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हिसार से मेडता रोड पैसेंजर ट्रेन यात्रा

22 अक्टूबर 2013
सुबह नई दिल्ली स्टेशन पहुंचा तो टिकट लेने वालों की उतनी लम्बी लाइन नहीं लगी थी, जितनी उम्मीद की थी। हिसार का सुपरफास्ट का एक टिकट ले लिया। गोरखधाम एक्सप्रेस सुपरफास्ट गाडी है। दूरी 184 किलोमीटर और टिकट 75 रुपये का है। स्क्रीन पर देखा कि यह गाडी बिल्कुल ठीक समय पर आ रही है। मुगलसराय रूट भारत भर में एक बदनाम रूट है। इस पर ट्रेनें लेट होनी ही होनी हैं। लेकिन कुछ ट्रेनें ऐसी हैं जिन्हें इस रूट पर इज्जत बख्शी जाती है। इन ट्रेनों में गोरखधाम के साथ साथ प्रयागराज, पुरुषोत्तम, कालका मेल आदि हैं। महाबोधि की यहां कोई इज्जत नहीं है। आज महाबोधि पांच घण्टे की देरी से चल रही थी। पुरुषोत्तम आ चुकी थी, गोरखधाम अपने निर्धारित समय पर आ जायेगी। भले ही गोरखधाम इस रूट पर कानपुर तक ही चलती हो, फिर भी है तो इसी रूट का हिस्सा ही।
पांच मिनट की देरी से गाडी आई। भयंकर भीड। लेकिन मुझे इसकी कोई चिन्ता नहीं क्योंकि यह सारी भीड दिल्ली वाली है। इस मजदूरों की भीड को हरियाणा में खासकर अर्धमरुस्थलीय भिवानी और हिसार से कोई मतलब नहीं। यही हुआ। आगे पांच छह डिब्बे साधारण श्रेणी वाले थे। जब गाडी चली तो मैं एक ऊपर वाली बर्थ पर लेट गया।
गाडी चली तो नींद आई भी और नहीं भी आई। ठण्डी हवा इतनी जोर से लग रही थी कि नींद नहीं आ पा रही थी। नीचे बैठे यात्रियों से खिडकी बन्द करने को कहना मुझे ठीक नहीं लगा। फिर भी रातभर का जगा था, कभी आंख लग जाती, कभी खुल जाती। इसी तरह जब एक बार आंख खुली तो देखा कि सामने नीचे एक पच्चीस छब्बीस साल की लडकी बैठी है। इस मामले में मेरी आदत बहुत खराब है। उसे देखना शुरू कर दिया। सोचा कि अगर यह भी मुझे देखना शुरू कर दे तो आगे का सफर बहुत शानदार हो जायेगा। लेकिन मैं आधा मिनट भी नहीं देख पाया कि फिर आंख लग गई।
टीटीई ने जगाया। मेरे पास बिल्कुल ठीक टिकट था, उसने पेन से टिकट पर घुचड-मुचड की और लौटा दिया। उस लडकी का टिकट देखा तो बडे कायदे से बोला कि मैडम, आपका टिकट गलत है। इस ट्रेन का नहीं है। मैं समझ गया कि बेचारी ने कालिन्दी एक्सप्रेस का टिकट लिया होगा। गोरखधाम आ गई तो जानकारी के अभाव में इसमें बैठ गई। कालिन्दी एक एक्सप्रेस गाडी है जबकि गोरखधाम सुपरफास्ट। वैसे तो दोनों के किराये में पन्द्रह रुपये का अन्तर था लेकिन पकडे जाने पर इसमें ढाई सौ रुपये जुर्माना भी जुड जाता है। 265 रुपये का फरमान सुना दिया टीटीई ने।
सबसे अच्छी बात लगी कि टीटीई बडे कायदे से बात कर रहा था। ऐसा होना एक दुर्लभ घटना है। पहले तो मैंने मन ही मन बडी तारीफ की उसकी कि लडका कायदे से बोल रहा है। लेकिन जब देखा कि एक बेटिकट पुरुष यात्री के साथ उसका व्यवहार कितना भद्दा था तो समझ गया कि उस लडकी ने इसे कुछ समय के लिये कायदेवान बना दिया है। खैर, लडकी ने यही कहा जो हमेशा होता है कि मुझे पता नहीं था, क्लर्क से गोरखधाम का टिकट मांगा था, उसने कालिन्दी का दे दिया। आखिरकार टीटीई ने कहा कि जुर्माना तो लगेगा ही। आप 185 रुपये दे दो। 80 रुपये मैं अभी एक यात्री से लाया हूं। दोनों जोडकर 265 हो जायेंगे और रसीद कट जायेगी। लडकी सहमत हो गई। उसने 185 रुपये दिये और 265 की रसीद ले ली।
अब इस मामले में उस टीटीई की प्रशंसा करूं या आलोचना? पहली बात तो यह है कि यह कौम प्रशंसा की पात्र कतई नहीं है। क्या आपको लगता है कि उसने किसी बेटिकट यात्री को मात्र 80 रुपये लेकर छोड दिया हो? मुझे तो बिल्कुल नहीं लगता। कितनी आसानी से उसने दो यात्रियों पर जुर्माना भी लगा दिया, लोगों की सहानुभूति भी ले ली और रसीद भी काट ली। और हां, अपनी जेब भी भर ली।
भिवानी में शम्मी सिंह मिला। वह मेरा फेसबुक मित्र है। जब मैंने फेसबुक पर लिखा कि हिसार जा रहा हूं, तभी उसका सन्देश आ गया था कि वो मुझे भिवानी मिलेगा। पता चला कि वो स्थानीय फिल्मों में काम करता है अर्थात अभिनेता है। लगता भी हीरो सा ही है।
दस बजे हिसार पहुंचा। सादुलपुर की पैसेंजर एक बजे है यानी तीन घण्टे बाद। यहीं खाली पडी एक बेंच पर लेट गया और सो गया। ठण्डी हवा चल रही थी, मस्त नींद आई।
हाथ पर कुछ गर्म गर्म लगा तो अचानक आंख खुली। एक बकरी मेरी एक उंगली को चूस रही थी। अच्छा हुआ कि उसने उंगली चबाई नहीं। समय देखा साढे बारह। ओ तेरे की। भागा, टिकट लिया और नहाना भी जरूरी था नहीं तो रास्ते भर नींद आती रहेगी। जब नहाकर बाहर निकला तो एक बज चुका था और गाडी ने चलने के लिये सीटी बजा दी थी।
2008 के शुरू में मैं हिसार आया था। तब इस लाइन के गेज परिवर्तन का काम चल रहा था। इससे पहले यह मीटर गेज थी। हिसार से चलकर चडोद, नलोई बडवा, सिवानी, झूंपा और लसेडी के बाद सूरतपुरा जंक्शन आता है। सूरतपुरा से एक लाइन हनुमानगढ चली जाती है। अब यह लाइन गेज परिवर्तन के लिये बन्द है। मैं इस लाइन पर मीटर गेज में पहले यात्रा कर चुका हूं। सूरतपुरा के बाद सादुलपुर जंक्शन आता है। जहां से सीधे चूरू चले जाते हैं और एक लाइन रेवाडी जाती है। इस ट्रेन को रेवाडी जाना था। इसलिये मैं उतर गया। तुरन्त ही रेवाडी-जोधपुर पैसेंजर आ गई जिससे मैं चूरू जाऊंगा।
हावडा-जैसलमेर एक्सप्रेस आई। अपने निर्धारित समय पर ही। यह आधी रात को जैसलमेर पहुंचती है। खाली ही थी। एक ने मुझसे पूछा कि इन दोनों में कौन सी गाडी चूरू जायेगी। मैंने कहा कि दोनों जायेंगी। उसने पूछा कि पहले कौन सी जायेगी। मैंने जैसलमेर वाली की तरफ इशारा कर दिया। वो उसमें बैठने लगा तो मैंने रोका- ओये, सुण। टिकट है तेरे पास? हां, है। दिखा। देखा तो उसका टिकट पैसेंजर का था। मैंने बताया कि तेरा टिकट जैसलमेर वाली गाडी का नहीं है, बल्कि जोधपुर वाली का है। वो बेचारा किंकर्तव्यविमूढ सा खडा रहा। शायद सोच रहा होगा कि मेरे पास टिकट है तो क्यों मैं इस गाडी में नहीं चढ सकता?
सादुलपुर से चली तो डोकवा, हडयाल, दूधवा खारा, सिरसला और आसलू के बाद आता है चूरू जंक्शन। अभी समय हुआ था सवा चार का, यह साढे पांच बजे रतनगढ पहुंचती है। एक बार तो मन में आया कि रतनगढ ही चलता हूं। लेकिन जब देखा कि चूरू में विश्रामालय है तो यहीं रुकने के इरादे पर मोहर लगते देर नहीं लगी।
पूछताछ कक्ष में गया। कमरे के बारे में पूछा तो उसने रूखा सा जवाब दिया- अभी बाहर बैठ जाओ, थोडी देर में बात करना। मैं बाहर प्लेटफार्म पर एक बेंच पर बैठ गया। तभी एक बढिया तमाशा हुआ।
रेवाडी-जोधपुर पैसेंजर चल दी। जब कोई ट्रेन किसी बडे स्टेशन से छूटती है तो कुछ लेटलतीफ उसके पीछे भागते हुए दिखाई देते हैं। यहां भी ऐसा ही हुआ। कुछ पुरुष और महिलाएं ट्रेन के पीछे रोको-रोको चिल्लाते हुए दौड लगाने लगे। लेकिन गार्ड ने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया और ट्रेन चली गई। अब ये कम से कम दस लोग निराश थे। कोसने लगे- दो मिनट ट्रेन नहीं रोक सकता था? उन्होंने इस बात की शिकायत टीसी से कर दी। उसने समझाया कि ट्रेन दस मिनट लेट यहां से चली है, तुम लोग समय पर क्यों नहीं आये? दल की महिलाएं उबल पडीं। टीसी भी क्रोधित हो गया- टिकट दिखाओ सब। दो आदमी बेटिकट मिले। खूब बवाल मचा। महिलाओं ने हंगामा खडा कर दिया। तभी जीआरपी का एक बूढा लाल पीला होता हुआ आया- चुप रहो सब। एक तो बेटिकट चलते हो, फिर हंगामा भी कर रहे हो। अब किसी ने कुछ बोला तो अन्दर कर दूंगा। सभी ‘शेरनियां’ तुरन्त चुप हो गईं। दोनों की जुर्माने की रसीद कटी।
मामला शान्त हो जाने के बाद मैं फिर अन्दर गया। उसने कहा- टिकट दिखाओ। मैंने दिखा दिया। आईडी प्रूफ दिखाओ। आईडी देखते ही वो सम्मोहित सा हो गया। जो अब तक गुस्सैल और बेपरवाही से बातें कर रहा था, अब बडे कायदे से बात करने लगा- सर, आप मेट्रो में जेई हैं?
इसके बाद तो सारे काम उसी ने किये। रजिस्टर में एण्ट्री, पैसों का भुगतान सब उसी ने। हालांकि एक बिस्तर के 120 रुपये मैंने दिये, लेकिन क्लर्क के पास जाकर एमआर उसी ने बनवाया। नहीं तो कह देता कि जाओ, एमआर बनवाकर लाओ। मजा आ गया। हम मेट्रो वालों की दिल्ली में भले ही उतनी इज्जत न हो, लेकिन बाकी भारत में बढिया इज्जत है।
अगले दिन छह बजे का अलार्म बजा लेकिन उठा साढे छह बजे। प्रशान्त का फोन आया। मैंने कार्यक्रम की रूपरेखा बनाकर प्रकाशित की थी। इसमें यह नहीं दर्शाया था कि किस ट्रेन से कितने बजे कहां पहुंचूंगा। प्रशान्त इन चीजों का विशेषज्ञ है। उसने सबकुछ जान लिया। कहने लगा कि तुम जोधपुर क्यों आ रहे हो? मेडता से ही वापस चले जाना चाहिये। मैंने कहा कि मेडता से ही वापसी का आरक्षण है, जोधपुर आने का इरादा भी नहीं है, फिर भी अगर भोपाल-जोधपुर पैसेंजर समय पर आ गई तो जोधपुर आने के बारे में सोच सकता हूं। मैंने उससे मेडता आने के बारे में कहा। उसने कहा कि कोशिश करूंगा। इधर मुझे भी पता है कि अगर उसे समय मिल गया तो वो आ जायेगा, नहीं मिलेगा तो नहीं आयेगा। आ जायेगा तो मैं उसे धन्यवाद नहीं कहूंगा और अगर वो नहीं आया तो वो माफी नहीं मांगेगा। ऐसी ही ‘ट्यूनिंग’ होनी चाहिये।
रात सोते समय सिर में भयंकर दर्द था। एक तो नाइट ड्यूटी करके यात्रा शुरू की थी, फिर दिनभर ट्रेनों में रहा, सो भी नहीं पाया। शाम होते होते सिरदर्द शुरू हो गया। रात अच्छी नींद आई। अब दर्द का नामोनिशान तक नहीं है। नहाना जरूरी है। अभी तो मौसम में ठण्डक है, धीरे धीरे गर्मी बढती चली जायेगी।
मेडता रोड का टिकट ले लिया- दूरी 240 किलोमीटर और किराया 45 रुपये। ठीक समय पर गाडी आ गई। जितनी उम्मीद की थी, उतनी ही भीड थी। राजस्थान में अगर कोई मेला न हो तो इन पैसेंजरों में भीड ही कितनी होती है?
चूरू से चलकर देपालसर, जुहारपुरा, श्री मकडीनाथ नगर, मोलीसर के बाद रतनगढ जंक्शन आता है। यहां से एक लाइन बीकानेर और एक सरदारशहर चली जाती है। आजकल सरदारशहर वाली लाइन आमान परिवर्तन के लिये बन्द है। रतनगढ में सभी ट्रेनें काफी देर रुकती हैं, इसलिये यहां चूरू के मुकाबले खाने के ज्यादा विकल्प हैं। मैंने नाश्ता यहीं किया।
हरियाणा के जितने भी जिले राजस्थान की सीमा से लगते हैं सिरसा से लेकर नारनौल तक, सभी अर्धमरुस्थलीय हैं। मैंने हिसार से यात्रा शुरू की थी। लगातार पश्चिम की ओर बढ रहा हूं। है तो अभी भी अर्धमरुस्थलीय ही लेकिन अब रेत की मात्रा बढने लगी है। ज्यादातर खेत जुते हुए हैं, कुछ बो रखा है। कहीं भी पानी के पाइप नहीं दिखे यानी आजकल खेतों में पानी की आवश्यकता नहीं। क्या हो सकता है? गेहूं? शायद हां। कहीं कहीं कपास भी दिखी।
रतनगढ के बाद लोहा, पडिहारा, तालछापर, सुजानगढ, जसवंतगढ, लाडनूं, बालसमन्द, सांवराद, डीडवाना, मारवाड बालिया, खुनखुना, पीरवा, छोटी खाटू, खाटू और किरोदा के बाद डेगाना जंक्शन आता है। तालछापर में अभयारण्य है। बडे बडे झाड जंगल नहीं हैं यहां। मात्र रेत और कुछ कंटीली झाडियां ही हैं। हिरणों की कुछ प्रजातियां निवास करती हैं। तेंदुआ तो सर्वव्यापी है ही। और दूसरा कौन सा जानवर हो सकता है? छोटी खाटू के पास एक पथरीली पहाडी दिखाई दी। इस पर एक मन्दिर बना है। खाटू वैसे भी कृष्ण भक्तों का तीर्थ है- खाटू श्याम।
डेगाना तक पहुंचते पहुंचते बारह बज गये थे। वातावरण में गर्मी बहुत बढ गई थी। अब तक जहां धूप प्यारी लग रही थी, अब इससे बचने में भलाई दिखने लगी। डेगाना में जयपुर से आने वाली लाइन मिल जाती है और आगे जोधपुर की तरफ बढ चलती है। हम इसी जोधपुर वाली लाइन पर चलेंगे।
डेगाना पहुंचते ही मेरा काम खत्म हो गया। बहुत समय पहले जयपुर-जोधपुर लाइन पर पैसेंजर में यात्रा कर चुका हूं। यह लाइन मेरे पैसेंजर नक्शे में आ चुकी है। आज की इस यात्रा का उद्देश्य हिसार-डेगाना लाइन को अपने नक्शे में जोडना था। अब मेडता रोड चलते हैं, अभी मेडता सिटी वाली लाइन भी नक्शे में आनी बाकी है।
डेगाना के बाद जालसू नानक, जालसू, रेन, खेडूली के बाद मेडता रोड आता है। जालसू में गाडी काफी देर खडी रही। यहां जोधपुर से आने वाली मरुधर एक्सप्रेस और जोधपुर-भोपाल पैसेंजर निकलीं। इसके बाद रेन में तो हद ही हो गई। जिस तेलगाडी को हमने डेगाना में पीछे छोडा था, वह अब बराबर में आ खडी हुई। एक घण्टे तक यहीं खडी रही, ना सामने से कोई गाडी आई, ना पीछे से। अवश्य कुछ मामला गडबड है, नहीं तो यहां सिंगल लाइन और अच्छा खासा ट्रैफिक होने के बावजूद भी गाडियां लेट नहीं होतीं। बाद में पता चला कि रेन और खेडूली के बीच में ट्रैक की मरम्मत का कार्य चल रहा था।
सवा दो बजे मेडता रोड पहुंचे। यहां बीकानेर से आने वाली लाइन मिल जाती है। मैं यहीं उतर गया। प्रशान्त को फोन किया तो पता चला कि वो नहीं आया है।


1. हिसार से मेडता रोड पैसेंजर ट्रेन यात्रा
2. मेडता रोड से मेडता सिटी रेलबस यात्रा




Comments

  1. इतना उन्मुक्त हो लहलहायेंगे तो बकरी हाथ भी चाट जायेगी, रोचक वृत्तान्त।

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  2. बकरी ने लाली पाप समझ कर आप की ऑगुली चुस डाली होगी
    ओर नीरज भाई ये किसके सिर मे क्रिकेट का मैदान बना है

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  3. कभी तेरह - चौदह तो कभी पच्चीस - छब्बीस ......... कुछ लेते क्यों नहीं नीरज बाबु .........!!!!

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  4. बकरी ने सोचा ये अच्छा मौका है बदला लेने का, ये साले इंसान सदियों से बकरियां खा रहे हैं आज एक बकरी इंसान को खाएगी, बदले की तीव्र भावना से जैसे ही बकरी ने इस मानव की उंगली को मुंह में लिया तभी आकाशवाणी हुई - ए बकरी तु गलत इंसान से बदला लेने जा रही है, ये इंसान बकरी तो क्या किसी भी जानवर का मांस नहीं खाता और .............बकरी ने अपना विचार त्याग दिया और अपने रास्ते चल दी ........

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  5. "छोटी खाटू के पास एक पथरीली पहाडी दिखाई दी। इस पर एक मन्दिर बना है। खाटू वैसे भी कृष्ण भक्तों का तीर्थ है- खाटू श्याम।"
    नीरज भाई , छोटी खाटू मेरा ननिहाल है। लेकिन खाटू श्यामजी वाली 'खाटू ' यह नहीं है , वह तो सीकर जिले में रींगस के पास है। और जो पहाड़ी पर फोटो दिख रहा है ना , वह करणी माता का है।
    कभी बीकानेर होकर आये तो महमान नवाजी का सौभाग्य दें।

    Govind.rajbai.org

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

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इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब