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मणिमहेश ट्रैक पर क्या हुआ था?


यह एक दुखांत यात्रा रही और इसने मुझे इतना विचलित किया है कि मैं अपना सामाजिक दायरा समेटने के बारे में विचार करने लगा हूँ। कई बार मन में आता कि इस यात्रा के बारे में बिलकुल भी नहीं लिखूँगा, लेकिन फिर मन बदल जाता - अपने शुभचिंतकों और भावी यात्रियों के लिये अपने इस अनुभव को लिखना चाहिये।



यात्रा का आरंभ
हमेशा की तरह इस यात्रा का आरंभ भी फेसबुक से हुआ। मैं अपनी प्रत्येक यात्रा-योजना को फेसबुक पर अपडेट कर दिया करता था। इस यात्रा को भी फेसबुक इवेंट बनाकर 24 जुलाई को अपडेट कर दिया। इसमें हमें 4800 मीटर ऊँचा जोतनू दर्रा पार करना था। हिमालय में इतनी ऊँचाई के सभी दर्रे खतरनाक होते हैं, इसलिये इस दर्रे का अनुभव न होने के बावज़ूद भी मुझे अंदाज़ा था कि इसे पार करना आसान नहीं होगा। लेकिन चूँकि यह मणिमहेश परिक्रमा मार्ग पर स्थित था और आजकल मणिमहेश की सालाना यात्रा आरंभ हो चुकी थी, तो उम्मीद थी कि आते-जाते यात्री भी मिलेंगे और रास्ते में खाने-रुकने के लिये दुकानें भी। दुकान मिलने का पक्का भरोसा नहीं था, इसलिये अपने साथ टैंट और स्लीपिंग बैग भी ले जाने का निश्चय कर लिया। यही सब फेसबुक पर भी अपडेट कर दिया। साथ ही यह भी लिख दिया कि जिसने पहले कभी ट्रैकिंग नहीं की है, वह इस यात्रा पर न चले।

दो व्यक्तियों ने साथ चलने के लिये संपर्क किया - दिल्ली में बी-टेक कर रहे 19 वर्षीय मनीष पाल और पटना के रहने वाले 31 वर्षीय राहुल कुमार। मनीष ने बताया कि वह पहले खीरगंगा और त्रिउंड जा चुका है और राहुल ने बताया कि वह यमुनोत्री और गंगोत्री-गौमुख जा चुका है। त्रिउंड 3000 मीटर पर है और गौमुख 3900 मीटर पर। दोनों के पास इनके अलावा कुछ भी ट्रैकिंग अनुभव नहीं था, तो मैंने उनसे इस ट्रैक पर चलने के लिये पुनर्विचार करने को कहा। दोनों ने उत्तर दिया कि वे इसे कर लेंगे। फिर मैं कौन होता हूँ किसी को कहीं जाने से रोकने के लिये? दोनों अपने-अपने समयानुसार हमारे यहाँ आये और टैंट, स्लीपिंग बैग, मैट्रेस और ट्रैकिंग पोल ले गये।
16 अगस्त 2016 की शाम सात बजे मैंने निशा और छोटे भाई धीरज के साथ हिमाचल परिवहन की चंबा जाने वाली टाटा एसी बस पकड़ ली, जबकि राहुल व मनीष ने उत्तर संपर्क क्रांति। वे दोनों पठानकोट उतरे और फिर बस से चंबा गये। चलने से पहले मैंने फेसबुक पर लिख दिया - “धीरज का यह पहला ट्रैक है, लेकिन चूँकि वह एक एथलीट है तो मुझे लगता है कि वह इस यात्रा को सफलतापूर्वक पूरा कर लेगा। मनीष के बारे में पता नहीं क्यों मुझे लग रहा है कि वह इस यात्रा को पूरा नहीं कर सकेगा। और राहुल का तो पक्का विश्वास है कि उसे बीच से लौटना पड़ सकता है।” यह चलने से पहले का एक पूर्वाग्रह था। आप भी अगर नियमित ट्रैकिंग करते हैं, तो इस तरह किसी नये साथी को देखने मात्र से काफी अंदाज़ा लगा लेते होंगे। यह अंदाज़ा अक्सर गलत होता है, लेकिन कभी-कभी ठीक भी निकल जाता है। लेकिन सामने वाला अगर आत्मविश्वास से कह रहा है, तो आप उसे जाने से कैसे मना कर सकते हैं?
17 अगस्त की दोपहर 11 बजे हम सभी चंबा बस अड्डे पर मिले। तुरंत भरमौर जाने वाली एक बस पकड़ी और दो बजे तक भरमौर पहुँच गये। हड़सर जाने वाली एक शेयर्ड़ जीप से हड़सर पहुँच गये और इसी जीप को आगे कुगती तक के लिये बुक कर लिया। कुगती से तकरीबन एक किलोमीटर पहले तक गाड़ियाँ जा सकती हैं। जीप ने हमें वहाँ उतार दिया। यहीं एक दुकान भी थी। अंड़े देखकर मेरा जी ललचा गया। मैंने मनीष से पूछा तो उसने बताया कि वह अंड़े खा लेता है। राहुल ने बताया कि वह अंड़े नहीं खाता है, लेकिन अगर हम उसके सामने बैठकर खायेंगे, तो उसे कोई ऐतराज नहीं होगा।
कुगती में प्रवेश करते ही एक सरकारी रेस्ट हाउस है। हमारी यहाँ अग्रिम बुकिंग नहीं थी, तो केयर-टेकर हिचक रहा था। उसने सलाह दी कि आप एक बार गाँव में जाकर कोशिश कर लो; अगर कोई इंतज़ाम नहीं हुआ, तो यहाँ आ जाना। कुगती में कोई होटल नहीं है। एक दुकान वाले से ठहरने के बारे में पूछा तो उसने हमें अपने ही घर में ठहरा दिया। छोटे-छोटे दो कमरे दे दिये, जो उनकी रोजमर्रा की चीजों से भरे पड़े थे।
मैंने राहुल और मनीष दोनों से पूछा कि उन्हें खाने में क्या चीज नापसंद है। इस बारे में पहले ही पता होगा तो हम आगे उस चीज का ऑर्डर नहीं देंगे। मनीष तुरंत बोला - ‘मैं रोटी-पोटी सब खा लेता हूँ। मुझे कुछ भी नापसंद नहीं है।’ मैंने आश्चर्य से पूछा - “रोटी भी और पोटी भी!’ सब खूब हँसे। लेकिन उसकी यह पोल थोड़ी ही देर में खुल गई, जब राजमा सामने देखकर उसने कहा - ‘मुझे राजमा पसंद नहीं है।’ उस रात वह भूखा ही रहा। घरवालों ने पहले ही बता दिया था कि वे राजमा बनायेंगे। अगर मनीष समय रहते बता देता, तो हम आलू बनवा लेते और उसे भूखा न रहना पड़ता। तब मैंने जोर देकर कहा कि हमें न भूखा रहना है और न ही खाने के बारे में किसी तरह का संकोच करना है।

कुगती गाँव के रास्ते में - बायें राहुल, दाहिने मनीष

कुगती गाँव

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नक्शे पर क्लिक कीजिये। यह अलग ‘टैब’ में खुलेगा और काफी बड़ा भी होगा। इसके बाद आगे की घटना पढ़ेंगे, तो ज्यादा अच्छी तरह समझ में आयेगी।

18 अगस्त 2016
घरवालों ने स्पष्ट कर दिया कि आज हम हनुमान शिला पहुँच जायेंगे, जहाँ एक दुकान है और हमें रात का खाना आसानी से मिल जायेगा। कुगती और हनुमान शिला के बीच में कोई दुकान नहीं है, इसलिये लंच के लिये हमने यहीं से आलू के पराँठे पैक करवा लिये। आठ बजे के आसपास यहाँ से चल दिये। कुगती लगभग 2600 मीटर की ऊँचाई पर है।
शुरू में जंगल है। चढ़ाई भी अच्छी-खासी है। राहुल और मनीष चढ़ाई पर संघर्ष करते दिखे तो उन्हें कुछ तकनीक बतायी - बहुत धीरे-धीरे चलो, साँस चढ़ जाये तो बैठो मत, ट्रैकिंग स्टिक के सहारे खड़े होकर अपनी साँस सामान्य करो, अपने कदमों के साथ साँसों का तालमेल बनाओ, केवल नाक से साँस लो। इन बातों का दोनों ने पालन किया और स्पष्ट असर भी दिखायी दिया।
3000 मीटर के बाद जंगल खत्म हो गया। लंबी-लंबी घास आने लगी और चढ़ाई भी खत्म हो गयी। कुछ दूर तक समतल रास्ता रहा, फिर थोड़ा-सा ढलान आ गया। ढलान खत्म होते ही लोहे का एक छोटा-सा पुल आया। अब तक हमें भूख लगने लगी थी। यहीं पुल के पास बैठकर एक-एक पराँठे खाये। कुछ पराँठे बचाकर रख लिये। गाँव वालों ने कहा ज़रूर है कि आगे एक दुकान मिलेगी। लेकिन अगर दुकान न मिली तो? एक संभावना यह भी हो सकती है। तब हम बाकी पराँठे खा लेंगे।
आगे चले तो एक गद्दी मिला। उससे हनुमान शिला के बारे में पूछा तो बताया कि दो-तीन घंटे और लगेंगे। वहाँ दुकान होने की पुष्टि इस गद्दी ने भी की।
शाम चार बजे तक 3400 मीटर की ऊँचाई तक आ चुके थे। कुगती से हम 800 मीटर ऊपर आ गये थे। इस बात का असर हम सभी पर पड़ रहा था। चलने का बिलकुल भी मन नहीं था, लेकिन हनुमान शिला की दुकान के लालच में चलते रहे। हर मोड़ पर लगता कि अब दुकान दिखेगी, अब दिखेगी। लेकिन हर बार निराशा हाथ लगती। सामने बादल उठते दिखते, तो लगता कि दुकान के चूल्हे का धुआँ है। आख़िरकार छह बजे जब हम 3600 मीटर तक पहुँच चुके, तो मैंने घुटने टेक दिये। हम 1000 मीटर ऊपर आ चुके थे और मेरी एक दिन की सीमा 1000 मीटर चढ़ने की ही है। हालाँकि अगर सामने दूर भी कहीं दुकान दिख जाती तो मैं और ज्यादा चढ़ सकता था। इस समय मुझसे भी ख़राब हालत मनीष और राहुल की थी। दोनों खुद को किसी तरह बस धकेल रहे थे। जैसे ही उन्हें पता चला कि हम यहाँ रुक रहे हैं, तो वे बड़े खुश हुए। यहीं घास में समतल जगह देखकर तीन टैंट लगा लिये। मनीष और राहुल को टैंट लगाना नहीं आता था, आज उन्होंने भी टैंट लगाना सीख लिया।





19 अगस्त 2016
सुबह सात बजकर बीस मिनट पर सबकुछ समेटकर हम आगे चल दिये। रात 3600 मीटर की ऊँचाई पर रुकने के कारण सभी के शरीर इसी ऊँचाई के अनुकूल हो गये। कल जब हम यहाँ आये थे, तो सभी पूरी तरह ‘खत्म’ थे। जबकि अब सब के सब तरोताजा। जब सभी थोड़ा आगे निकल चुके, तब मैंने यहाँ से बैग उठाया। देखा कि पानी की एक बोतल पड़ी हुई है। शायद किसी की छूट गई हो, मैंने इसे उठा लिया। आगे जब सब मिले, तो मैंने इस बोतल के बारे में पूछा। राहुल की बोतल थी और वह इसमें पानी लेकर टट्टी करने गया था। इसलिये उसने बोतल छोड़ दी। मैंने समझाया - कल सभी को टॉफी के रैपर फेंकने के बारे में सख्त मना किया था। यह इतनी बड़ी बोतल भी नहीं फेंकनी चाहिये थी। इसे अपने पास रखिये। आगे कहीं कूड़ेदार मिलेगा, उसमें डाल देना। राहुल ने कुछ दूर तक तो वह बोतल अपने हाथ में लिये रखी, फिर बैग में रख ली।
डेढ़ घंटे चलने के बाद हमें हनुमान शिला की दुकानें दिखीं। हम बिना कुछ खाये चले थे और इतने तरोताजा थे कि इन डेढ़ घंटों में ही 300 मीटर से ज्यादा ऊपर आ गये। निशा ने कहा कि अगर हम कल ही मेहनत कर लेते तो डेढ़ घंटे चलने के बाद यहाँ आ जाते। मैंने कहा - कल हम यहाँ डेढ़ घंटे में नहीं आ सकते थे। जिस समय कल हम रुके थे, उस समय हम सभी ‘एग्जहोस्टेड़’ हो चुके थे। एक कदम भी चलने की ताकत नहीं बची थी। कम से कम तीन घंटे लगते। जबकि आज तो सभी तरोताजा हैं।

हनुमान शिला की दुकानें

यहाँ कांगड़ा के चार लोग और थे, जो परिक्रमा पर जा रहे थे। इन्होंने बताया कि इनके कुछ मित्र आज सुबह निकले हैं और ये लोग कल निकलेंगे। अक्सर हनुमान शिला पर सभी लोग रात रुकते हैं और सुबह सवेरे आगे के लिये चलते हैं, ताकि शाम तक मणिमहेश - कैलाश कुंड - पहुँच जाएँ। लेकिन हमारे पास टैंट और स्लीपिंग बैग थे, इसलिये हमारे सामने अंधेरा होने से पहले तक मणिमहेश पहुँचने की बाध्यता नहीं थी। दुकान वाले ने भी हमारा उत्साहवर्धन किया कि आपके पास तो टैंट है, पाँच-छह घंटे में जोत पर पहुँच जाओगे और फिर तो नीचे ही उतरना है।
यहाँ पहले चाय पी, फिर आलू के ताज़े पराँठे खाये और फिर चाय पी। रास्ते के लिये सभी ने कोल्ड़ ड्रिंक की दो-दो बोतलें और बिस्कुट के पैकेट रख लिये। मनीष बिस्कुट नहीं खाता, उसने नमकीन के पैकेट रखे। सभी के पास थोड़े-थोड़े ड्राई-फ्रूट तो थे ही। साढ़े दस बजे यहाँ से चल दिये।
जोतनू और चौबू को अक्सर एक ही दर्रा माना जाता है। बहुत सारे यात्रा-वृत्तांतों में और किताबों में जोतनू को चौबू लिखा हुआ है। इस बारे में तरुण गोयल ने बताया था कि दोनों अलग-अलग दर्रे हैं। मैंने यहाँ दुकान वाले से इस बारे में बात की तो उसने दुकान से बाहर आकर बताया - ‘वो उधर जोतनू है। थोड़ा बायें उधर चौबू है, जहाँ से होली जा सकते हैं। और उधर पीछे मकोड़ा जोत है, जहाँ से बड़ा भंगाल जाया जाता है।’ इसे यूँ समझिये कि हनुमान शिला, मणिमहेश और होली एक त्रिभुज के तीन कोने हैं। हनुमान शिला और मणिमहेश के बीच में जोतनू जोत है। हनुमान शिला और होली के बीच में चौबू जोत है। और मणिमहेश व होली के बीच में सुखडली जोत है। हमारी आरंभिक योजना हनुमान शिला - जोतनू - मणिमहेश - सुखडली - होली ट्रैक पर चलने की थी। होली के बाद फिर हमें जालसू जोत पार करके सीधे बैजनाथ जाना था। अर्थात इस यात्रा में हमें तीन दर्रों को पार करना था।
तो साढ़े दस बजे यहाँ से चल दिये। खड़ी चढ़ाई है, लेकिन पगडंडी बनी है। यह पगडंडी ‘ज़िग-ज़ैग’ तरीके से ऊपर जाती हुई हनुमान शिला से भी दिखाई देती है। तीन घंटे में अर्थात डेढ़ बजे तक हम 4400 मीटर की ऊँचाई तक पहुँच गये। अब मुझे भूख लगने लगी। बाकियों को भूख नहीं लग रही थी, लेकिन मुझे बिस्कुट खाते व कोल्ड़ ड्रिंक पीते देख बाकियों का भी मन डोल गया। जैसे ही यहाँ से चलने को हुए, बारिश पड़ने लगी। हम तीनों ने रेनकोट पहन लिये और मनीष व राहुल ने छतरियाँ तान लीं। आधे घंटे तक अच्छी-खासी बारिश हुई, सभी यहीं बैठे रहे। बारिश रुकने पर फिर चल दिये।
अब भूदृश्य में एक और परिवर्तन हो गया। घास खत्म हो गयी और पत्थर शुरू हो गये। जब हम हनुमान शिला पर होते हैं, तो नीचे से देखने पर 4400 मीटर का यह स्थान एक दर्रे जैसा ही दिखता है। जोतनू भले ही 4800 मीटर की ऊँचाई पर हो, लेकिन हनुमान शिला से नहीं दिखायी देता। तो जब नये ट्रैकर इस 4400 मीटर को जोतनू समझकर यहाँ तक आ जाते हैं, तो यही सोचते हैं कि जोतनू पार हो गया, अब उतराई मिलेगी। लेकिन उतराई तो मिलती नहीं, बल्कि विशालकाय और डरावना जोतनू सामने आ जाता है। अब पगडंडी भी नहीं है और आपको केवल अंदाज़े से आगे बढ़ना होता है। जगह-जगह एक के ऊपर एक रखे पत्थर रास्ता ढूंढने में सहायता करते हैं, लेकिन एक सीमा के बाद ये भी नहीं मिलते।
हमें हनुमान मंदिर पर ही बता दिया गया था कि जोतनू पर ही एक बहुत बड़ा गोल पत्थर इस तरह रखा हुआ है कि लगता है कि लुढ़कने ही वाला है। उस पत्थर को धाम-घोड़ी भी कहते हैं। और इसी वजह से जोतनू जोत को धाम-घोड़ी जोत भी कह दिया जाता है। जब आप जोतनू के नीचे होते हैं, तो यह बड़ा पत्थर ही इस जोत की पहचान करने में सहायक होता है। वैसे जोत पर झंड़ियाँ भी लगीं हैं, धाम-घोड़ी के नज़दीक भी झंड़ियाँ हैं, लेकिन धाम-घोड़ी से बायें करीब 200 मीटर के दायरे में दो स्थानों पर भी झंड़ियाँ हैं। लेकिन हमें सबसे बायीं वाली या मध्य वाली झंड़ियों की तरफ नहीं चढ़ना होता, बल्कि सबसे दाहिनी यानी बड़े पत्थर के नज़दीक वाली झंड़ी तक चढ़ना होता है।
तो 4400 मीटर के बाद पगडंडी भी खत्म हो जाती है और हमें पत्थरों पर चलना होता है। हमारे दाहिनी तरफ कैलाश चोटी है तो बायीं तरफ एक ‘रिज’ है। सामने जोतनू तो है ही। यानी हमारे आसपास कहीं भी खाई नहीं है। गिरने का कोई डर नहीं होता। अगर आप लापरवाही-वश चलते-चलते गिर भी पड़ें, तो उठकर फिर से चल देना होता है।
रात हम 3600 मीटर पर रुके थे। यानी अब तक करीब 800 मीटर ऊपर आ चुके थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि फिर से हम सभी ‘एग्जहोस्टेड़’ होने लगे थे। लेकिन सामने जोतनू दिख रहा था। उसके बाद ढलान ही ढलान है, इसलिये यही बात हमें आगे बढ़ने की हिम्मत दे रही थी। 4400 मीटर से 4550 मीटर तक की दूरी करीब 2 किलोमीटर है। यानी लगभग समतल-सा ही रास्ता है। इसलिये इसे पार करने में उतनी परेशानी नहीं हुई। लेकिन जब बरफ़ का एक छोटा-सा टुकड़ा पार करके जोतनू की ‘फाइनल’ चढ़ाई शुरू हुई, तो यह किसी दीवार पर सीधा चढ़ने जैसा था। स्लेटी पत्थरों की भरमार है। इनके छोटे-छोटे टुकड़े ही थे। इन पर पैर रखते और ये नीचे खिसक जाते। इस पर हम थोड़ा ही चले थे कि राहुल ने कहा कि वह और आगे नहीं बढ़ सकता। मैंने वजह पूछी तो बताया - ‘मुझसे नहीं हो सकेगा। यह बहुत खतरनाक है और मैं चढ़ भी नहीं पा रहा हूँ।’
मैं - ‘देख लो। चढ़ना तो पड़ेगा ही।’
राहुल - ‘नहीं, मैं वापस कुगती चला जाऊँगा।’
मैं - ‘इतना आ गये। अब केवल 250-300 मीटर की ही चढ़ाई और बची है। कर लो हिम्मत। बहुत धीरे-धीरे चलना। इसके बाद तो ढलान ही है। ऊपर जोत पर चढ़कर मणिमहेश भी दिख जायेगा। यहाँ से वापस नीचे जाओगे, तो क्यों न 300 मीटर चढ़कर तब नीचे जाना?’
राहुल - ‘नहीं होगा मुझसे। यह बहुत कठिन है। आप लोग जाओ। मैं कुगती जा रहा हूँ।’
मुझे एवरेस्ट बेस कैंप ट्रैक की ऐसी ही घटना याद आ गयी, जब कोठारी जी भी यही सब कहते हुए वापस मुड़े थे। मैंने कोठारी जी को रोकने की खूब कोशिश की थी - ‘आप थके हुए हो। हम जो भी पहला होटल मिलेगा, उसी में रुकेंगे। एक दिन, दो दिन। आराम मिलेगा, तो आगे चल पड़ेंगे। आप बहुत धीरे-धीरे चलना। हम गोक्यो नहीं जायेंगे। आप एक बार हिम्मत तो करो।’ लेकिन कोठारी जी आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं कर सके। उन्हें अकेले वापस लौटना पड़ा। मैं नहीं चाहता था कि कोठारी जी इस तरह वापस लौटें।
यही आज हो रहा था। केवल 300 मीटर ही बाकी था। लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि हम 4500 मीटर की ऊँचाई पर थे। आप में से ज्यादातर लोग इतनी ऊँचाई तक कभी नहीं गये होंगे। वैष्णों देवी, अमरनाथ, उत्तराखंड़ के चारों धाम, रोहतांग भी इतनी ऊँचाई पर नहीं हैं। 4500 मीटर बहुत होती है - बहुत ज्यादा। ऐसे में राहुल पर ज़बरदस्ती आगे बढ़ने का दबाव डालना बहुत गलत होता। अगर वह कल यहाँ आने के बारे में कहता तो हम सब उसके साथ होते। नीचे जहाँ बरफ थी, वहाँ टैंट लगा लेते। लेकिन जब उसने पूरे विश्वास से कहा कि वह कुगती लौट जायेगा, तो मैं क्यों मना करता? कुगती से यहाँ तक का रास्ता कठिन नहीं था। पगडंडी बनी थी। इस बात को मैं भी जानता था और राहुल भी। तय हुआ कि आज वह हनुमान शिला पर उसी दुकान में रुकेगा और कल कुगती चला जायेगा। इसके अलावा अगर उसका मन टैंट लगाने का करेगा; तो उसके पास टैंट, स्लीपिंग बैग और मैट्रेस थे ही। साथ ही कोल्ड ड्रिंक की एक बोतल, बिस्कुट के पैकेट और ड्राई-फ्रूट भी। वह ज्यादातर अकेला ही यात्रा किया करता था, इसलिये उसने बताया कि अकेला होने के बावज़ूद भी उसे कोई दिक्कत नहीं होगी।
सब तरह से संतुष्ट होने के बाद हमने उसे अलविदा कह दिया। अगर आज वह जीवित होता, तो हमारा और उसका यही निर्णय इस ट्रैक का सर्वोत्तम निर्णय होता।
उसकी जानकारी में हम मणिमहेश जायेंगे, फिर होली जायेंगे और फिर बैजनाथ। यानी उसे हम हड़सर या भरमौर या चंबा में कहीं नहीं मिलने वाले थे। 25 को हमें दिल्ली पहुँचना था और 26 को उसका दिल्ली से पटना की ट्रेन में आरक्षण था। तो वह हमें 25 या 26 तारीख़ को दिल्ली में मिलेगा।
कुछ दूर तक मैंने उसे जाते देखा। बरफ़ का वो टुकड़ा भी उसने पार कर लिया था। फिर हम जोतनू की इस खतरनाक चढ़ाई को पार करने में लग गये। हमने सोचा था कि दो घंटे में यानी छह बजे तक ऊपर चढ़ जायेंगे। फिर उस तरफ उतराई में हमें सात बजे तक ही उजाला मिलेगा। या तो टैंट लगा लेंगे या फिर अंधेरे में टॉर्च की रोशनी में चलते जायेंगे। रात नौ बजे तक या दस बजे तक भी अगर गौरीकुंड़ पहुँचेंगे, तब भी दिक्कत की कोई बात नहीं। वहाँ लोगों का खूब आना-जाना लगा मिलेगा और दुकानें भी।
लेकिन जोतनू की यह आख़िरी चढ़ाई बहुत मुश्किल थी। हमें तीन घंटे लग गये। सात बजे जब हम जोतनू पहुँचे और दूसरी तरफ देखा तो होश उड़ गये। जितनी खतरनाक और खड़ी चढ़ाई अभी हमने चढ़ी, उससे भी ज्यादा खतरनाक ढलान अब सामने था। दूसरी बात कि इस ढलान के बाद बहुत बड़ा ग्लेशियर था। इसका नाम कुज़ा ग्लेशियर है। अगर हम अभी नीचे उतरने की कोशिश करते हैं तो ग्लेशियर तक पहुँचने में कम से कम एक घंटा लगना ही है, यानी अंधेरा हो जाना है। अंधेरे में न हम ग्लेशियर पर चल सकते थे और न टैंट लगा सकते थे। आज ही नीचे उतरने का इरादा त्याग दिया। इधर जोतनू पर समतल स्थान बिल्कुल नहीं है। आख़िरकार बीस मीटर बायें जाकर एक ऐसा स्थान मिला, जहाँ पत्थर आदि एडजस्ट करके टैंट लगाया जा सकता था। एक बार तो मन में आया कि एक ही टैंट लगाते हैं और चारों उसमें बैठ जायेंगे। लेकिन पूरी रात हमारे सामने थी। बैठे-बैठे नहीं कट सकती। किसी तरह दूसरे टैंट की भी जगह बनायी।
उधर राहुल हनुमान शिला पर कंबलों में सो रहा होगा।


जिस स्थान पर खड़े होकर मैंने यह फोटो लिया है, उसकी ऊँचाई लगभग 4550 मीटर है। मेरे पीछे जोतनू जोत है और सामने से मनीष और राहुल धीरे-धीरे मेरी तरफ यानी ऊपर की तरफ आ रहे हैं। उनके आने तक मैं यहीं खड़ा रहा। मनीष आगे निकल गया और राहुल मेरे पास खड़ा हो गया। थोड़ी देर चुप खड़े रहकर साँस सामान्य की और तब उसने अपने वापस कुगती जाने का निर्णय सुनाया।


20 अगस्त 2016
कल बहुत थक गये थे, इसलिये देर से आँख खुली। मौसम साफ था और हमारे बगल में कैलाश पर्वत बहुत शानदार लग रहा था। दस बजे सबकुछ समेटकर यहाँ से चल दिये। लेकिन नीचे उतरने का रास्ता बहुत खतरनाक था। सबसे आगे धीरज था और फिर निशा, फिर मैं और सबसे पीछे मनीष। लेकिन यहाँ मैंने मनीष को आगे कर दिया, ताकि वह हमें तेज उतरते देख किसी तरह की जल्दबाजी न करे। लेकिन जब देखा कि नीचे उतरते समय उसके पैर बुरी तरह काँप रहे हैं, तो उसे आदेश दिया - ‘अपना बैग उतारकर यहीं रख दे और खाली हाथ बहुत धीरे-धीरे उतर।’ उसने ऐसा ही किया। इसके बावज़ूद भी वह गिरने से कई बार बाल-बाल बचा। पीछे-पीछे मैं एक हाथ में उसका बैग उठाकर लाया। जब रास्ता ठीक हुआ, तब उसे बैग वापस किया।
नीचे उतरने के बाद कुज़ा ग्लेशियर आरंभ हो जाता है। यह काफी बड़ा ग्लेशियर है और इसका काफी हिस्सा पत्थरों से ढका हुआ है। ऐसे ही एक पत्थर पर जब मैंने पैर रखा, तो वह ठोस बर्फ पर फिसल गया और मैं धड़ाम से गिर पड़ा। ऐसा दो बार हुआ। नतीज़ा मेरे दाहिने पैर में ऐड़ी के पास दर्द होने लगा और गौरीकुंड़ पहुँचने तक तो यह सूज भी गया था। कुज़ा ग्लेशियर के बाद घास के मैदान हैं, जहाँ गद्दियों की भेड़ें चलती दिखती हैं। यहीं थोड़ा हटकर कमल कुंड़ भी है।
जब सवा तीन बजे हम गौरीकुंड़ पहुँचे तो चोटिल पैर की वजह से मेरी आज ही कैलाश कुंड़ जाने की हिम्मत नहीं हो सकी। उधर मनीष भी बेहद थका हुआ था और जोतनू की खतरनाक उतराई ने उसे डरा भी दिया था। सबने एक सुर में कहा - हम होली और बैजनाथ नहीं जायेंगे।
उधर राहुल आज कुगती पहुँच चुका होगा। कल वह कोई गाड़ी पकड़ लेगा और जहाँ उसका मन करेगा, चला जायेगा। खतरा जोतनू पर था। हम अब खतरे से बाहर निकल चुके थे और राहुल तो कल ही खतरा आरंभ होने से पहले वापस चला गया था।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बाद में जब खोजबीन की गयी तो पता चला कि राहुल हनुमान शिला तक नहीं पहुँचा था। ज़ाहिर है कि उसने टैंट लगाया होगा। हनुमान शिला लगभग 3900 मीटर पर है और वह लगभग 4550 मीटर से वापस मुड़ा था। तो मान लेते हैं कि उसने दोनों के बीच में यानी 4200 मीटर की ऊँचाई पर टैंट लगाया होगा। अगले दिन जब वह सोकर उठा होगा, तो एकदम तरोताज़ा होगा। कल वह 4500 मीटर से ऊपर नहीं चढ़ पाया, लेकिन अब उसका शरीर 4200 मीटर के अनुकूल हो चुका होगा और वह 5000 मीटर तक भी चढ़ जाने के लिये तैयार हो गया होगा। यही सोचकर उसने फिर से जोतनू चढ़ने का निर्णय लिया होगा - अकेले। और उसका यही निर्णय प्राणघातक सिद्ध हुआ।
उसका शव कुज़ा ग्लेशियर पर धाम-घोड़ी से काफी हटकर मिला। यानी वह जोतनू पर चढ़ चुका था। मैंने अभी बताया था कि कल जब हम 4500 मीटर पर थे और हमारे सामने जोतनू था, तो वहाँ लगभग 200 मीटर के दायरे में तीन स्थानों पर झंड़ियाँ लगी थीं। नीचे उतरने का सुविधाजनक रास्ता सबसे दाहिनी झंड़ी के पास से था। लेकिन राहुल का शव सबसे बायीं झंड़ी के नीचे ग्लेशियर पर मिला। ज़ाहिर है कि वह सबसे बायीं झंड़ी को जोतनू समझकर ऊपर चढ़ गया। और वहाँ से नीचे उतरना एकदम असंभव था।
इधर राहुल के साथ हादसा हुआ और उधर गौरीकुंड़ में हम यही सोचते रह गये कि वह कुगती पहुँच गया है।

जोतनू जोत से कैलाश कुंड़ की तरफ का खतरनाक ढाल

जोतनू जोत से कैलाश कुंड़ की तरफ का खतरनाक ढाल। इस खड़े ढलान के बाद कुज़ा ग्लेशियर का विस्तार आरंभ हो जाता है। राहुल का शव इसी ग्लेशियर पर यहाँ से लगभग 200 मीटर दूर मिला। जहाँ हम खड़े हैं, यहाँ से तो नीचे उतरने की संभावना है, लेकिन 200 मीटर दूर नीचे उतरने की कोई संभावना नहीं दिखायी दे रही। ऐसा प्रतीत होता है कि राहुल रास्ता भटककर 200 मीटर दूर चला गया और वहाँ से नीचे उतरते समय असंतुलित हो गया।

हमारे पीछे जो एक बड़ी-सी चट्टान बमुश्किल संतुलन बनाये रखी हुई है, वही ‘धामघोड़ी’ है। वैसे तो इस जोत का नाम जोतनू जोत है, लेकिन इसे धामघोड़ी जोत भी कह दिया जाता है। कुगती की तरफ से जब आते हैं, तो यह चट्टान स्काईलाइन पर बड़ी दूर से ही दिख जाती है, जिससे हमें जोत की पहचान हो जाती है।

कुज़ा ग्लेशियर

नीचे उतरने का रास्ता ग्लेशियर से होकर जाता है।

दूर से दिखता ऊपर कैलाश कुंड़ और नीचे गौरीकुंड़

गौरीकुंड़

21 अगस्त 2016
सुबह पैर में थोड़ा आराम था। यहाँ से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर और 150 मीटर ऊपर कैलाश कुंड़ है। लोगों की भीड़ लगी पड़ी थी। पौन घंटे में हम कैलाश कुंड़ पहुँच गये। यहाँ मनीष ने स्नान किया। स्नान भी कैसे किया - यह देखना भी मज़ेदार था। वह कपड़े उतारकर एक बाल्टी के पास बैठ गया। बगल में खड़े एक आदमी से कह दिया कि चाहे कुछ भी हो जाये, भले ही मैं आपको रोकूँ; लेकिन आपको चार बाल्टी भरकर मेरे ऊपर उड़ेलनी है। उस आदमी ने ऐसा ही किया। तीन बाल्टियाँ उड़ेलने के बाद मनीष जब भागने लगा, तो उसने चौथी बाल्टी भागते के ऊपर ही उड़ेल मारी। मैंने इसका वीड़ियो भी बनाया है, लेकिन मनीष ने उसे सार्वजनिक करने से मना किया है।
खैर, भंड़ारे में खाना खाकर वापसी की राह पकड़ी। साढ़े ग्यारह बजे गौरीकुंड़ से चल दिये। नदी के बायें तरफ़ वाले रास्ते से नीचे उतरे। लेकिन जैसे-जैसे नीचे उतरता गया, एड़ी में झटके लगते गये और धंछो तक पहुँचते-पहुँचते तो फिर से असह्य दर्द होने लगा। साढ़े तीन बजे धंछो पहुँचे। मैं आज यहीं रुकने के बारे में सोचने लगा, लेकिन निशा ने हौंसला बढ़ाया कि किसी तरह आज हड़सर पहुँच जायेंगे तो कल हमें ट्रैकिंग नहीं करनी पड़ेगी। लेकिन धंछो से दो किलोमीटर आगे मैंने घुटने गाड़ दिये। दर्द इतना ज्यादा था कि मैं एक कदम भी आगे चलने में असमर्थ था। इस दौरान मनीष हमसे आगे-आगे चल रहा था। निशा ने उससे कह भी दिया था कि हम धीरे-धीरे आयेंगे, तू अपनी चाल से चल और हड़सर में मिलना। मनीष आगे बढ़ गया और हमें बीच में ही रुकना पड़ गया। बाद में पता चला कि उसने हड़सर में रात दस बजे तक हमारी प्रतीक्षा की थी।
उधर हमारी नज़र में राहुल ने आज कुगती से गाड़ी पकड़ी होगी और कहीं का कहीं पहुँच गया होगा। यहाँ तक कि वह पठानकोट तक भी पहुँच गया होगा। यदि वह मणिमहेश न आता, तो वह फूलों की घाटी जाता। क्या पता आज वो पठानकोट से ऋषिकेश के लिये हेमकुंट एक्सप्रेस पकड़ ले। या वह जम्मू भी जा सकता था। या हो सकता है कि भरमौर में ही हो और आज उसने भरमाणी माता के दर्शन किये हों। कुछ भी हो, लेकिन जहाँ भी होगा, सुरक्षित ही होगा।
लेकिन ऐसा नहीं था। हमें दूर-दूर तक भी एहसास नहीं था कि वह मुसीबत में भी हो सकता है।


हड़सर

22 अगस्त 2016
सुबह सात बजे उठे और साढ़े सात बजे के आसपास चल दिये। पैर में आराम तो था, लेकिन थोड़ा चलने पर फिर से दर्द बढ़ गया। दस बजे तक हड़सर पहुँचे। जाते ही एक शेयर्ड़ टैक्सी से भरमौर पहुँच गये और दो बजे तक चंबा। चंबा जाकर राहुल को फोन किया, जो कि स्विच ऑफ मिला। हमारी नज़र में राहुल अब तक कहीं भी पहुँच सकता था। हो सकता है कि वह कल से लगातार बस और ट्रेन में यात्रा ही कर रहा हो और उसके मोबाइल की बैटरी डाउन हो गयी हो। लेकिन हमारा यह आकलन गलत था। ‘स्विच ऑफ’ का मतलब केवल मोबाइल बंद होना ही नहीं होता, बल्कि और भी बहुत कुछ हो सकता है। वह किसी मुसीबत में भी हो सकता है, यह विचार इस समय तक दिमाग में नहीं आया।
शाम छह बजे दिल्ली वाली वोल्वो पकड़ ली। मनीष पठानकोट तक साधारण बस से गया और उसके बाद ट्रेन से।

23 अगस्त 2016
दिल्ली पहुँचकर जब फिर से राहुल को फोन किया, तो आज भी उसका मोबाइल स्विच ऑफ़ मिला। अब पहली बार एहसास हुआ कि कोई गड़बड़ भी हो सकती है। इस बात की जानकारी उसके घर तक पहुँचानी बेहद ज़रूरी थी। लेकिन उसके फेसबुक एकाउंट पर उसके परिजनों के संबंध में कुछ भी जानकारी नहीं मिल सकी। आख़िरकार मैंने इस संदेह को अपनी फेसबुक वाल पर लिख दिया। थोड़ी ही देर में राहुल के भानजे का मैसेज आया। फोन पर बात हुई और इस तरह उसके घर तक सूचना पहुँचा दी गयी।
फिर तो जो हुआ, आपको पता ही है।
इस पोस्ट का उद्देश्य यही है कि मणिमहेश ट्रैक पर क्या हुआ, इसकी जानकारी जिज्ञासु मित्रों को मिल सके। बाद में इस बारे में बहुत पूछताछ हो चुकी है; ऐसा क्यों हुआ, ऐसा क्यों किया, ऐसा क्यों नहीं किया, ऐसा नहीं करना चाहिये था, ऐसा करना चाहिये था; पिछले एक महीने से लगातार यही सब चल रहा था। इसलिये मैंने इस घटना का यहाँ विश्लेषण नहीं किया है। मिनट-दर-मिनट का सारा घटनाक्रम आपके सामने है, आपको जैसा उचित लगे, निष्कर्ष निकाल लीजिये। लेकिन बाद में हुई एक छोटी-सी घटना का मैं जिक्र अवश्य करना चाहूँगा।

जब हम पुलिस पूछताछ के सिलसिले में 31 अगस्त से 6 सितंबर तक भरमौर में थे, तो हमने थाने के पास ही होशियारपुर वालों के भंड़ारे के पास एक होटल में एक कमरा ले रखा था। इसमें चार बिस्तर थे। दो बिस्तरों पर मैं और मनीष रहते थे और बाकी बिस्तर कभी खाली रहते, तो कभी कोई मुसाफ़िर आ जाता। इसी तरह एक दिन पठानकोट के पास का एक लड़का आ गया। उसने बताया - “हम बारह लोग मणिमहेश यात्रा पर आये थे। आज सुबह सभी ने हड़सर से पैदल यात्रा आरंभ की। बड़ी भयंकर चढ़ाई थी और मैं नहीं चढ़ पाया। आखिरकार धंछो से पहले ही मैं उन सभी को पठानकोट जाने को कहकर वापस मुड़ गया। आज मैं यहाँ भरमौर में हूँ और बाकी ग्यारह लोग ऊपर मणिमहेश पहुँच गये होंगे। ... लेकिन यहाँ बार-बार तो आया नहीं जाता। अब मैं कल सुबह हेलीकॉप्टर से ऊपर जाऊँगा और पैदल नीचे उतरूँगा।”
यह सुनते ही मैंने उसे टोका - “कल तुम हेलीकॉप्टर से ऊपर पहुँचोगे और आपके बाकी साथी नीचे उतरना शुरू कर देंगे। उन्हें नहीं पता होगा कि तुम भी ऊपर ही हो। वे यही सोचेंगे कि तुम पठानकोट पहुँच गये होंगे। अब अगर नीचे उतरते समय तुम्हारे साथ कोई दुर्घटना हो गयी, या तुम नाले में गिर पड़े, या तुम्हें हार्ट अटैक हो गया; तो बेचारे वे ग्यारह लोग बेवजह फँस जायेंगे। वे भरमौर पहुँचकर तुम्हें फोन करेंगे, तुम्हारा फोन स्विच ऑफ मिलेगा। वे सोचेंगे कि तुम पठानकोट चले गये होंगे, या रास्ते में होंगे और किसी वजह से तुम्हारा मोबाइल स्विच ऑफ हो गया है। भाई जी, कल सुबह मत जाओ। जाना ही है तो अपने साथियों को आ जाने दो, उसके बाद उन्हें बताकर जाना। नोरमली होगा कुछ नहीं, लेकिन अगर ‘कुछ’ हो गया, तो उन ग्यारह लोगों पर आफत आ जायेगी।”
खैर, वह नहीं माना और हमारे उठने से पहले ही सुबह-सवेरे हेलीपैड़ की तरफ निकल गया।



Comments

  1. इस पोस्ट से सारी गलतफेमियां दूर हो जाएंगी।

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  2. जीवन और म्ऋत्यु ईश्वर के हाथ में है और दुर्घटना कही भी किसी के साथ भी हो सकती है! ये बातें सभी को समझनी चाहिये और वहीं करना चाहिये जो करने में आनंद आता हो! जय जय!

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  3. इस पोस्ट से सारी स्थिति स्पष्ट हो जाती है। राहुल का दूसरे दिन अकेले जाना घातक सिद्ध हुआ। आपके प्रयास या समर्थन में कोई कमी नही थी।
    नये ट्रेककरों को ऐसी घटनाओं से सीख लेनी चाहिए कि बिना support या बैकअप के इस तरह की यात्रा में जाना खतरनाक है।
    राहुल वापिस आ जाता तो अवश्य जीवित होता,मगर ईश्वर की इच्छा ऐसी ही थी।

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  4. गुरुदेव आप पर यक़ीन था, है और रहेगा। बस जिज्ञासा थी सब जानने की, वो आपने इस ब्लॉग के जरिये दूर कर दी। ये ब्लॉग उन लोगों के लिए सीख है, जो बिना सब जाने पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर अनाप शनाप लिखते हैं। जिससे गलफेहमियां उत्पन्न होती है। जो हुआ उसको रोकना आपके अधिकार क्षेत्र से बाहर था।

    मेरी शुभकामनायें आपके साथ हैं, आप इस बुरे अनुभव से जल्दी उबर जाएँ। साथ ही राहुल के परिवार वालों को ईश्वर इस दुःख को सहने की शक्ति दें।

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  5. चूँकि आपने सब क्लियर कर ही दिया है और ये निश्चित है के अगर राहुल छोड़े गए स्थान से ही नीचे लौट जाता तो ये सब न होता पर नियति को तो ये ही मंजूर था और यही सब स्वीकार करेंगे।

    अब जब राहुल का परिवार भी आपको माफ़ कर चूका है और आपके हम सभी शुभचिंतक आपके साथ हैं तो अब इस अवसाद से बाहर निकलो भाई

    चलो उठो और आगे बढ़ो
    बाकी कहने वालों की चिंता न तो तुमने पहले की और न ही आगे करोगे ये विश्वास है

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  6. नीरज भाई !इस से साफ़ हो गया की तुम्हारी कोई गलती नहीं थी। कठिन ट्रैक पर आप अकेले वापसी करते है तो स्वयं की रिस्क पर करते हैं। ये काम आपको पहले ही कर देना चाहिये था । आप इससे उबर पाएं यही उम्मीद है।

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  7. मुझमें भावुकता न के बराबर है।
    लेकिन अंत में उस अनजान मुसाफ़िर को दी गई सीख,से आँखे नम हो गई।
    जो हुवा बहुत दुःखद था,सोशल मीडिया पर इसका प्रदर्शन करने से कुछ नहीं हो सकता।
    लेकिन सीख जरूर ली जा सकती है।

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  8. Whatever i cud make out from fb account of Rahul is that he was a humble, noble nd a Spiritual Soul. Whereas his co travellers nd trekker's were catering to their mountaineering urges, Rahul was there solely to see The Lord Shiva. Having returned back from de tough Jotnu Pass de previous day he must have been guided by de divine forces to see The Sacred Manimahesh..i.e The Lord Shiva....nd he did see that for sure..bcoz de views of Holy Peak r clear from Tbe Jotnu Pass. To me that was NIRWANA for him...having seen his Lord Shiva in perhaps de most Majestic Form. May his soul rest in peace.

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  9. पहली बात तो यह की जल्दी से जल्दी इस घटना के दुखांत पहलू से निकलिए और यह तभी होगा जब आप किसी नए पर्यटन स्थल घूमने का प्रोग्राम बना कर यात्रा के लिए निकल लीजिएगा नहीं तो यह घटना सोते जागते मन या दिमाग में आती रहेगी। जहां तक सामाजिक दायरा समेटने की बात है। आप अपने रुचि और स्वभाव के कारण ऐसा कर भी नहीं पाइएगा । हाँ एक सुझाव जरूर है की इन खतरनाक पहाड़ों पर जाने की बजाय अपने पसंदीदा क्षेत्र अर्थात रेलवे की यात्रा शुरू करें और लोगो को पहले की तरह रेलवे की अंजान पहलुओं से अवगत कराएं।

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  10. होनी को कोई नहीं टाल सकता... दो यात्रायों में मैंने 15 दिवस आपके साथ बितायें हैं और कह सकता हूँ कि सहयात्रियों का आप एक टीम लीडर की तरह पुरा ध्यान रखते हैं।
    EBC यात्रा से वापसी के पाइंट पर आपने कहा था कि 'अभी अपन 2400 मीटर पर है और 'लुकला' 2840 मीटर है, धीरे-धीरे आराम से जाना... 2.5 - 3 घंटे में पहूंच जाओगे'।

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  11. दूसरी बात यह है की इस विवरण से आप कहीं से भी दोषी नहीं लग रहें है। यह केवल आपसी गलतफहमी (अर्थात आप का यह सोचना कि राहुल वापस चले जाएंगे और राहुल का यह सोचना कि वे भी आप के पीछे पीछे पहुँच जाएंगे ) या मिसकम्यूनिकेशन का घटना लगता है। वैसे भी जो आप को नजदीक से जानने वाले जो लोग हैं वे जानते है कि आप सपने में भी किसी का जानबूझ कर न तो बुरा करेंगे और न ही किसी का बुरा सोचेंगे। फिर भी इस घटना से सबको दुख तो है ही। राहुल कि तरह उनके परिवार भी आप के साथ सज्जनता से पेश आए यह एक बहुत बड़ी बात है ।

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  12. नीरज जी आप सभी यात्री , घुमक्कड़ हैं जबकि राहुल एक धार्मिक तीर्थयात्रा कर रहा था। वह भक्ति भाव से औत-प्रोत व्यक्ति था। यह जनून कैसे उसको अधूरी यात्रा से वापस लौटने देता। राहुल एक गुमनाम मुसाफिर अपने को मानता था., मेरे विचार से उसके प्रभु ने उसे अपने स्थान पर रोक लिया। आप उसको वहां तक लेजाने का साधन बने। http://gumnaammusafir1.blogspot.in/ इस ब्लॉग को पढ़ें एक भक्तिमय जीवन दिखेगा।

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  13. मैं तो यह पहले से ही मान रही थी कि नीरज अपने वश किसी को मुसीबत में डाल ही नहीं सकते .राहुल के साथ जो हुआ वह बेहद दुखद है पर ऐसे साहसिक अभियान में तो किसी के साथ भी ऐसा हो सकता था अगर जरा भी चूक हो . इसे दुर्योग कहें ,होनी कहें या राहुल की थोड़ी सी लापरवाही , बहुत बुरा हुआ . नीरज आप खुद को सम्हालें और अपना ध्यान रखें .

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  14. जो होनी थी , वो होकर रही । आपकी इस यात्रा को लेकर बहुत बवाल भी हुआ । पर लोग सिर्फ अपने घरों में बैठे अनुमान लगा रहे थे । आपकी जगह अन्य कोई और भी होता तो इसी तरह सोचता । जब सब ठीक हो तो हमारी बड़ी से बड़ी गलतियां भी माफ़ होती है , लेकिन अगर कुछ गड़बड़ हो जाये तो हमारी छोटी से छोटी गलती भी बड़ी बना दी जाती है । खैर आपकी इस पोस्ट से सारा घटनाक्रम तो स्पष्ट तो हुआ ही साथ नए ट्रेकरों को बहुत कुछ सीखने मिला होगा । जीवन के कुछ अनुभव कडुवाहट दे जाते है , मगर उनकी वजह से आगे के जीवन के पलों को जीना नही छोड़ना चाहिए ।

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  15. अच्‍छा कि‍या, सबसे बांटा.
    जो हुआ दुखद था. कई बार बहुत सी बातें कि‍सी के बस में नहीं होतीं. शायद इसे ही होनी कहते हैं...

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  16. इस दुखद यात्रा के विवरण पर क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करूँ... कई बार कुछ लिखने को शब्द साथ नही देते! होनी अनहोनी पर किसी का बस नही और पहाड़ों पर तो अक्सर ही ऐसी दुखद दुर्घटनाएं हो ही जाती हैं।
    मुझे पता है कि यह सब इतने विस्तार से लिखना आपके लिए भी आसान नही रहा होगा।
    बस, इतना ही कहूँगा कि ट्रेकिंग करने को उत्सुक नये लोग इस दुर्घटना से सबक लें और जब तक पूर्णतयः मानसिक और शारीरिक रूप से फिट न हों, इतनी ऊंचाई पर जाने का जोखिम न लें। पहाड़ों पर नेटवर्क सिग्नल न होने की वजह से किसी भी प्रकार की मदद या रेस्क्यू भी समय रहते नही मिल पाता।
    यदि नये लोग इन बातों का ध्यान रख पाए तो यही राहुल के प्रतिं सच्ची श्रद्धांजलि होगी!

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  17. नीरज भाई मुझे से पहले से ही यकीं था की इस सब में आपकी कोई गलती नहीं थी , पर इस सब से मैंने भी एक सबक सीख की किस तरह से लोग दुर्घटना होने पर भी मजे लेते हैं , और जिस समय इन्सान को सबसे ज्यादा जरुरत होती है उस समय लोग आपको और तंग करते हैं इसलिए हमेशा हमें कम परुन्तु सच्चे दोस्त ही बनाने चाहिए जो मुसीबत के समय दगा न दे , मैंने देखा किस तरह से लोग हत्यारा तक बोल रहे थे , उनकी बातो से साफ़ झलक रहा था की उनको राहुल से कोई मतलब नहीं है बल्कि वो आपको फंसा हुआ देख कर खुश हो रहे थे , sandy sandyy]

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  18. धन्यवाद इस पोस्ट को लिखने के लिए और उन लोगो की गलतफहमी दूर करने के लिए जो आपके खिलाफ ग़लतफ़हमी पाले बैठे है |
    आपकी पोस्ट एक एक पल को बयां कर रही है बढ़िया लिखा है |

    हाँ इस घटना से सभी लोगो को परेशानी हुई है खासकर आपके मन में अभी तक हलचल मची हुई होगी | खैर इस घटना से सबक लेते हुए आप अपनी घुमक्कड़ी बिंदास जारी रखे ...
    और सबक भी नये लोगो के लिए जबरदस्ती ट्रेक पर बिना किसी साहयता या अनुभव के नहीं जाना चाहिए...

    धन्यवाद

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  19. दुखद यात्रा थी यह आपके लिए क्योकि आपने एक साथी को खोया। इस दुर्घटना से हम जैसे लोग व कुछ ट्रेकर जो अपने साथ किसी को भी ट्रेक पर ले जाते है उनको भी एक सबक मिला। अब लोग जाने से पहले दुर्घटना ना हो, अगर हो तोह क्या क्या सावधानी बरतनी चाइए इन सब बातों पर विचार पहले ही करने लगे है,और यह सीखने को भी मिला की पहाड़ो पर सावधानी बरतनी चाइये और प्लान बना कर व लोकल बन्दों से भी जानकारी ले कर ऐसी दुर्गम जगह जाना चाइये। आज राहुल यहां ना होकर भी हमे बहुत कुछ सीखा गया।

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  20. अभी अभी जानकारी मे आयी है कि उस समय नीरज जी विरुद्ध कैम्पेन चलाने वालों में से कुछ लोग ब्लागर लिखने वालों कि एक सूची बनायी है जिसमें नीरज जी का नाम गायब था । नीरज जी के चाहने वालों का कड़ा रिएक्शन के बाद नीरज जी का नाम अनमने मन से शामिल किया गया। सभी ब्लागर सम्माननीय और जानकार है किन्तु किसी के विरुद्ध गलत कैम्पेन चलाकर बदनाम करना और फिर अनदेखी करना निश्चय ही दुखद है ।

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  21. नीरज भाई लिखा , बहुत अच्छा किया | इसके बाद अब किसी के कहने सुनने को कुछ बचना तो नहीं चाहिए | फिर भी लोग कहे सुने तो आप अब कान न धरें |

    जिस परिस्थिति और मनोदशा से आप अभी गुजर रहे हैं विमलेश चन्द्र जी के दोनों सुझाव सबसे बेहतरीन मालूम होते हैं | आशा है आप इन पर विचार करेंगे |

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  22. बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध लेय।

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  23. जो हुआ बहुत दुखद था नए ट्रेकरों को इस घटना से सीख लेनी चाहिए। आपने स्पस्टीकरण दिया ये सही है। अब आगे बढ़ो और इससे बाहर निकलो।

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  24. जो हुआ नीरज भाई, बेहद दुखद था। दुर्घटना कभी भी किसी के साथ भी हो सकती है। समूह में कुछ चीजें करें तो समूह से अलग होना नहीं चाहिए। लेकिन फिर भी ऐसा हो जाता है। इसपे कोई कण्ट्रोल नहीं होता। हाँ, आप अवसाद से बाहर आईये और नई यात्रा पे जाइए।

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  25. नीऱज़
    लिखते रहो.. पोस्ट पढते समय मन घबराया जरूर...

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  26. नीरज जी जो हुआ बहुत ही दुखद था ।पर होनी को कौन टाल सकता है। अब अपने अनुभवों से सीख लेते हुए आप आगे बढ़ो क्योंकि चलते रहना ही ज़िन्दगी है। हमारी शुभकामनाए आपके साथ है।

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  27. नीरज भाई बिना संशय के ये एक दुखद यात्रा थी साथ ही साथ दुर्भाग्यपूर्ण भी थी। और नए नए ट्रैवलर्स को बहुत सीख भी देती है। बहुत से ब्लोगर्स ने इस घटना का जिक्र काफी तल्ख अंदाज मे किया है और कही ना कही उन की आप से नाराजगी भी है। निःसंदेह आप ने अपनी जिम्मेदारी निभाई पर आप इस से भी ज्यादा कर सकते थे। जीवन अनमोल होता है और एक टीम लीडर का फ़र्ज़ है की वो पूरी टीम को एकता के सूत्र मे बांधे और उसका निर्णय टीम के लिए सर्वमान्य हो। ऐसा नही हुआ इसका मतलव टीम के लोगों मे विस्वास की कमी थी और इस विस्वास की कमी का कारण था आपके साथियो का आपका केवल एक फेसबूक मित्र होना क्यों की वास्तविक दोस्तो मे भरपूर विश्वास होता है ओर विरचुअल मित्रो मे इसकी कमी ओर यही कमी ट्रैक पर दिखी जब आपके लाख केहने के बाद भी मरहूम बंदे ने बात नही मानी।

    नीरज भाई आशा है आप अपनी अगली यात्राओ पर अपने वास्तविक मित्रो या नजदीकियों को ही ले जाये। साथ ही साथ अपना ट्रैवल इन्सुरेंस जरूर कराये ताकि विपरीत परीस्तीतियो मे आपके परिवार को मदद मिल सके।

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  28. हिंदी लेखकों में बहुत ही यश विपन्नता है। एक व्यंग लेखक हैं "अनूप शुक्ल", उनकी लिखी हुई बात है पर अक्षरशः सत्य है। इस सारे घटनाक्रम में जिस तरह का तमाशा किया गया वो भी साथी यात्रा लेखकों द्वारा, इसका ज्वलंत उदाहरण है।
    मेरे पिताजी अक्सर कहते हैं कि जो आपको जानता है वो सच्चाई जानता है की आप क्या है और जो आपको नहीं जानता वो कुछ भी समझे क्या फर्क पड़ता है।

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  29. इसमें कोई दो राय नहीं कि जो हुआ दुखद हुआ.लेकिन गलती किसकी थी इसपर चर्चा व्यर्थ है.व्यक्ति के निर्णय कभी कभी क्षणिक और नितांत व्यक्तिगत होते हैं.घटना दुर्घटना कही भी हो सकती है.हाँ दुर्घटना होने पर चर्चा, ज़्यादातर ज़रुरत से ज़्यादा बेकार चरचा होती है.हाँ इस लेख से कुछ घुमक्कड़ लोगों को ज़रूर सीख मिलेगी.
    लिखते रहिये.

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  30. Be brave, We all are with you.

    Regards

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  31. यात्रा दुखांत रही। ..मगर ये सब लिखना जरुरी था , आपने धैर्य का परिचय दिया। .ये ताउम्र साथ बना रहे

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  32. Mr Neeraj jat. You responded, but never seemed apologetic. A/c to you, all decisions were made by him and you are not responsible. But you don't know , you committed a sin against a good soul. It will affect you, its a curse. So confess publicly, heartily, and cry hard to be cured. God knows the truth.

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  33. कभी कभी अनुमान गलत साबित होते है, यही हुआ। लोगों के रिएक्शन आ रहे वो भावुकता वश आ रहे, उन्हें गलत नही मान सकते। नीरज जी ,आपने जो किया मैं भी वही करता बस वो वक्त खराब था।

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  34. दिल पर कोई बोझ न रखिये जिंदगी एक जंग है इसे जारी रखिये.....नीरज भाई आपका दोष है ही नही
    ईश्वर उन मित्र की दिवंगत आत्मा को चीर शांति प्रदान करे

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब