत बेहतरीन था। वे यहाँ कई वर्षों से कार्यरत हैं। उन्होंने मुझसे कहा - “नीरज जी, आपसे मिलने और आपके साथ यात्रा करने की बड़ी इच्छा थी। अगर मैं मैलानी ही होता, तो आपके साथ बहराइच तक यात्रा करता। लेकिन आज ही मेरा ट्रांसफर हुआ है, तो आपके साथ तो नहीं चल पाऊँगा, लेकिन मैलानी में आपके रुकने का बंदोबस्त अवश्य हो जाएगा। आप स्टेशन पर जाकर बुकिंग क्लर्क से मिल लेना।”
जो ट्रेन अभी-अभी मुझे पीलीभीत से लाई थी, वही थोड़ी ही देर बाद पलिया कलां होते हुए बहराइच जाएगी। मैं ट्रेन से उतरते ही क्लर्क से मिलने दौड़ा।
“आज तो रिटायरिंग रूम एक स्टाफ ने बुक कर रखा है। कहो तो आपकी व्यवस्था पलिया में करा दूँ।”
“पलिया में तो रुकने की कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन अगर मैलानी ही रुकना हो जाता, तो अच्छा होता।”
उन्होंने पलिया फोन मिला दिया और मुझसे कहा - “आप इसी ट्रेन से पलिया चले जाइए। वहाँ फलाने सिंह जी मिलेंगे, उनसे मिल लेना। यह लो उनका फोन नंबर।”
“ठीक है... तो पलिया का एक टिकट भी दे दो।”
ट्रेन के चलने में अभी समय था। मैं स्टेशन से बाहर घूमने चल दिया। काफी व्यस्त बाजार है, लेकिन कोई भी होटल नहीं दिखा। खाने-पीने के विकल्पों की कोई कमी नहीं। खा-पीकर मैं प्लेटफार्म पर आकर बैठ गया और ट्रेन के चलने की प्रतीक्षा में मच्छर मारने लगा।
शाम छह बजकर तीस मिनट पर ट्रेन चल देनी चाहिए थी, लेकिन छह पैंतीस तक भी नहीं चली। छह बजकर छत्तीस मिनट पर मैलानी के क्लर्क का फोन आया - “नीरज जी, रिटायरिंग रूम खाली हो गया है। आप आ जाओ।”
यह वाकई बहुत प्रसन्नता की बात थी। यही मैं चाहता था। मैं मैलानी ही रुकना चाहता था। लेकिन किसी वजह से अगर रूम खाली ही न हुआ हो? या क्लर्क को लग रहा हो कि दो-चार मिनट में खाली हो जाएगा और खाली हो ही न? उधर ट्रेन भी चलने को तैयार खड़ी है - किसी भी समय सिग्नल हो जाएगा और ट्रेन चल देगी। कहीं मैं न घर का रहूँ, न घाट का।
“सर, रूम पक्का खाली हो गया है?”
“हाँ जी।”
“कमरे की चाबी आपके हाथ में आ गई है?”
“हाँ जी।”
“देख लो, ट्रेन भी चलने वाली है। कहीं मैं मैलानी में ही न फँसा रह जाऊँ।”
“नहीं, ऐसा नहीं होगा।”

आज मैं मैलानी का बादशाह था। रिटायरिंग रूम प्लेटफार्म एक पर ही बना है। यूँ दरवाजा खोलो और आप प्लेटफार्म पर। लेकिन यहाँ से लखनऊ की तरफ गेज परिवर्तन का काम चल रहा है, तो पूरा प्लेटफार्म अस्त-व्यस्त था। फिर भी एहसास हो रहा था कि कुछ ही समय पहले यहाँ से पूरी रात मीटरगेज की ट्रेनें जाया करती थीं - सेंचुरी एक्सप्रेस, गोकुल एक्सप्रेस, नैनीताल एक्सप्रेस आदि।

...
14 मार्च 2018
ट्रेन नंबर 52252 मैलानी-बहराइच पैसेंजर सुबह सात बजे मैलानी से प्रस्थान करती है, लेकिन यह हमेशा ही एक-डेढ़ घंटा लेट हो जाती है। मैं पिछले कई दिनों से इंटरनेट पर इस ट्रेन के पीछे पड़ा था। समझ में आया कि बहराइच से रात 11 बजे चलने वाली और मैलानी सुबह साढ़े पाँच बजे पहुँचने वाली 52257 ही मैलानी पहुँचकर 52252 बन जाती है। फिर यह भी समझ में आने लगा कि 52257 जितनी लेट मैलानी आती है, 52252 भी उसी के अनुसार मैलानी से छूटती है। आखिर दोनों एक ही रेक जो है।
सुबह छह बजे अलार्म बजा। 52252 कितने बजे चलेगी, यह निर्भर करता है कि 52257 कितनी लेट मैलानी आएगी। इसलिए पड़े-पड़े ही 52257 का स्टेटस देखा - यह ढाई घंटे की देरी से चल रही थी। यानी कम से कम आठ बजे तक यह ट्रेन मैलानी आएगी और कम से कम साढ़े आठ बजे मैलानी से चलेगी। इसलिए अभी उठने का कोई फायदा नहीं है, सो जाने में ही भलाई है। साढ़े सात का अलार्म लगा लिया।
ट्रेन की सीटी सुनकर आँख खुली। ट्रेन रिटायरिंग रूम से बहुत दूर खड़ी थी, इसलिए बाहर निकले बिना दिख भी नहीं सकती थी। पूरे सात बजे थे - सात बजकर जीरो मिनट। जब कोई भी ट्रेन प्रस्थान करती है, तो एक निश्चित समय में दो बार सीटी बजाती है। इसने भी वही सीटी बजाई। यानी न तो कोई ट्रेन मैलानी आई है और न ही इंजन की शंटिंग हो रही है। अवश्य कोई न कोई ट्रेन प्रस्थान कर रही है।
लेकिन कौन-सी?
ठीक सात बजे?
अगर पाँच मिनट भी ऊपर-नीचे होते, तो मैं मान लेता कि यह पीलीभीत वाली ट्रेन थी, लेकिन ‘ठीक सात बजे’ संशय पैदा कर रहा था। 52257 अब तक तीन घंटे लेट हो चुकी थी और अभी तक भी मैलानी नहीं आई थी। और जब यूँ ही 52252 का स्टेटस देखा तो होश उड़ गए।
“ठीक सात बजे यह ट्रेन मैलानी से चली गई।”
ऐसा कैसे हो सकता है?
तो क्या 52257 ही 52252 बनकर नहीं जाती?
तो फिर क्यों इतने दिनों से यह 52257 के आने के बाद ही जा रही थी?
क्या इसे आज ही सही समय पर चलना था?
अब क्या होगा?
अब साढ़े दस वाली ट्रेन पकडूंगा। नेपालगंज रोड़ नहीं जाना हो पाएगा, लेकिन मैलानी से बहराइच का मार्ग तो देख ही लूंगा। नौ बजे का अलार्म लगाकर और फेसबुक पर ट्रेन छूट जाने का स्टेटस डालकर फिर सो गया।

आपको तो पता ही है कि वर्ष 1853 में भारत में पहली ट्रेन चली थी। लेकिन ऐसा नहीं है कि केवल मुंबई में ही ट्रेनों पर काम चल रहा था, बल्कि पूर्वी भारत और दक्षिणी भारत में भी अलग-अलग कंपनियाँ रेलवे के काम में लगी हुई थीं। पूर्वी भारत में ईस्ट इंडिया रेलवे ने बहुत जल्द हावड़ा और दिल्ली को रेलमार्ग से जोड़ दिया।
फिर 1873 में अवध और रुहेलखंड रेलवे ने बनारस से प्रतापगढ़ होते हुए लखनऊ और आगे शाहजहाँपुर व बरेली को भी ब्रॉडगेज लाइन से जोड़ दिया। इसी रेलवे की यह लाइन आगे मुरादाबाद और सहारनपुर तक जा पहुँची। गाजियाबाद और मुरादाबाद तो बहुत बाद में जुड़े।
1880 के दशक में भारत-नेपाल सीमा के आसपास मीटरगेज लाइनों का बड़ी तेजी से विस्तार हुआ। मुख्यतः दो रेल कंपनियों ने इधर काम किया - पहली रुहेलखंड व कुमाऊँ रेलवे और दूसरी बंगाल व नॉर्थ-वेस्टर्न रेलवे
रुहेलखंड व कुमाऊँ रेलवे ने 1884 में बरेली से काठगोदाम और पीलीभीत को मीटरगेज के माध्यम से जोड़ दिया। फिर 1891 में पीलीभीत और मैलानी जुड़े। यानी मैलानी में पहली ट्रेन 1891 में आई थी - 1 अप्रैल को। उधर पीलीभीत से शाहजहाँपुर की मीटरगेज की लाइन 1911-12 में बनी और पीलीभीत से टनकपुर की लाइन भी इसी दौरान बनी। फिलहाल बरेली से पीलीभीत और टनकपुर तक ब्रॉडगेज हो चुका है, जबकि पीलीभीत से शाहजहाँपुर व मैलानी की लाइनें अभी भी मीटरगेज ही हैं। मैंने कल इसी मार्ग पर यात्रा की थी।
उधर जैसे ही मैलानी और लखनऊ मीटरगेज की लाइन से जुड़े, वैसे ही मैलानी से दुधवा की तरफ भी मीटरगेज की पटरियाँ बिछा दी गईं। दुधवा से अगला स्टेशन सोनारीपुर है। सोनारीपुर में पहली ट्रेन 18 अगस्त 1894 को पहुँची। हालाँकि आज सोनारीपुर स्टेशन बंद है, लेकिन आज भी यह घने जंगल में स्थित है। 1894 में तो यह और भी भयंकर घना जंगल रहा होगा। 1903 में दुधवा से एक लाइन चंदन चौकी तक बिछाई गई, जो आज पूरी तरह बंद है। जाहिर है कि इस जंगल में रेल लाइन बिछाने का उद्देश्य यात्री यातायात तो बिल्कुल नहीं था। मुख्य उद्देश्य था वनोपज को ट्रेन के माध्यम से बाहर भेजना।





उधर दूसरी कंपनी बंगाल व नॉर्थ-वेस्टर्न रेलवे ने उत्तर बिहार में मीटरगेज की लाइनें बिछाईं। गोरखपुर को भी जोड़ा गया और बलरामपुर होते हुए गोंडा को भी। अप्रैल 1884 में गोंडा और बहराइच जुड़ गए व दिसंबर 1886 में बरहाइच से नेपालगंज रोड़ तक मीटरगेज की लाइन बिछा दी गई। फिर नानपारा से एक लाइन निकाली गई और 1896 में मिहिंपुरवा और 1898 में कतरनिया घाट तक रेल जा पहुँची। कतरनिया घाट में घाघरा नदी के पूर्वी किनारे पर रेलवे स्टेशन था।
बंगाल व नॉर्थ-वेस्टर्न रेलवे की लाइन यहीं तक थी।

उधर बाद में 1911 में रुहेलखंड व कुमाऊँ रेलवे की लाइन सोनारीपुर से आगे बढ़ी और घाघरा के पश्चिमी किनारे तक पहुँच गई। यहाँ स्टेशन बनाया गया कौडियाला घाट। या फिर शायद कुछ और नाम रहा होगा। फिलहाल कौडियाला घाट से ही काम चला लेते हैं। घाघरा पर पुल नहीं बनाया गया। यात्री इधर से ट्रेन से आते, नावों से नदी पार करते और दूसरी तरफ जाकर फिर से ट्रेन पकड़ लेते।
फिर क्या हुआ?
फिर इन दोनों रेलवे कंपनियों का 1943 में अवध व तिरहुत रेलवे में विलय हो गया। फिर 1947 में देश आजाद हुआ और 1952 में अवध व तिरहुत रेलवे के कुछ हिस्से को पूर्वोत्तर रेलवे बना दिया गया।
वर्ष 1976 में घाघरा नदी (असल में गिरवा नदी) और कौडियाला नदी के संगम पर गिरिजा बैराज बनाया गया। यह बैराज कतरनिया घाट स्टेशन से लगभग 10 किलोमीटर दक्षिण में था। बांध बनाने के साथ ही इस पर रेल का पुल भी बनाया गया, ताकि दोनों किनारों को रेल के माध्यम से भी जोड़ा जा सके। कतरनिया घाट व कौडियाला घाट स्टेशनों को बंद करके पूर्व में बिछिया और पश्चिम में तिकुनिया से रेलवे लाइन दक्षिण में लाई गई और नदी पार की गई। बिछिया और तिकुनिया के बीच में इसी वजह से रेलवे लाइन अंग्रेजी के U अक्षर के आकार में है।
इसके साथ ही यह लाइन दुधवा नेशनल पार्क और कतरनिया घाट वाइल्डलाइफ सेंचुरी के बीचोंबीच से गुजरती है। हिमालय की तराई में स्थित ये जंगल अभी भी बहुत घने हैं और बाघों, तेंदुओं, भालुओं व जंगली हाथियों की शरण-स्थली भी हैं। इसी खासियत की वजह से रेलप्रेमी इस लाइन को ‘भारतीय रेल का कश्मीर’ भी कहते हैं।
हाल ही में रेलवे ने इसे हेरीटेज मानकर संरक्षित करने की घोषणा की है। उम्मीद है कि मैलानी से नानपारा तक इस लाइन का कभी भी गेज परिवर्तन नहीं होगा और भारत में लगभग विलुप्त हो चुकी मीटरगेज की ट्रेन यहाँ जंगलों में चलती रहेगी।
...
सात बजे वाली ट्रेन भले ही छूट गई हो, लेकिन साढ़े दस वाली ट्रेन नहीं छूटी। चालीस मिनट की देरी से ट्रेन मैलानी से रवाना हुई और स्टेशन से निकलते ही जंगल में प्रवेश कर गई। यह दुधवा नेशनल पार्क का ही हिस्सा है। रेल के साथ-साथ ही सड़क भी है। सड़क भी अच्छी बनी है।
जंगल के बीच में राज नरायनपुर नामक स्टेशन भी मिला, जो अब बंद हो चुका है।
इस जंगल से निकलते ही भीरा खीरी स्टेशन है। मैलानी से यहाँ तक की 16 किलोमीटर की दूरी को तय करने में चालीस मिनट लग गए। जंगल में ट्रेन बहुत धीरे-धीरे चली।
इसके बाद शारदा नदी का पुल है। यही नदी पीछे भारत और नेपाल की सीमा भी बनाती है और काली नदी भी कहलाती है। ग्रामीण अपनी भैंसों को पैदल ही नदी पार करा रहे थे। नदी में घुटनों तक ही पानी था। लेकिन साफ पानी था।
छोटे-छोटे बच्चे ट्रेन देखकर उछल-उछल खेल रहे थे। रोज ही उछलते होंगे ये दिन में दस बार।

साढ़े ग्यारह बजे दुधवा। उत्तर प्रदेश का एकमात्र नेशनल पार्क यही है। घने जंगल में स्थित है स्टेशन। यहाँ से आगे तेज राइट टर्न है। किसी जमाने में यहाँ से बाएँ एक लाइन चंदन चौकी जाती थी। यहाँ से थोड़ा ही आगे से एक लाइन बाएँ मुड़कर गौरी फांटा भी जाती थी, जो अब पूरी तरह बंद है। सोच रहा हूँ कि चंदन चौकी और गौरी फांटा में स्टेशनों के अवशेष तो बचे ही होंगे।
और सोनारीपुर के भी अब अवशेष ही बचे हैं। 1894 से 1911 तक सोनारीपुर इस लाइन का आखिरी स्टेशन हुआ करता था। फिर बाद में भी महत्वपूर्ण स्टेशन ही होता था। यह स्टेशन की इमारत को देखकर अंदाजा भी लग जाता है। लेकिन वर्तमान में स्टेशन पूरी तरह बंद है और ट्रेनें बिना रुके निकल जाती हैं या फिर कभी-कभार रेलवे स्टाफ को लेने या उतारने के लिए भी रुकती हैं।
जंगल के कर्मचारी जंगल में आग जला रहे थे। इसे ‘कंट्रोल्ड फायर’ कहते हैं। फरवरी-मार्च में जब घास सूख जाती है, पत्ते सूखकर नीचे गिर जाते हैं, तो वे किसी भी वजह से आग पकड़ेंगे ही। ऐसी आग बहुत खतरनाक होती है। इससे अच्छा है कि इन्हें अपनी निगरानी में स्वयं ही जला दो।
जंगल से निकलते ही बेलरायाँ स्टेशन है। जंगल में ट्रेन लगभग 30 की स्पीड से चलती है। फिलहाल मार्च का महीना होने के कारण हरियाली उतनी आकर्षक नहीं थी, लेकिन मानसून में यह ट्रेन यात्रा वाकई ‘मस्ट डू’ है।
बेलरायाँ से अगला स्टेशन तिकुनिया है। अब मुझे इंतजार था कि कब ट्रेन तिकुनिया से चले और दाहिने मुड़े। मैंने बाईं तरफ के एक दरवाजे पर कब्जा कर लिया था।
ट्रेन चली और जैसे ही दाहिने मुड़ने लगीं, तो मुझे वो चीज दिख गई जिसके लिए मैं बाएँ दरवाजे पर आया था। दो पगडंडियाँ एकदम सीधे जा रही थीं। आप कभी सोच भी नहीं सकते कि चालीस साल पहले रेलवे लाइन ठीक उस स्थान से गुजरती थी, जहाँ ये पगडंडियाँ हैं। सीधी लाइन कभी कौडियाला घाट जाती थी। 1976 में गिरिजा बैराज बन जाने पर रेलवे लाइन को बैराज से ही गुजारा जाने लगा और कौडियाला घाट की लाइन बंद हो गई।
लेकिन ऐसा नहीं है कि बांध केवल तभी दिखता है, जब हम इसे पार करते हैं। आप नदी के साथ-साथ बहाव की दिशा में बैराज की ओर चलेंगे तो आपको पानी के किनारे-किनारे ही चलना पड़ेगा। रेलवे लाइन भी पानी के किनारे-किनारे ही है। और मंझरा पूरब स्टेशन तो पानी से दस मीटर हटकर ही है। बीच में केवल कच्ची-पक्की सड़क है। मुझे इस पूरी लाइन का सबसे शानदार स्टेशन मंझरा पूरब ही लगा। ग्रामीणों ने सड़क व रेलवे लाइन के बीच में बल्लियाँ आदि लगाकर दुकानें बना रखी हैं और चाय-पकौड़ी का पूरा इंतजाम रहता है। आप कभी इधर आओ तो मैलानी से सात वाली ट्रेन पकड़ना और मंझरा पूरब उतर जाना। पानी किनारे बैठकर चाय-पकौड़ियाँ खाते रहना और फिर दूसरी ट्रेन पकड़ लेना।
घाघरा नदी को नेपाल में करनाली कहा जाता है। यह बहुत बड़ी नदी है और इसमें पानी भी खूब रहता है। यहाँ इसमें मछुआरे मछली पकड़ रहे थे और नदी के बीच बने रेत के अस्थायी द्वीपों पर अपने तंबू भी लगा रखे थे।
नदी पार करते ही कतरनिया घाट वाइल्डलाइफ सेंचुरी है। फिर से हम जंगल में घुस जाते हैं और नदी के साथ-साथ उत्तर की ओर चलने लगते हैं। बिछिया में प्रवेश के समय लाइन दाहिने घूमती है और अपने उसी पुराने मार्ग पर आ जाती है, जो बांध बनने से पहले था। यहाँ से भी पुरानी लाइन के अवशेष बिछिया से कतरनिया घाट स्टेशन की ओर जाते दिखते हैं, लेकिन जंगल में इन्हें पहचानना थोड़ा मुश्किल है। मुझे इसके अवशेष मिल गए थे।
यह तो दुधवा से भी बड़ा जंगल है। निशानगाड़ा, मुर्तिहा, ककरहा रेस्ट हाउस स्टेशन तो जंगल के अंदर ही हैं। और जैसे ही जंगल से बाहर निकलते हैं, एकदम मिहिंपुरवा स्टेशन आ जाता है।
अपर्णा जी फैजाबाद में रहती हैं, लेकिन मूलरूप से यहीं मिहिंपुरवा की रहने वाली हैं। वे बहुत तारीफ करती हैं अपने कतरनिया घाट जंगल की।
“एक बार हम छुट्‍टियाँ मनाने जंगल में गए। बहुत दूर तक, बहुत ही दूर तक हम जंगल में गाड़ी ले गए। अंदर कहीं सुदूर स्थान पर जंगल वालों का कोई रेस्ट हाउस था। वहाँ कभी-कभार ही कोई ठहरने जाता था। वहाँ पहुँचे तो लगा कि दुनिया हम हजारों मील पीछे छोड़ आए। केवल हम ही हैं। लेकिन तभी... रेल की सीटी सुनाई पड़ी। तब पहली बार एहसास हुआ कि हमारे मिहिंपुरवा से गुजरने वाली ट्रेन जंगल में कितने अंदर तक जाती है।”
फिर तो गायघाट है, रायबोझा है और नानपारा जंक्शन है।

‘भारतीय रेल के कश्मीर’ में मैंने आज यात्रा कर ली। लेकिन मन नहीं भरा। यहाँ बारिश में या बारिश के बाद आने की बात ही अलग होगी।


बंद हो चुका राज नरायनपुर स्टेशन

शारदा नदी

शारदा नदी

शारदा नदी

शारदा नदी




दुदवा स्टेशन पर दो ट्रेनों की क्रॉसिंग

दुदवा स्टेशन




दुधवा नेशनल पार्क के अंदर रेलयात्रा







इन पगडंडियों के स्थान पर ही चालीस साल पहले रेलवे लाइन थी

बहुत दूर तक ट्रेन बांध के साथ-साथ चलती है।

मंझरा पूरब स्टेशन

मंझरा पूरब स्टेशन

मंझरा पूरब स्टेशन




मंझरा पूरब स्टेशन



गिरिजा बैराज

घाघरा नदी में मछुआरे






गौर से देखेंगे तो बिछिया से कतरनिया घाट स्टेशन जाने वाली लाइन की भनक अवश्य लग जाएगी...


निशानगाड़ा स्टेशन

निशानगाड़ा स्टेशन










Comments

  1. शानदार यात्रा, जब मैंने इस रेल लाइन पर यात्रा की थी तब मुझे भी यह यात्रा काफी दिलचस्प लगी।आज आपके ब्लॉग के माध्यम से फिर से यात्रा हो गई,परन्तु आपने इसमें खैरटिया बांध रोड स्टेशन का कोई जिक्र नहीं किया, शायद आपने इसे किसी और नाम से पढ़ा हो।

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    1. मैंने बहुत सारे स्टेशनों के नाम नहीं लिखे...
      और ‘खैरटिया बांध रोड़’ को किसी और नाम से नहीं, बल्कि इसी नाम से पढ़ा था...

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  2. sir namaskar , thank you to mentioned all these places , i am from rupaidiha known as nepalgunj road , try to plan tour for rara lake , its worth to visit . please let me know if you plan this trip .

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  3. neeraj bhai ye ytra phle bhi kahi post kari thi kya esa lag rha hai ki phle bhi padh chuka hu.

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  4. शानदार और जानकारी पूर्ण पोस्ट ।

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  5. मैलानी की इतनी तारीफ के लिए धन्यबाद....
    सर, आप अगली बार आइयेगा तो हमसे जरूर मिलिएगा हम मैलानी के ही निवासी है।

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  6. नमस्कार नीरज जी,
    मैं भी नानपारा के पास ही नौकरी कर रहा हूँ पिछले 3 सालों से ट्रेन से दिन में कभी भी सफर नही किया है।पर लोगो से सुना बहुत है, इस लाइन की खूबसूरती के बारे में। व्यस्तता के कारण छुट्टी मिलते ही घर की तरफ दौड़ पड़ते है,इस अद्भुत लाइन का नजारा मानसून के बाद अक्टूबर-नवंबर महीने में ही बहुत मनोरम होता है।

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  7. नीरज जी नमस्कार
    हालांकि मेरा निवास सीतापुर मे है, फिर भी लखीमपुर भीरा पालिया दुधवा आदि कई बार गया हूँ | आपकी नजरों से देखा तो एक नया एहसास हुआ| मैं तो आपके ब्लॉग का नियमित पाठक हूँ, जब यह एहसास हुआ की आप इतने पास से आकार चले गए तो आप से ना मिल पाने की एक कसक सी रह गई| भविष्य मे जब भी कभी इधर आना हो तो सूचित अबश्य करिएगा| (mateshwarisitapur@gmail.com)

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  8. Its really nice that how you enjoy trips...

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  9. नीरज जी मैं bahraaich का निवासी हूँ
    और जितनी जानकारी अपने इस ट्रैक की दी
    वह बाबत केयोगों को मालूम होगी
    1 बात और मानसून में इस ट्रैक पर मोटरसायकिल से सफर का आनन्द ही अलग है
    कभी इधर का प्रोग्राम बने तो जरूर आपका मेजबान बनना चाहूंगा 9721155444 मेरा नम्बर है
    कतर्निया के अतिरिक्त श्रावस्तीऔर सुहेलवा वाइल्ड लाइफ सेंचतुरी भी घूमे

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

स्टेशन से बस अड्डा कितना दूर है?

आज बात करते हैं कि विभिन्न शहरों में रेलवे स्टेशन और मुख्य बस अड्डे आपस में कितना कितना दूर हैं? आने जाने के साधन कौन कौन से हैं? वगैरा वगैरा। शुरू करते हैं भारत की राजधानी से ही। दिल्ली:- दिल्ली में तीन मुख्य बस अड्डे हैं यानी ISBT- महाराणा प्रताप (कश्मीरी गेट), आनंद विहार और सराय काले खां। कश्मीरी गेट पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास है। आनंद विहार में रेलवे स्टेशन भी है लेकिन यहाँ पर एक्सप्रेस ट्रेनें नहीं रुकतीं। हालाँकि अब तो आनंद विहार रेलवे स्टेशन को टर्मिनल बनाया जा चुका है। मेट्रो भी पहुँच चुकी है। सराय काले खां बस अड्डे के बराबर में ही है हज़रत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन। गाजियाबाद: - रेलवे स्टेशन से बस अड्डा तीन चार किलोमीटर दूर है। ऑटो वाले पांच रूपये लेते हैं।