Skip to main content

Posts

Showing posts from September, 2017

पुस्तक-चर्चा: पिघलेगी बर्फ

पुस्तक मेले में घूम रहे थे तो भारतीय ज्ञानपीठ के यहाँ एक कोने में पचास परसेंट वाली किताबों का ढेर लगा था। उनमें ‘पिघलेगी बर्फ’ को इसलिये उठा लिया क्योंकि एक तो यह 75 रुपये की मिल गयी और दूसरे इसका नाम कश्मीर से संबंधित लग रहा था। लेकिन चूँकि यह उपन्यास था, इसलिये सबसे पहले इसे नहीं पढ़ा। पहले यात्रा-वृत्तांत पढ़ता, फिर कभी इसे देखता - ऐसी योजना थी। उन्हीं दिनों दीप्ति ने इसे पढ़ लिया - “नीरज, तुझे भी यह किताब सबसे पहले पढ़नी चाहिये, क्योंकि यह दिखावे का ही उपन्यास है। यात्रा-वृत्तांत ही अधिक है।”  तो जब इसे पढ़ा तो बड़ी देर तक जड़वत हो गया। ये क्या पढ़ लिया मैंने! कबाड़ में हीरा मिल गया! बिना किसी भूमिका और बिना किसी चैप्टर के ही किताब आरंभ हो जाती है। या तो पहला पेज और पहला ही पैराग्राफ - या फिर आख़िरी पेज और आख़िरी पैराग्राफ।

पाताल भुवनेश्वर की यात्रा

13 जून 2017 हम मुन्स्यारी में थे और सोते ही रहे, सोते ही रहे। बारह बजे उठे। आधी रात के समय यहाँ बड़ी चहल-पहल मची थी। गाड़ी भरकर पर्यटक आये थे। उनकी गाड़ी कहीं ख़राब हो गयी थी तो लेट हो गये। और उन्होंने जो ऊधम मचाया, उसका नतीज़ा यह हुआ कि हम दोपहर बारह बजे तक सोते रहे। उठे तो आसमान में बादल थे और बर्फ़ीली चोटियों का ‘ब’ भी नहीं दिख रहा था। आज हमें मुन्स्यारी के आसपास ही घूम-घामकर वापसी के लिये चल देना था और थल के आसपास कहीं रुकना था। अब साफ़ मौसम नहीं था तो मुन्स्यारी घूमने का इरादा त्याग दिया और वापस चल दिये। बड़े दिनों से इच्छा थी मुन्स्यारी देखने की। वो इच्छा तो पूरी हो गयी, लेकिन घूम नहीं पाये। इच्छा कहीं न कहीं अधूरी भी रह गयी। इसे पूरा करने फिर कभी आयेंगे।

पुस्तक-चर्चा: चुटकी भर नमक, मीलों लंबी बागड़

पुस्तक मेले में घूमते हुए एक पुस्तक दिखायी पड़ी - चुटकी भर नमक, मीलों लंबी बागड़। कवर पेज पर भारत का पुराना-सा नक्शा भी छपा था, तो जिज्ञासावश उठाकर देखने लगा। और खरीद भी ली। ब्रिटिश राज में नमक पर कर लगा करता था। बंगाल रेजीडेंसी में यह सर्वाधिक था - साल में आम जनता की लगभग दो महीने की आमदनी के बराबर। तो बंबई रेजीडेंसी व राजपूताना की तरफ से इसकी तस्करी होने लगी। इस तस्करी को रोकने के लिये अंग्रेजों ने 1500 मील अर्थात 2400 किलोमीटर लंबी एक बाड़ बनवायी। यह बाड़ इतनी जबरदस्त थी कि कोई इंसान, जानवर इसे पार नहीं कर सकता था। यह बाड़ मिट्टी और कँटीली झाड़ियों की बनायी गयी। बीच-बीच में द्वार बने थे। केवल द्वारों से होकर ही इसे पार करना होता था - वो भी सघन तलाशी के बाद।

बाइक यात्रा: नारायण आश्रम से मुन्स्यारी

12 जून 2017 ग्यारह बजे नारायण आश्रम से चल दिये। आज मुन्स्यारी पहुँचना था, जो यहाँ से करीब 150 किलोमीटर दूर है। कल रात के समय हम यहाँ आये थे। अब दिन के उजाले में पता चल रहा था कि यह रास्ता कितना खूबसूरत है। ख़राब तो है, लेकिन खूबसूरत भी उतना ही है। शुरू में जंगल है, फिर थानीधार के बाद विकट खड़े पहाड़ हैं। थानीधार पांगु के पास है। धारचूला से पांगू तक नियमित जीपें चलती हैं। थानीधार से पूरब में थोड़ा ऊपर नारायण आश्रम का बड़ा ही शानदार दृश्य दिखता है। यहाँ एक सूचना-पट्ट लगा था - तवाघाट से थानीधार मोटर-मार्ग का निर्माण। और यह मार्ग 14 किलोमीटर लंबा होने वाला था। हमें नहीं पता था कि यह पूरा बन गया या नहीं। तो हम इसी पर चल दिये। अगर पूरा बन गया होगा, तो 10-12 किलोमीटर कम चलना पड़ेगा और अगर पूरा नहीं बना होगा तो वापस यहीं लौट आयेंगे। जरा ही आगे एक गाँव में पता चल गया कि यह मार्ग अभी पूरा नहीं बना है, तो वापस उसी रास्ते लौट आये।

नारायण स्वामी आश्रम

11 जून 2017 अभी ढाई ही बजे थे और हमें बताया गया कि दुकतू से जल्द से जल्द निकल जाओ, अन्यथा यह अनिश्चित समय तक सड़क मार्ग से कट जायेगा। सी.पी.डब्लू.डी. सड़क की खुदाई कर रहा था, इसलिये सड़क बंद होने वाली थी। हमें याद आया कि वहाँ सड़क थी ही नहीं, जीप वालों ने इधर-उधर से निकालकर आना-जाना शुरू कर दिया था। अब वे लोग जब पहाड़ खोदेंगे तो जीप वालों की वह लीक भी बंद हो जायेगी और कोई भी दुकतू न तो आ सकेगा और न ही जा सकेगा। हम दुकतू में एक दिन और रुकना चाहते थे, लेकिन अनिश्चित समय के लिये फँसना नहीं चाहते थे। सामान बाँधा और निकल पड़े। लेकिन हम यह देखकर हैरान रह गये कि उन्होंने खुदाई शुरू कर दी थी। गुस्सा भी आया कि बताने के बावज़ूद भी दस मिनट हमारी प्रतीक्षा नहीं की इन्होंने। लीक बंद हो चुकी थी। लेकिन एक संभावना नज़र आ रही थी। यहाँ पहाड़ ज्यादा विकट नहीं था और सड़क के बराबर में खेत थे। हम खेतों-खेत जा सकते थे।

पुस्तक चर्चा: पाकिस्तान में वक्त से मुलाकात

श्याम विमल द्वारा लिखित यह पुस्तक उनका एक यात्रा-संस्मरण है। लेखक का जन्म 1931 में मुलतान के शुजाबाद कस्बे में हुआ था। जब ये 16 बरस के थे, तब देश का बँटवारा हो गया और इन्हें सपरिवार अपनी जन्मभूमि छोड़कर भारत आना पड़ा। 75 साल की उम्र में ये अपनी जन्मभूमि देखने पाकिस्तान गये - 2005 में और अगले ही साल पुनः 2006 में। वहाँ जो इन्होंने देखा, महसूस किया; सब पुस्तक में लिख दिया। अपने बचपन को जीते रहे। एक-एक स्थान की, एक-एक गली की, एक-एक पडोसी की, एक-एक नाम की इन्हें याद थी और खुलकर सबके बारे में लिखा। और कमाल की बात यह थी कि इनके पुश्तैनी घर में अब मुहाज़िर लोग रह रहे थे। यानी भारत छोड़कर गये हुए मुसलमान। अधिकांश भिवानी व हाँसी के आसपास के मुसलमान। “ पूछने पर बताया गया कि जब वे मुहाजिर होकर इस घर में रहने आये थे तो यह घर लुटा-पिटा उन्हें मिला था। चौखटों के कपाट भी उखाड़ लिये गये थे। शायद वे स्थानीय या आसपास के गाँवों के मुसलमान रहे होंगे, जो बलवे के दिनों में लूटपाट करने आये होंगे। मुझे स्मरण है कि हम तो इस घर को भरा-पूरा छोड़ आये थे। इसी घर में बड़े भाई की शादी में मिले दहेज का सामान भी रखा गय

पंचचूली बेस कैंप ट्रैक

11 जून 2017 आप कभी कुमाऊँ गये होंगे मतलब नैनीताल, रानीखेत, मुक्तेश्वर, कौसानी, चौकोड़ी, मुन्स्यारी... तो आपने हिमालय की बर्फीली चोटियों के भी दर्शन किये होंगे। आपको इन चोटियों के नाम तो नहीं पता होंगे, तो इनके नाम जानने की उत्सुकता भी ज़रूर रही होगी। आप किसी स्थानीय से इनके नाम पूछते होंगे तो मुझे यकीन है कि वो नंदादेवी से भी पहले आपको पंचचूली चोटियों के बारे में बताता होगा - “वे पाँच चोटियाँ, जो एकदम पास-पास हैं, पंचचूली हैं।” आप इनके फोटो खींचते होंगे और सोने से पहले भूल भी जाते होंगे। लेकिन अब नहीं भूलेंगे। क्योंकि आप पढ़ रहे हैं इन्हीं पंचचूली के बेस कैंप जाने का यात्रा-वृत्तांत सचित्र। जहाँ से भी आपने पंचचूली देखी हैं, कल्पना कीजिये आप वहीं खड़े हैं और इन चोटियों को निहार रहे हैं। उधर त्रिशूल है, फिर नंदादेवी है और इनके दाहिने पंचचूली की पाँच चोटियाँ हैं। कर ली कल्पना? तो अब आपको बता दूँ कि हम पंचचूली के भी उस पार खड़े हैं। आपको बताया जाता होगा कि हिमालय के पार तिब्बत है, लेकिन ऐसा नहीं है। हिमालय के पार भी बड़ी दूर तक भारतीय इलाका है। हम भी उसी इलाके में खड़े हैं। आपके और हमारे बीच में