रेलवे में सीनियर इंजीनियर शिवराज सिंह जी ने अपनी हर्षिल और गंगोत्री यात्रा का वर्णन भेजा है। हो सकता है कि यह वृत्तान्त आपको छोटा लगे लेकिन शिवराज जी ने पहली बार लिखा है, इसलिये उनका यह प्रयास सराहनीय है। |
मेरा नाम शिवराज सिंह है। उत्तर प्रदेश के शामली जिले से हूँ। शिक्षा-दीक्षा मुजफ्फरनगर के डीएवी कालेज व गाँधी पॉलीटेक्निक में हुई। वर्तमान मे उत्तर रेलवे के जगाधरी वर्कशॉप में सीनियर सेक्शन इंजीनियर के पद पर कार्यरत हूँ। बचपन से ही घूमने फिरने का शौक रहा है। रेलवे मे काम करते समय घूमने का काफ़ी मौका मिलता है। यात्रा ब्लॉग पढ़ने की शुरुआत आपके ब्लॉग से की। मजा आया क्योंकि अपनी जानी-पहचानी भाषा में लिखा था। पहले कभी लिखने के विषय में नही सोचा, परन्तु आपके ब्लॉग को पढ़कर कोशिश कर रहा हूँ।
जून 2015 मे गंगोत्री घूमने गया था। साथ मे बेटा व तीन नौजवान भानजे भी थे। शुरुआत मे केवल मसूरी तक जाने का प्रोग्राम था, परंतु वहाँ की भीड़-भाड़ मे मजा नही आया औऱ एक भानजे ने जो कि नियमित रूप से उत्तराखण्ड के पहाडी इलाकों मे घूमता रहता है, हर्षिल का जिक्र किया जिसके विषय मे नेट पर पढ़ा था कि वहाँ पर राजकपूर की ‘राम तेरी गंगा मैली’ फिल्म की शूटिंग हुई थी तथा वहाँ पर सेब के बगीचो के विषय मे भी सुना था। बस तो फिर हर्षिल का प्रोग्राम बन गया। कार औऱ ड्राइवर अपने थे इसलिये कोई समस्या नही आयी। सुबह ही हम पाँच यात्री हर्षिल के लिये चल पड़े। रास्ते मे एक जगह जिसका नाम शायद चिन्यालीसौड था, जमकर आलू के स्वादिष्ट परांठे खाए। उत्तरकाशी से पहले तथा बाद में कई जगह सड़क काफी ख़राब मिली।
पहली बार इतनी ऊँचाई पर कार से यात्रा कर रहे थे, इसलिए एक तरफ़ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ औऱ एक तरफ़ गहरी घाटी में बहती भागीरथी नदी को देखकर हालत खराब थी, परंतु अलग नजारों को देखकर मजा भी आ रहा था। रास्ते मे एक जगह निरस्त जल-विद्युत परियोजना (जगह का नाम शायद मनेरी था) स्थल के आसपास बिखरी बहुमूल्य मशीनों औऱ वहाँ हुए निर्माण को देखकर मन बड़ा दुखी हुआ। ये सब शायद अनंत काल तक ऐसे ही पड़ा रहेगा। खैर, शाम को लगभग चार बजे हम हर्षिल पहुँचे। ऐसा लगा जैसे किसी फिल्म के सेट पर पहुँच गये हो। वहाँ वो सब था जोकि या तो फिल्मों मे देखते है या फोटो मे देखते हैं। चारों तरफ़ पहाडियों से आते झरने औऱ कल-कल बहती जलधारायें एक स्वर्ग-सा नजारा पेश कर रही थी। साथ मे भोटिया जनजाति की बस्ती भी देखी, जो कि एक अलग ही दुनिया के प्राणी लगे। आज भी शहरी सभ्यता से कोसों दूर अपने मे मगन। बुजुर्ग औऱ औरते अलग-अलग समूह मे बैठे हुए कहकहे लगा रहे थे। ये नजारा अब हमारे यहाँ मिलना दुर्लभ है। अगर मिलता भी हैं तो बाकी लोग उन्हे पागल घोषित कर देते हैं।
हर्षिल आने के बाद गंगोत्री तो जाना ही था जोकि यहाँ से लगभग 30 किलोमीटर है। लगभग आठ बजे गंगोत्री पहुँच गये। पहुँचते ही कमरे वालो ने घेर लिया। ऐसा लगा वे हमारी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। 2013 मे आई त्रासदी का असर अभी तक था। जून के पीक सीजन मे भी बहुत कम यात्री थे। शुरुआत पाँच सौ रुपये से हुई औऱ तीन सौ रूपये मे एक अच्छा कमरा मिल गया वो भी साफ सुथरा औऱ मोटे कम्बलो के साथ। वह शायद बिड़ला की धर्मशाला थी। सामान रखकर भोजन के लिये निकले। मंदिर के गेट के पास ही एक साफ सुथरा ढाबा मिला। गंगोत्री यात्रा की शायद यही सबसे घटिया याद थी, क्योंकि काफी महँगा होने के बावजूद एकदम घटिया खाना था। थोड़ा घूम फिर कर कमरे पर पहुंच गये औऱ अपने-अपने कम्बल तान लिये। बाकी का तो मुझे पता नही परन्तु मेरी आँख बार-बार खुलती रही। रात के सन्नाटे मे भागीरथी का शोर डरा रहा था।
सुबह नहा-धोकर मंदिर के दर्शन किये। सूर्योदय के समय दूर बर्फ़ ढके पहाडो का रंग प्रतिक्षण बदल रहा था। दर्शन के बाद गोमुख वाले रास्ते पर लगभग तीन किलोमीटर तक गये। हालत ख़राब हो गयी। शाम तक वापिस देहरादून भी पहुँचना था। इसलिये लगभग दस बजे गंगोत्री से वापिस चल पड़े। रास्ते मे एक बार फिर हर्षिल रुके औऱ एक हेलीकॉप्टर के साथ फोटो खिंचवाए। जाते समय जो डर लग रहा था, वो ख़त्म हो चुका था औऱ दुबारा आने की मन मे लेकर लगभग आठ बजे देहरादून पहुँच गये।
हर्षिल के बारे में पहली बार सुना। पहली कोशिश बहुत ही शानदार है, इसे जारी रखियेगा।
ReplyDeleteV good .... Shivraj shinh
ReplyDeleteshort but nice and well written and equally supported by picturs
ReplyDeletekeep sharing your uttrakhand travel story.
बहुत अच्छा मामा जी। यादे ताजा हो गई।
ReplyDeleteअपनी चूड़धार वाली यात्रा पर भी लिखो
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteबेहतरीन....बहुत बहुत बधाई.....
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