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जनवरी में नागटिब्बा-1

24 जनवरी 2016
दिसम्बर 2015 की लगभग इन्हीं तारीखों में हम तीन जने नागटिब्बा गये थे। वह यात्रा क्यों हुई थी, इस बारे में तो आपको पता ही है। मेरा काफी दिनों से एक यात्रा आयोजित करने का मन था। नवम्बर में ही योजना बन गई थी कि क्रिसमस के आसपास और गणतन्त्र दिवस के आसपास दो ग्रुपों को नागटिब्बा लेकर जाऊंगा। नागटिब्बा लगभग 3000 मीटर की ऊंचाई पर है और यहां अच्छी खासी बर्फ पड जाया करती है। लेकिन इस बार पूरे हिमालय में कम बर्फबारी हुई है तो नागटिब्बा भी इससे अछूता नहीं रहा। दिसम्बर में हमें बर्फ नहीं मिली। फिर हमने देवलसारी वाला रास्ता पकड लिया और खूब पछताये। उस रास्ते में कहीं भी पानी नहीं है। हम प्यासे मर गये और आखिरकार नागटिब्बा तक नहीं पहुंच सके। वापस पंतवाडी की तरफ उतरे। इस रास्ते में खूब पानी है, इसलिये तय कर लिया कि जनवरी वाली यात्रा पन्तवाडी के रास्ते ही होगी।
लेकिन पन्तवाडी की तरफ मुझे जिस चीज ने सबसे ज्यादा डराया, वो था उस रास्ते का ढाल। इसमें काफी ज्यादा ढाल है। नीचे उतरने से ही खूब पता चल रहा था। फिर अगर जनवरी में इस रास्ते से आयेंगे तो इसी पर चढना पडेगा। यही सोच-सोचकर मेरी सांस रुकी जा रही थी और मैं नितिन और अमरीश से वादा भी करता जा रहा था कि अब के बाद ट्रैकिंग बन्द।



लेकिन अब तक लखनऊ से पंकज मिश्रा जी और ग्वालियर से प्रशान्त जी ने इस यात्रा के लिये निर्धारित राशि भेज दी थी। अब मेरे पास दो विकल्प थे- यात्रा पर जाना और न जाना। न जाना ही ज्यादा सशक्त था। प्रशान्त जी से तो कह भी दिया था कि जाना मुश्किल है लेकिन पंकज जी से नहीं कह पाया। इसी तरह एक-एक करके दिन गुजरते गये।
अब कहानी आगे बढती है। मैं कोई यात्रा कार्यक्रम बनाता हूं तो उसके रद्द होने की ज्यादा सम्भावना होती है लेकिन निशा को यह पसन्द नहीं है। उसने कह दिया कि जनवरी में हम नागटिब्बा अवश्य जायेंगे। हम जायेंगे, इतना तो ठीक था लेकिन इसी दौरान मेरी मुलाकात अपने एक साढू से हुई। मुझे नरेन्द्र को साढू कहना अच्छा नहीं लगता, बल्कि मित्र या भाई कहना ही ज्यादा अच्छा लगता है। नरेन्द्र का स्वभाव बहुत अच्छा है और मेरी-उसकी बहुत अच्छी पटती है लेकिन उसकी पत्नी का स्वभाव बडा ही अजीब है। अरे हां, उसकी पत्नी तो शायद मेरी साली लगेगी। तो जी, इस यात्रा में उस साली ने कई बार बडी ही विचित्र और अप्रिय स्थिति पैदा की, जिसका यहां जिक्र करना ठीक नहीं। मैं दोबारा नरेन्द्र के साथ घूमना पसन्द करूंगा, लेकिन उस साली के साथ नहीं।
आगे बढते हैं। एक व्हाट्सएप ग्रुप है जिस पर हम कुछ निठल्ले घुमक्कड टाइम काटते रहते हैं। इसी टाइम काटने की प्रक्रिया में मैंने इस ग्रुप में एक पहेली का आयोजन किया था। अंक प्रणाली थी। जिसे एक निर्धारित समय तक सबसे ज्यादा अंक मिलेंगे, वो इस यात्रा में बिल्कुल फ्री में चलेगा यानी उसका सारा खर्च मुझे उठाना था। इस पहेली को अम्बाला के रहने वाले नरेश सहगल ने जीता था। अब सहगल साहब का भी चलना लगभग पक्का ही था। फिर तो देखते ही देखते ग्रुप के कई अन्य साथी भी तैयार हो गये- दिल्ली के ही सचिन त्यागी, पानीपत से सचिन जांगडा और उधर सहगल साहब के कुछ मित्र।
लेकिन इसी दौरान त्यागी जी को पथरी हो गई। उनका साथ चलने का बहुत मन था लेकिन पथरी के आगे उनकी नहीं चली और उन्होंने मना कर दिया। यह हमारे लिये एक बडा झटका था। असल में हमें एक रात ऊपर नागटिब्बा या नाग मन्दिर पर भी गुजारनी थी। उसके लिये टैंट और स्लीपिंग बैग साथ ले जाने जरूरी हो जाते हैं। यह सारा सामान ले जाने की जिम्मेदारी मेरी थी। आखिरकार सोचा कि बाइक से चलते हैं। समस्या ये आई कि लखनऊ से आने वाले पंकज मिश्रा जी सीधे देहरादून पहुंचेंगे। हम अगर बाइक से जायेंगे, तो मिश्रा जी देहरादून से पन्तवाडी तक कैसे जायेंगे? कुल मिलाकर बडी ही विचित्र स्थिति बनी रही।
उधर सचिन त्यागी ने भी घुटने नहीं टेके। वे दर्द से कराहते रहे और नागटिब्बा चलने की भी बात करते रहे। दो दिन पहले जिस समय वे बिल्कुल ठीक थी, ऐलान कर दिया कि वे भी अवश्य जायेंगे और अपनी कार से। इधर नरेन्द्र को भी कार चलानी आती है। किसी अप्रिय स्थिति में नरेन्द्र कार चला लेगा।
दिल्ली से चलने वाले हम पांच हो गये अर्थात कार पूरी भर गई। पानीपत से जांगडा आयेगा। सर्दियों के दिन थे - घोर सर्दियों के। कोहरे के। जांगडा भी इसी कार से चलेगा। अम्बाला से नरेश और उनके मित्र अपनी कार से जायेंगे इसलिये उनकी तरफ से हम निश्चिन्त थे। एक बाइक भी ले चलने का विचार आया। पहले तो सोचा था कि मैं अपनी बाइक ले चलूंगा लेकिन बाद में सोचा कि पानीपत से जांगडा की बाइक का फायदा उठा लेंगे। उसका घर शहर से कुछ दूर है, उसने कहा कि वह हाईवे तक ही बाइक ला सकता है, उसके बाद नहीं। घोर सर्दियों ने उसे भी मजबूर कर रखा था, अन्यथा वह बाइक का एक नम्बर का शौकीन आदमी है।
नाइट ड्यूटी करके घर आया तो देखा कि सचिन त्यागी आ चुका था। नरेन्द्र और पूनम कल से ही आये रखे थे। कुछ भी देर नहीं लगी सामान कार में रखने में और प्रस्थान करने में।
आज वास्तव में कोहरा बहुत घना था। जांगडा को फोन किया तो नहीं उठाया। कुछ देर बाद फिर किया तो बोला कि अभी सोकर उठा है और किसी भी हालत में साढे दस बजे से पहले पानीपत नहीं पहुंच सकेगा। अभी आठ भी नहीं बजे थे और हम दिल्ली की सीमा से बाहर निकल चुके थे। अगले एक घण्टे में हम पानीपत पहुंच जायेंगे और फिर हमें डेढ-दो घण्टे उसकी प्रतीक्षा करनी पडेगी। उधर लखनऊ से पंकज जी बस से देहरादून पहुंच रहे थे। उनकी बस को सुबह ही देहरादून पहुंच जाना था लेकिन कोहरे ने वहां भी असर दिखा रखा था। वे मुरादाबाद के आसपास कहीं थे।
जब हम सोनीपत के पास बहालगढ पहुंचने वाले थे तो संजय कौशिक जी का सन्देश आया कि चाय पीकर जाना। संजय जी भी हमारे उसी व्हाट्सएप ग्रुप के सदस्य हैं और सोनीपत के रहने वाले हैं। कोई और दिन होता तो हम अनसुना करके निकल जाते लेकिन आज सोनीपत शहर की तरफ मुड गये। पानीपत में हमें कम से कम डेढ घण्टे प्रतीक्षा करनी है, इससे अच्छा है कि इतना समय संजय जी के यहां बिता लें।
चाय पी... अब किसी के यहां जाओ तो खाली चाय तो मिलती नहीं है। ढेर सारी दूसरी चीजें भी मिल जाती हैं। पूरा ब्रेकफास्ट ही हो गया। चलते समय एक किलो मूंगफली पकडा दी। वे कल गुडगांव से बच्चों के लिये मूंगफली लेकर आये थे कि आज रविवार को बच्चों के साथ बैठकर खायेंगे लेकिन हमने इन्हें लेते समय जरा भी संकोच नहीं दिखाया। अब सोच रहा हूं कि आधी मूंगफली ही लेनी चाहिये थी। हालांकि हम सभी खाने-पीने की चीजों पर टूट पडने वाले लोग थे, लेकिन इनमें से कुछ मूंगफलियां वापस शास्त्री पार्क तक आईं।





पानीपत पहुंचे। टोल नाके के पास जांगडा बैठा आग सेंक रहा था। वो अपने गांव से बाइक पर आया था और कोहरे में पूरा भीग गया था। मिलते ही उसने कार की सीट कब्जा ली। बाइक अब मैंने सम्भाली। करनाल से दाहिने मुड गये और यमुनानगर वाली सडक पकड ली। इसी दौरान यमुनानगर के रहने वाले प्रसिद्ध विज्ञान ब्लॉगर दर्शन लाल बवेजा जी का फोन आ गया। हमारी टोली यमुनानगर से गुजरेगी, इसकी जानकारी उन्हें फेसबुक से हो गई थी। वैसे तो आज रविवार का दिन था, लेकिन कोई और भी दिन होता, तब भी वे छोडने वाले नहीं थे। लेट हो जाने की वजह से मैंने उन्हें मना कर दिया था लेकिन जब लाडवा पहुंचते-पहुंचते भूख लगने लगी तो बवेजा जी याद आ गये। लंच तो करना ही है, अच्छा है कि साथ के साथ उनसे भी मिल लिया जाये।
एक बजे यमुनानगर पहुंचे। पौण्टा रोड पर ही वे मिल गये। उनके साथ श्रीश शर्मा जी भी थे। श्रीश जी ई-पण्डित के नाम से लिखते हैं। बवेजा जी साइंस टीचर हैं। आप उनकी फेसबुक चेक कीजिये, केवल और केवल साइंस टीचिंग की ही बातें आपको मिलेंगीं। इन्होंने बताया कि उज्जैन के पास एक गांव है डोंगला, तहसील महिदपुर, उज्जैन से 30 किमी, जहां कर्क रेखा पर 21 जून को भारतीय समयानुसार दोपहर बारह बजे परछाई नहीं बनती। यह बात समझने में मुझे बडी देर लगी। क्योंकि 21 जून ही एक ऐसी तारीख है जब एक ऐसा समय आता है कि पूरी कर्करेखा पर कोई परछाई नहीं बनती- जीरो शैडो। लेकिन चूंकि मिजोरम और कच्छ के समय में लगभग दो घण्टे का फर्क है, इसलिये जिस समय मिजोरम में सूरज सिर के ठीक ऊपर होगा, उस समय भारतीय समयानुसार लगभग साढे दस बजे होंगे और जिस समय कच्छ में सूरज सिर के ऊपर होगा, उस समय लगभग साढे बारह बजे होंगे। उज्जैन के पास का वो गांव ही एकमात्र ऐसी जगह है, जहां ठीक बारह बजे सूरज सिर के ऊपर होगा अर्थात जीरो शैडो बनेगी।
इन्होंने हमें भी एक प्रयोग करने को कहा। प्रयोग का नाम है पृथ्वी की परिधि ज्ञात करना। इसके लिये आपको चाहिये एक नोमोन (Gnomon)- हिन्दी में इसे कहते हैं शंकु यन्त्र। यह 100 सेमी लम्बाई की एक छड होती है। इससे 12 बजे दोपहर से 1 बजे तक हर चार मिनट के बाद इस नोमोन की परछाई नापनी होती है। 12:20 बजे से 12:45 बजे तक परछाई एक बार स्थिर हो जाती है यानी पहले घटती है और फिर बढने लगती है। जिस समय परछाई न्यूनतम होती है, वह टाइम उस स्थान का ‘नून टाइम’ होता है। आमतौर पर हम 12:00 बजे को नून और 12:00 बजे के बाद को आफ्टरनून कहते हैं। जबकि यह बारह बजकर कुछ मिनट पर होता है। मुझे आपने उस बिन्दु के अक्षांश-देशान्तर, नोमोन की ऊंचाई, न्यूनतम परछाई की लम्बाई और उस स्थान का नाम बताना है जहां प्रयोग कर रहे हैं। 10-12 फोटो भेजने हैं सुन्दर-सुन्दर। बाकी आप इस लिंक पर क्लिक करके देख सकते हैं।
इसी के साथ-साथ आलू परांठों का जो दौर चला, वो भी अविस्मरणीय रहा। चलते समय उन्होंने हमें एक किलो के करीब गज्जक दे दी। सुबह मूंगफली मिलीं, अब गज्जक मिल गईं, कडाके की सर्दियों में इससे अच्छा कम्बीनेशन कुछ नहीं हो सकता।




अगर दर्शन जी हमें कालेश्वर मठ के बारे में नहीं बताते, तो हम यहां नहीं रुकते। पहले भी हम इस सडक से कई बार गुजर चुके हैं, इस मठ को देखा भी है लेकिन रुके कभी नहीं। अब उन्होंने दस मिनट के लिये रुकने को कहा, शिव अमृत लेने को कहा तो विलम्ब होने के बावजूद भी 15-20 मिनट के लिये रुक गये। यह कलेसर वाइल्डलाइफ सेंचुरी है। यमुना पास में है, यमुना के उस तरफ यूपी है। थोडा ही आगे हिमाचल है। घोर जंगल है। इसमें यह कालेश्वर महादेव मठ बना हुआ है। जंगलों से जडी-बूटियां इकट्ठी करके एक काढा बनाया गया है जिसे शिव अमृत नाम दिया है। मैंने तो इसे नहीं चखा लेकिन जिसने भी चखा, उसने यही कहा कि इससे कडवी दवाई आजतक नहीं पी। फिर भी हमने दो शीशियां शिव अमृत ले लिया। कई रोगों में यह लाभकारी है। अगर रोग न भी हो तो स्वस्थ आदमी भी इसे सेवन कर सकता है।





अब मैंने बाइक सचिन जांगडा को पकडा दी। कोहरा समाप्त हो गया था और ठण्ड भी कम हो गई थी। मैंने रात ड्यूटी की थी तो नींद आने लगी थी।
पौण्टा साहिब नहीं रुके और यमुना पार करके सीधे हरबर्टपुर चौराहे पर जाकर रुके। पंकज जी को देहरादून से यहीं बुला लिया था और वे पिछले डेढ घण्टे से हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। नरेन्द्र को कार से उतारकर जांगडा के पीछे बाइक पर बैठाया और पंकज जी को कार में। चल पडे पन्तवाडी की तरफ।
विकासनगर से निकलते ही पहाडी रास्ता शुरू हो जाता है और ट्रैफिक समाप्त हो जाता है। उत्तराखण्ड के पहाडों में बिल्कुल भी ट्रैफिक नहीं है, यह बात मुझे अच्छी भी लगती है और खराब भी। जब हम इसके कारणों पर जायेंगे तो खराब ही लगेगा। उत्तराखण्ड में पलायन बडी तेजी से बढा है और कोई भी पर्वतीय शहर इतना शक्तिशाली नहीं रह गया कि उसके लिये सडकों पर गाडियां दौडती रहें। इसके विपरीत हिमाचल में मनाली और शिमला तो बेहद शक्तिशाली हैं ही, दूसरे शहर भी बेहद अहम हैं और दिन-रात बसें, कारें और ट्रक आना-जाना करते रहते हैं।
सवा पांच बजे यमुना पुल पर जाकर रुके। कुछ चाय पी, कुछ फोटो खींचे। उधर अम्बाला से नरेश जी अपने मित्रों के साथ पन्तवाडी पहुंच चुके थे और कमरा भी ले लिया था। हमने उन्हें ही हमारे लिये भी तीन कमरे लेने को कह दिया। हमें वहां पहुंचने में अन्धेरा हो जायेगा। उस समय कमरा ढूंढना अच्छा नहीं लगेगा। उन्होंने फटाक से 1300 रुपये में तीन कमरे हमारे लिये बुक कर दिये। अब हम पन्तवाडी जायेंगे और सामान पटककर निश्चिन्त हो जायेंगे।



नैनबाग से दाहिने मुड गये। यहां से पन्तवाडी 15 किमी रह जाता है और सडक खराब है। यही सडक आगे चिन्यालीसौड के पास कहीं ऋषिकेश-उत्तरकाशी सडक में मिलती है। गूगल मैप में यह पूरी सडक नहीं है और जंगल होने के कारण सैटेलाइट से भी नहीं दिखती। इसलिये मुझे पता नहीं चल सका कि यह चिन्यालीसौड में ही मिलती है या कहीं इधर-उधर। अगर यह सडक अच्छी बन जाये तो दिल्ली से गंगोत्री जाने के लिये यह उत्तम सडक होगी।
लेकिन कहानी में अभी एक पात्र और भी है। उसका नाम है फारूख। वह बागपत का रहने वाला है और बाइक मैकेनिक है। बाइक पर घूमने का शौकीन भी। हमारी यात्रा का पता चला तो साथ चलने को राजी हो गया। कल ही देहरादून आ गया था और आज उसे हमारे साथ मिल जाना चाहिये था। उसके साथ उसके कुछ मित्र भी थे। उन्होंने सोचा कि हम लोग बाइक पर होंगे। हमें लेट होता देख वे आगे निकल गये। कुछ देर नैनबाग में प्रतीक्षा की और हमारे कहने पर वे पन्तवाडी चले गये। रात होने लगी थी और कमरे की भी बात थी, वे समय से पन्तवाडी पहुंच जायेंगे तो कमरा भी देख लेंगे। तो वे पन्तवाडी पहुंच गये।
जब हम नैनबाग से पन्तवाडी की ओर मुडे तो उनका फोन आया कि वे वापस आ रहे हैं। क्यों? उसके ससुर यहां नैनबाग में काम करते हैं। उन्हें उसकी यात्रा के बारे में पता चला तो फौरन फारूख से वहां से निकलने को कह दिया। बताया कि माहौल ठीक नहीं है। चोरी-चकारी वाला इलाका है, तुम्हारे ऊपर भी इल्जाम लग सकता है। निकलो वहां से। मैंने रोकने की कोशिश की कि ऐसा कुछ नहीं है, लेकिन ससुर ज्यादा प्रबल था। वे सभी लोग पन्तवाडी से वापस चल दिये। हम इधर से जा रहे थे। बात हो गई कि रास्ते में मिलेंगे तो थोडी देर बातें करेंगे। रास्ते में दो बाइकें मिलीं। अन्धेरे की वजह से दूर से पता नहीं चला। पास आये तो पता चला कि ये दोनों तो उत्तराखण्ड नम्बर की बाइकें हैं जबकि फारूक के पास बागपत की बाइक होनी चाहिये थी। फिर आगे बैठे सचिन त्यागी ने उनसे कुछ पूछा भी। दोनों दलों में केवल फारूख ही मुझे पहचान सकता था। मैं उसे नहीं पहचान सकता था। फारूख को पीछे बैठा हुआ मैं नहीं दिखा, फिर उन्होंने सोचा कि हम बाइक से आ रहे हैं, तो उसने कुछ ध्यान भी नहीं दिया। हम आगे बढ गये। बाद में परतें खुलीं, तब पता चला कि उन उत्तराखण्ड नम्बर की बाइकों पर ही फारूख था। देहरादून से उसने अपनी रिश्तेदारी से बाइक उठाईं थीं।
सात बजे पन्तवाडी पहुंचे। सहगल साहब मिले, उनके मित्र मिले। फिर तो वही कुछ खाने का दौर चला, कुछ पीने का दौर चला, कुछ बतियाने का दौर चला और फिर सोने का दौर चला।






अगला भाग: जनवरी में नागटिब्बा-2

1. जनवरी में नागटिब्बा-1
2. जनवरी में नागटिब्बा-2
3. जनवरी में नागटिब्बा-3




Comments

  1. शानदार शुरूआत। नीरज जी, क्या विकास नगर से पंतवाड़ी और कालसी रूट अलग-अलग हो जाता है?

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    1. अहमद साहब, विकास नगर से थोडा ही आगे कालसी है। कालसी से दो रास्ते अलग होते हैं- एक रास्ता चकराता चला जाता है और दूसरा नैनबाग और बडकोट होते हुए यमुनोत्री। नैनबाग से पन्तवाडी का रास्ता जाता है।

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  2. एक बार तो मेरा जाना कैंसील हो गया था, पर दर्द ठीक होते ही घुमक्कडी का कीडा जोर मारने लगा, इसलिए आपको बता दिया की मै आपके साथ चल रहा हुं।
    वो बाईक वालो से मैने यह पुछा था की पन्तवाडी कितनी दूर ओर रह गई है, एक बार तो मैने आपसे कहा था,की यही तो फारूख की बाईक तो नही है।
    नीरज जी आपके साथ यात्रा का मजा आया।

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    1. त्यागी जी, वास्तव में आनन्ददायक यात्रा रही आपके साथ...

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  3. प्रथम फोटो को पहचानने में बहुत वक़्त लगा।
    बेहतरीन मुद्रा है।
    सचिन भाई ने बहुत हिम्मत दिखाई...
    यात्रा में पूरी घुमक्कड मण्डली थी,बहुत मज़ा आया होगा।
    आपने उज्जैन के पास जो कर्क रेखा का स्थान बताया वहाँ 21 जून को जाकर परछाईहीनता का प्रयोग करने की कोशिश करूँगा।

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    1. 21जून को समय दोपहर के बारह से सवा बारह के बीच का समय मे कुछ मिनट ऐसे होगे जब आपकी परछाई नही दिखेगी, जैसे बवेजा जी ने बताया बाकी ज्यादा जानकारी नीरज दे सकता है।

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    2. हां सुमित भाई, जाकर देखना और हमें भी बताना...

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  4. यात्रा वृतांत का शानदार आगाज
    कर्क रेखा व परछाई के बारे बोनस जानकारी मिलने के अलावा सचिन त्यागी के हौसले को भी भरपूर दाद
    अगली कड़ी के बेसब्र इंतज़ार में...

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  5. Areey wah poora gang hai yahan toh. Sehgal Sahab, Tyagi bhai sab ko kaafi padha hai, so sab jaane pehchaney lagtey hai :-)
    Anxiously waiting for next post.

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  6. जाट नाल मोजा ही मोजा ...

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  7. Tumhare sath ghumane ki badi tammnna hai agar koi 2 din ka prog bane to batana

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  8. यही है अतुल्य भारत की असली तस्वीर।
    बिना मिलावट बिना बनावट।
    एकदम ओरिजिनल। एकदम असली।
    नीरज जी जय हो।।

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  9. अच्छा लगा पढकर ऐसा लगा जैसे में ही घूम आया हूँ

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