मेरठ की स्थापना किसने की, कब की? काफी दिनों से ज्ञात करने की कोशिश में था। लेकिन एक बात तो तय है कि मेरठ रावण की ससुराल रहा है। रावण के ससुर का नाम था- मयराष्ट्र। यही नाम बाद में बिगड़ कर मेरठ हो गया।
रावण भी मेरठ से लगभग सत्तर किलोमीटर दूर बिसरख गाँव का रहने वाला था। यह आजकल नोयडा के पास है। गाजियाबाद के पुराने बस अड्डे से नियमित बस सर्विस है। इस गाँव में आज भी दशहरा नहीं मनाया जाता। यह एक नीचे से टीले पर बसा हुआ है। अगर उस टीले की खुदाई करते हैं तो रामायण कालीन शस्त्र निकलते हैं।
अब आते हैं असली बात पर यानी हस्तिनापुर। मैंने कईयों से यह सुना है कि हस्तिनापुर गंगा यमुना के बीच के दोआब को कहते हैं। लेकिन बहुत कम लोगों को यह मालूम है कि हस्तिनापुर मेरठ जिले में है। यह मवाना तहसील के अंतर्गत आता है।
हस्तिनापुर जाने के लिए मेरठ से पच्चीस किलोमीटर दूर मवाना जाना पड़ेगा। हालाँकि मेरठ से सीधे हस्तिनापुर की बस सर्विस भी है। मवाना से प्राइवेट बसें चलती हैं। जो घंटे भर में हस्तिनापुर पहुँचा देती हैं। मवाना से दस किलोमीटर आगे बिजनौर रोड पर गणेशपुर गाँव पड़ता है। यहीं से दाहिने को हस्तिनापुर सात आठ किलोमीटर है। पहले हस्तिनापुर गाँव है, फ़िर प्रसिद्द जैन तीर्थ जम्बूद्वीप।
हस्तिनापुर में दो मोहल्ले हैं। सड़क के एक ओर पाण्डवान जबकि दूसरी ओर कौरवान। यहाँ पर एक काफी बड़ा टीला है - पांडव टीला, जिसके बारे में कहा जाता है कि यही महाभारत कालीन राजमहल है। इस टीले की खुदाई अब प्रतिबंधित है। इस पर एक कुआ भी है जहाँ पर द्रोपदी नहाती थी। इसका नाम भी द्रोपदी कुंड है। इस पर आज भी प्राचीन ईंटें दिखाई दे जाती हैं। यहाँ से आठ किलोमीटर दूरी पर गंगा बहती है।
कालांतर में जब गंगा में बाढें अधिक आने लगी तो पांडवों ने एक ओर गाँव बसाया- परीक्षितगढ़। इसका नाम अर्जुन के पौत्र, अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित के नाम पर रखा गया।
मेरठ से पैंतीस किलोमीटर दूर बरनावा है। यही महाभारत कालीन लाक्षाग्रह है। लाक्षाग्रह आज भी ऐसा ही है, जैसा कि जलने के बाद हो गया था। यहाँ से एक सुरंग भी निकलती है, जो हिंडन नदी के किनारे पर खुलती है। पांडव इसी सुरंग के रास्ते जलते महल से सुरक्षित बाहर निकल गए थे। बरनावा जाने के लिए मेरठ से शामली रोड होते हुए भूनी चौराहे से बरनावा रोड पकड़नी पड़ेगी। इसी शामली रोड पर मेरा गाँव भी है।
जब श्रीकृष्ण जी संधि का प्रस्ताव लेकर दुर्योधन के पास आए थे तो दुर्योधन ने कृष्ण का यह कहकर अपमान कर दिया था कि "युद्ध के बिना सुई की नोक के बराबर भी जमीन नहीं मिलेगी।" इस अपमान की वजह से कृष्ण ने दुर्योधन के यहाँ खाना भी नहीं खाया था। वे गए थे महामुनि विदुर के आश्रम में। विदुर का आश्रम आज गंगा के उस पार बिजनौर जिले में पड़ता है। वहां पर विदुर जी ने कृष्ण को बथुवे का साग खिलाया था। आज भी इस क्षेत्र में बथुवा बहुतायत से उगता है।
वैसे तो मैं इन जगहों में से केवल हस्तिनापुर ही गया हूँ। हमारा एनसीसी का कैम्प लगा था हस्तिनापुर में। एक दिन घूमने का प्रोग्राम था, कि किसी कैडेट ने एक पर्यटक लडकी को छेड़ दिया। उसने शिकायत अधिकारियों से कर दी। अब कोई ये बताने से तो रहा कि किसने छेडी थी, बस जनवरी की कडाके की ठण्ड में हमें पूरे हस्तिनापुर का चक्कर लगाना पड़ गया था, हाथ ऊपर करके दौड़ते हुए। बस तभी देख लिया था हस्तिनापुर को थोड़ा बहुत, वैसे उस दिन कोहरा भी बहुत था।
ओर हाँ एक दिन पांडव टीले पर जाकर फावडे से सफाई भी की थी।
मेरठ - 1857
आज बात करते हैं उस घटना की जिसके कारण मेरठ जाना जाता है। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का जनक। मेरठ में 10 मई को ही बगावत हो गई थी और 11 मई को बागी सिपाहियों ने दिल्ली लाल किले पर जाकर बहादुर शाह जफ़र को वापस गद्दी पर बैठा दिया। अब बात करते हैं विस्तार से--
24 अप्रैल 1857, मेरठ परेड ग्राउंड में रोजाना की तरह परेड चल रही थी। आज 90 सिपाहियों को नए कारतूस बांटे जाने थे। कर्नल जॉर्ज स्मिथ बहुत ही जिद्दी और मूडी था। इन नब्बे सिपाहियों में से हिंदू मुसलमान लगभग बराबर संख्या में थे। ये अफवाह तो सब जगह फैली थी कि नए कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी होती है। इसलिए पाँच सिपाहियों को छोड़कर सभी ने कारतूस लेने से इनकार कर दिया। अपने अफसर की आज्ञा न मानने के कारण इन 85 सिपाहियों को दस साल की कठोर कारावास की सजा हुई।
9 मई को परेड ग्राउंड में सभी सजायाफ्ता सिपाहियों की पेशी हुई। सभी की वर्दी उतरवाई गई और मैडल छीन लिए गए। इन्हे बेडियों में डालकर सरे बाज़ार जेल ले जाया गया। जो सिपाही जेल नहीं गए, यानी जिन्होंने कारतूस ले लिए थे, उनकी पूरे मेरठ में थू थू हुई। इससे उन सिपाहियों के खून में भी बुलबुले से उठने शुरू हुए।
10 मई 1857 । भारतीय इतिहास का ऐतिहासिक दिन। सुबह सुबह ही अफवाह फ़ैल गई कि आज बाकी बचे सिपाहियों से भी हथियार छीन लिए जायेंगे। आज रविवार था। सभी अंग्रेज अफसर अपने परिवार के साथ मौज मस्ती मना रहे थे। उधर मेरठ छावनी के सिपाहियों ने शस्त्रागार पर हमला करके हथियार लूट लिए। इसके बाद उन्होंने जेल में बंद अपने सभी साथियों को आजाद कर लिया।
अब सभी सिपाहियों और आजाद कैदियों ने मेरठ शहर और छावनी में जो भी अंग्रेज दिखा, उसे मौत के घाट उतार दिया। आस पास के गावों से भी लोग बाग़ इस फसाद में शामिल हो गए। जिन्होंने भी इन को समझाने की कोशिश की, वो भी मार डाला गया। अब अंग्रेजों ने योजना बनाई कि रात को तोप का प्रयोग करके सभी बागियों को मार डाला जाए। लेकिन रात होने तक सभी सिपाही मेरठ को छोड़कर दिल्ली की और कूच कर चुके थे।
ये बागी परंपरागत मोदीनगर, गाजियाबाद वाले रास्ते से नहीं गए, बल्कि बडौत, बागपत होते हुए दिल्ली पहुंचे। रास्ते में जो भी गाँव पड़े, ग्रामीण इस जुलूस में जुड़ते चले गए। आगे दिल्ली में क्या हुआ, ये तो सभी को मालूम है।
कहते हैं कि एक फ़कीर था जो छावनी क्षेत्र में घूम घूम कर सिपाहियों में जोश का जज्बा पैदा करता था। जिस कुँए पर बैठकर वो सिपाहियों को पानी पिलाया करता था, वो आज भी है। छावनी क्षेत्र में ही मेरठ का सबसे प्रसिद्व मन्दिर है। इसे काली पल्टन का मन्दिर भी कहते है। वैसे इसका नाम औघड़नाथ मन्दिर है। अंग्रेज भारतीय सिपाहियों को काली पल्टन (काली फौज) कहते थे। आज इसका सारा इंतजाम सेना के हाथों में ही है।
कुछ लोग कहते हैं कि मंगल पांडे का सम्बन्ध भी मेरठ से था। लेकिन ये ग़लत है। 29 मार्च 1857 को मंगल पांडे ने कलकत्ता के पास बैरकपुर में एक अंग्रेज अफसर लेफ्टिनेंट बाग़ को घायल कर दिया था। बाद में मंगल पांडे को गिरफ्तार करके 8 अप्रैल को फांसी दे दी गई। इस के डेढ़ महीने बाद मेरठ में विद्रोह हुआ।
पिछले साल 10 मई 2007 को उस बगावत की 150 वीं वर्षगाँठ पर मेरठ से दिल्ली तक रैली का आयोजन किया गया। यह रैली मेरठ के विक्टोरिया पार्क से शुरू होकर दिल्ली में लाल किले पर संपन्न हुई थी।
मॅढिया प्रदेश के लोग आप के खिलाफ पी.आई.एल लगा देंगे. मंदसौर को रावण का ससुराल माना जाता रहा है. मंदोदरी यहीं कि बताई जाती है. रावण एम.पी. वालों का दामाद है. उसका एक मंदिर भी वहाँ है ऐसा बताया जाता है.अब हुई ना विवाद की बात. सुंदर लेख के लिए आभार.
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अच्छी खुदाई कर दी!!!!!!!!
ReplyDeleteवैसे हस्तिना्पुर जैन तीर्थ भी है... शुक्रिया.
ReplyDeleteअच्छा, मन्दोदरी तो बताते हैं मण्डोर (जोधपुर के पास) की थी। वैसे मेरठ का ऐतिहासिक/माइथॉलॉजिकल महत्व बहुत है, इसमें शंका नहीं।
ReplyDeleteअच्छा लेख...जानकारी से भरा हुआ...थोड़ा बहुत आइडिया था, लेकिन इतना नहीं कि अभी भी पुरानी ईंटें वहां पर हैं...और सुरंग भी। अगर हो सके तो फोटो भी लगांए।
ReplyDeleteबहुत अच्छा लेख।बधाई। विदुर कुटी घूमना हो तो मेरे पास। कही सेंधबार भी है, जहां दोणाचार्य न कोरव पांडवों को युद्धकला का प्रशिक्षण दिया ।
ReplyDeleteरावण की ससुराल मंदसौर हो या मंडोर, हमारे मेरठ में यह प्रचलित है कि रावण के ससुर मयराष्ट्र के नाम पर ही मेरठ नाम पड़ा. मुझे इतनी जानकारी नहीं है कि उनका मंदसौर या मंडोर से क्या सम्बन्ध है. आपका जानकारी बढ़ने के लिए शुक्रिया. अब मैं मंदसौर और मंडोर का इतिहास भी खंगाल डालूँगा. लेकिन हस्तिनापुर तो निर्विवाद मेरठ में ही है. इसमें कोई शक नहीं.
ReplyDelete@RANJAN,
जी हाँ, हस्तिनापुर जैन तीर्थ भी है. हस्तिनापुर में हिन्दू कार्यक्रम उतने नहीं होते, जितने कि जैन कार्यक्रम होते है. आये दिन कोई ना कोई जैन पर्व चलता ही रहता है.
@SHUSHANT JHA,
जैसा कि लेख के लास्ट में लिखा है कि हस्तिनापुर के अलावा मैं महाभारत कालीन किसी भी जगह पर नहीं गया हूँ, इसलिए मेरे पास कहीं के भी फोटो नहीं हैं. हाँ जब भी जाऊँगा, फोटो जरूर ले लूँगा.
Jankari ko achchhi lagi par rawan waha ka hai ye ajeeb lag raha hai
ReplyDeleteJankari ko achchhi lagi par rawan waha ka hai ye ajeeb lag raha hai
ReplyDeleteSir kitabo me pada hai ki Mandodari Madhya Pradesh ke mandsour ki thi is ke name per mandsour pada.......
ReplyDeleteप्राचीन ऐतिहासिक नगरी हस्तिनापुर मेरठ में पाण्डव टीला पर स्थित प्राचीन जयंती माता शक्ति पीठ मंदिर है। जो 51 शक्ति पीठो में से 1 है। यहाँ पर कुमुड़ेश्वर भैरव शक्ति विराजमान है। जय जयंती माता की जय हो
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