Skip to main content

मेरठ - हस्तिनापुर से 1857 तक

मेरठ की स्थापना किसने की, कब की? काफी दिनों से ज्ञात करने की कोशिश में था। लेकिन एक बात तो तय है कि मेरठ रावण की ससुराल रहा है। रावण के ससुर का नाम था- मयराष्ट्र। यही नाम बाद में बिगड़ कर मेरठ हो गया।
रावण भी मेरठ से लगभग सत्तर किलोमीटर दूर बिसरख गाँव का रहने वाला था। यह आजकल नोयडा के पास है। गाजियाबाद के पुराने बस अड्डे से नियमित बस सर्विस है। इस गाँव में आज भी दशहरा नहीं मनाया जाता। यह एक नीचे से टीले पर बसा हुआ है। अगर उस टीले की खुदाई करते हैं तो रामायण कालीन शस्त्र निकलते हैं।
अब आते हैं असली बात पर यानी हस्तिनापुर। मैंने कईयों से यह सुना है कि हस्तिनापुर गंगा यमुना के बीच के दोआब को कहते हैं। लेकिन बहुत कम लोगों को यह मालूम है कि हस्तिनापुर मेरठ जिले में है। यह मवाना तहसील के अंतर्गत आता है।

हस्तिनापुर जाने के लिए मेरठ से पच्चीस किलोमीटर दूर मवाना जाना पड़ेगा। हालाँकि मेरठ से सीधे हस्तिनापुर की बस सर्विस भी है। मवाना से प्राइवेट बसें चलती हैं। जो घंटे भर में हस्तिनापुर पहुँचा देती हैं। मवाना से दस किलोमीटर आगे बिजनौर रोड पर गणेशपुर गाँव पड़ता है। यहीं से दाहिने को हस्तिनापुर सात आठ किलोमीटर है। पहले हस्तिनापुर गाँव है, फ़िर प्रसिद्द जैन तीर्थ जम्बूद्वीप।
हस्तिनापुर में दो मोहल्ले हैं। सड़क के एक ओर पाण्डवान जबकि दूसरी ओर कौरवान। यहाँ पर एक काफी बड़ा टीला है - पांडव टीला, जिसके बारे में कहा जाता है कि यही महाभारत कालीन राजमहल है। इस टीले की खुदाई अब प्रतिबंधित है। इस पर एक कुआ भी है जहाँ पर द्रोपदी नहाती थी। इसका नाम भी द्रोपदी कुंड है। इस पर आज भी प्राचीन ईंटें दिखाई दे जाती हैं। यहाँ से आठ किलोमीटर दूरी पर गंगा बहती है।
कालांतर में जब गंगा में बाढें अधिक आने लगी तो पांडवों ने एक ओर गाँव बसाया- परीक्षितगढ़। इसका नाम अर्जुन के पौत्र, अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित के नाम पर रखा गया।
मेरठ से पैंतीस किलोमीटर दूर बरनावा है। यही महाभारत कालीन लाक्षाग्रह है। लाक्षाग्रह आज भी ऐसा ही है, जैसा कि जलने के बाद हो गया था। यहाँ से एक सुरंग भी निकलती है, जो हिंडन नदी के किनारे पर खुलती है। पांडव इसी सुरंग के रास्ते जलते महल से सुरक्षित बाहर निकल गए थे। बरनावा जाने के लिए मेरठ से शामली रोड होते हुए भूनी चौराहे से बरनावा रोड पकड़नी पड़ेगी। इसी शामली रोड पर मेरा गाँव भी है।
जब श्रीकृष्ण जी संधि का प्रस्ताव लेकर दुर्योधन के पास आए थे तो दुर्योधन ने कृष्ण का यह कहकर अपमान कर दिया था कि "युद्ध के बिना सुई की नोक के बराबर भी जमीन नहीं मिलेगी।" इस अपमान की वजह से कृष्ण ने दुर्योधन के यहाँ खाना भी नहीं खाया था। वे गए थे महामुनि विदुर के आश्रम में। विदुर का आश्रम आज गंगा के उस पार बिजनौर जिले में पड़ता है। वहां पर विदुर जी ने कृष्ण को बथुवे का साग खिलाया था। आज भी इस क्षेत्र में बथुवा बहुतायत से उगता है।
वैसे तो मैं इन जगहों में से केवल हस्तिनापुर ही गया हूँ। हमारा एनसीसी का कैम्प लगा था हस्तिनापुर में। एक दिन घूमने का प्रोग्राम था, कि किसी कैडेट ने एक पर्यटक लडकी को छेड़ दिया। उसने शिकायत अधिकारियों से कर दी। अब कोई ये बताने से तो रहा कि किसने छेडी थी, बस जनवरी की कडाके की ठण्ड में हमें पूरे हस्तिनापुर का चक्कर लगाना पड़ गया था, हाथ ऊपर करके दौड़ते हुए। बस तभी देख लिया था हस्तिनापुर को थोड़ा बहुत, वैसे उस दिन कोहरा भी बहुत था।
ओर हाँ एक दिन पांडव टीले पर जाकर फावडे से सफाई भी की थी।

मेरठ - 1857
आज बात करते हैं उस घटना की जिसके कारण मेरठ जाना जाता है। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का जनक। मेरठ में 10 मई को ही बगावत हो गई थी और 11 मई को बागी सिपाहियों ने दिल्ली लाल किले पर जाकर बहादुर शाह जफ़र को वापस गद्दी पर बैठा दिया। अब बात करते हैं विस्तार से--
24 अप्रैल 1857, मेरठ परेड ग्राउंड में रोजाना की तरह परेड चल रही थी। आज 90 सिपाहियों को नए कारतूस बांटे जाने थे। कर्नल जॉर्ज स्मिथ बहुत ही जिद्दी और मूडी था। इन नब्बे सिपाहियों में से हिंदू मुसलमान लगभग बराबर संख्या में थे। ये अफवाह तो सब जगह फैली थी कि नए कारतूसों में गाय और सूअर की चर्बी होती है। इसलिए पाँच सिपाहियों को छोड़कर सभी ने कारतूस लेने से इनकार कर दिया। अपने अफसर की आज्ञा न मानने के कारण इन 85 सिपाहियों को दस साल की कठोर कारावास की सजा हुई।
9 मई को परेड ग्राउंड में सभी सजायाफ्ता सिपाहियों की पेशी हुई। सभी की वर्दी उतरवाई गई और मैडल छीन लिए गए। इन्हे बेडियों में डालकर सरे बाज़ार जेल ले जाया गया। जो सिपाही जेल नहीं गए, यानी जिन्होंने कारतूस ले लिए थे, उनकी पूरे मेरठ में थू थू हुई। इससे उन सिपाहियों के खून में भी बुलबुले से उठने शुरू हुए।
10 मई 1857 । भारतीय इतिहास का ऐतिहासिक दिन। सुबह सुबह ही अफवाह फ़ैल गई कि आज बाकी बचे सिपाहियों से भी हथियार छीन लिए जायेंगे। आज रविवार था। सभी अंग्रेज अफसर अपने परिवार के साथ मौज मस्ती मना रहे थे। उधर मेरठ छावनी के सिपाहियों ने शस्त्रागार पर हमला करके हथियार लूट लिए। इसके बाद उन्होंने जेल में बंद अपने सभी साथियों को आजाद कर लिया।
अब सभी सिपाहियों और आजाद कैदियों ने मेरठ शहर और छावनी में जो भी अंग्रेज दिखा, उसे मौत के घाट उतार दिया। आस पास के गावों से भी लोग बाग़ इस फसाद में शामिल हो गए। जिन्होंने भी इन को समझाने की कोशिश की, वो भी मार डाला गया। अब अंग्रेजों ने योजना बनाई कि रात को तोप का प्रयोग करके सभी बागियों को मार डाला जाए। लेकिन रात होने तक सभी सिपाही मेरठ को छोड़कर दिल्ली की और कूच कर चुके थे।
ये बागी परंपरागत मोदीनगर, गाजियाबाद वाले रास्ते से नहीं गए, बल्कि बडौत, बागपत होते हुए दिल्ली पहुंचे। रास्ते में जो भी गाँव पड़े, ग्रामीण इस जुलूस में जुड़ते चले गए। आगे दिल्ली में क्या हुआ, ये तो सभी को मालूम है।
कहते हैं कि एक फ़कीर था जो छावनी क्षेत्र में घूम घूम कर सिपाहियों में जोश का जज्बा पैदा करता था। जिस कुँए पर बैठकर वो सिपाहियों को पानी पिलाया करता था, वो आज भी है। छावनी क्षेत्र में ही मेरठ का सबसे प्रसिद्व मन्दिर है। इसे काली पल्टन का मन्दिर भी कहते है। वैसे इसका नाम औघड़नाथ मन्दिर है। अंग्रेज भारतीय सिपाहियों को काली पल्टन (काली फौज) कहते थे। आज इसका सारा इंतजाम सेना के हाथों में ही है।
कुछ लोग कहते हैं कि मंगल पांडे का सम्बन्ध भी मेरठ से था। लेकिन ये ग़लत है। 29 मार्च 1857 को मंगल पांडे ने कलकत्ता के पास बैरकपुर में एक अंग्रेज अफसर लेफ्टिनेंट बाग़ को घायल कर दिया था। बाद में मंगल पांडे को गिरफ्तार करके 8 अप्रैल को फांसी दे दी गई। इस के डेढ़ महीने बाद मेरठ में विद्रोह हुआ।
पिछले साल 10 मई 2007 को उस बगावत की 150 वीं वर्षगाँठ पर मेरठ से दिल्ली तक रैली का आयोजन किया गया। यह रैली मेरठ के विक्टोरिया पार्क से शुरू होकर दिल्ली में लाल किले पर संपन्न हुई थी।

Comments

  1. मॅढिया प्रदेश के लोग आप के खिलाफ पी.आई.एल लगा देंगे. मंदसौर को रावण का ससुराल माना जाता रहा है. मंदोदरी यहीं कि बताई जाती है. रावण एम.पी. वालों का दामाद है. उसका एक मंदिर भी वहाँ है ऐसा बताया जाता है.अब हुई ना विवाद की बात. सुंदर लेख के लिए आभार.
    http://mallar.wordpress.com

    ReplyDelete
  2. वैसे हस्तिना्पुर जैन तीर्थ भी है... शुक्रिया.

    ReplyDelete
  3. अच्छा, मन्दोदरी तो बताते हैं मण्डोर (जोधपुर के पास) की थी। वैसे मेरठ का ऐतिहासिक/माइथॉलॉजिकल महत्व बहुत है, इसमें शंका नहीं।

    ReplyDelete
  4. अच्छा लेख...जानकारी से भरा हुआ...थोड़ा बहुत आइडिया था, लेकिन इतना नहीं कि अभी भी पुरानी ईंटें वहां पर हैं...और सुरंग भी। अगर हो सके तो फोटो भी लगांए।

    ReplyDelete
  5. बहुत अच्छा लेख।बधाई। विदुर कुटी घूमना हो तो मेरे पास। कही सेंधबार भी है, जहां दोणाचार्य न कोरव पांडवों को युद्धकला का प्रशिक्षण दिया ।

    ReplyDelete
  6. रावण की ससुराल मंदसौर हो या मंडोर, हमारे मेरठ में यह प्रचलित है कि रावण के ससुर मयराष्ट्र के नाम पर ही मेरठ नाम पड़ा. मुझे इतनी जानकारी नहीं है कि उनका मंदसौर या मंडोर से क्या सम्बन्ध है. आपका जानकारी बढ़ने के लिए शुक्रिया. अब मैं मंदसौर और मंडोर का इतिहास भी खंगाल डालूँगा. लेकिन हस्तिनापुर तो निर्विवाद मेरठ में ही है. इसमें कोई शक नहीं.

    @RANJAN,
    जी हाँ, हस्तिनापुर जैन तीर्थ भी है. हस्तिनापुर में हिन्दू कार्यक्रम उतने नहीं होते, जितने कि जैन कार्यक्रम होते है. आये दिन कोई ना कोई जैन पर्व चलता ही रहता है.

    @SHUSHANT JHA,
    जैसा कि लेख के लास्ट में लिखा है कि हस्तिनापुर के अलावा मैं महाभारत कालीन किसी भी जगह पर नहीं गया हूँ, इसलिए मेरे पास कहीं के भी फोटो नहीं हैं. हाँ जब भी जाऊँगा, फोटो जरूर ले लूँगा.

    ReplyDelete
  7. Jankari ko achchhi lagi par rawan waha ka hai ye ajeeb lag raha hai

    ReplyDelete
  8. Jankari ko achchhi lagi par rawan waha ka hai ye ajeeb lag raha hai

    ReplyDelete
  9. Sir kitabo me pada hai ki Mandodari Madhya Pradesh ke mandsour ki thi is ke name per mandsour pada.......

    ReplyDelete
  10. प्राचीन ऐतिहासिक नगरी हस्तिनापुर मेरठ में पाण्डव टीला पर स्थित प्राचीन जयंती माता शक्ति पीठ मंदिर है। जो 51 शक्ति पीठो में से 1 है। यहाँ पर कुमुड़ेश्वर भैरव शक्ति विराजमान है। जय जयंती माता की जय हो

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

लद्दाख बाइक यात्रा- 2 (दिल्ली से जम्मू)

यात्रा आरम्भ करने से पहले एक और बात कर लेते हैं। परभणी, महाराष्ट्र के रहने वाले निरंजन साहब पिछले दो सालों से साइकिल से लद्दाख जाने की तैयारियां कर रहे थे। लगातार मेरे सम्पर्क में रहते थे। उन्होंने खूब शारीरिक तैयारियां की। पश्चिमी घाट की पहाडियों पर फुर्र से कई-कई किलोमीटर साइकिल चढा देते थे। पिछले साल तो वे नहीं जा सके लेकिन इस बार निकल पडे। ट्रेन, बस और सूमो में यात्रा करते-करते श्रीनगर पहुंचे और अगले ही दिन कारगिल पहुंच गये। कहा कि कारगिल से साइकिल यात्रा शुरू करेंगे। खैर, निरंजन साहब आराम से तीन दिनों में लेह पहुंच गये। यह जून का पहला सप्ताह था। रोहतांग तभी खुला ही था, तंगलंग-ला और बाकी दर्रे तो खुले ही रहते हैं। बारालाचा-ला बन्द था। लिहाजा लेह-मनाली सडक भी बन्द थी। पन्द्रह जून के आसपास खुलने की सम्भावना थी। उनका मुम्बई वापसी का आरक्षण अम्बाला छावनी से 19 जून की शाम को था। इसका अर्थ था कि उनके पास 18 जून की शाम तक मनाली पहुंचने का समय था। मैंने मनाली से लेह साइकिल यात्रा चौदह दिनों में पूरी की थी। मुझे पहाडों पर साइकिल चलाने का अभ्यास नहीं था। फिर मनाली लगभग 2000 मीटर पर है, ले...

लद्दाख बाइक यात्रा- 6 (श्रीनगर-सोनमर्ग-जोजीला-द्रास)

11 जून 2015 सुबह साढे सात बजे उठे। मेरा मोबाइल तो बन्द ही था और कोठारी साहब का पोस्ट-पेड नम्बर हमारे पास नहीं था। पता नहीं वे कहां होंगे? मैं होटल के रिसेप्शन पर गया। उसे अपनी सारी बात बताई। उससे मोबाइल मांगा ताकि अपना सिम उसमें डाल लूं। मुझे उम्मीद थी की कोठारी साहब लगातार फोन कर रहे होंगे। पन्द्रह मिनट भी सिम चालू रहेगा तो फोन आने की बहुत प्रबल सम्भावना थी। लेकिन उसने मना कर दिया। मैंने फिर उसका फोन ही मांगा ताकि नेट चला सकूं और कोठारी साहब को सन्देश भेज सकूं। काफी ना-नुकुर के बाद उसने दो मिनट के लिये अपना मोबाइल मुझे दे दिया। बस, यही एक गडबड हो गई। होटल वाले का व्यवहार उतना अच्छा नहीं था और मुझे उससे प्रार्थना करनी पड रही थी। यह मेरे स्वभाव के विपरीत था। अब जब उसने अपना मोबाइल मुझे दे दिया तो मैं चाहता था कि जल्द से जल्द अपना काम करके उसे मोबाइल लौटा दूं। इसी जल्दबाजी में मैंने फेसबुक खोला और कोठारी साहब को सन्देश भेजा- ‘सर, नौ साढे नौ बजे डलगेट पर मिलो। आज द्रास रुकेंगे।’ जैसे ही मैसेज गया, मैंने लॉग आउट करके मोबाइल वापस कर दिया। इसी जल्दबाजी में मैं यह देखना भूल गया कि कोठारी साहब...

डायरी के पन्ने-32

ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। इस बार डायरी के पन्ने नहीं छपने वाले थे लेकिन महीने के अन्त में एक ऐसा घटनाक्रम घटा कि कुछ स्पष्टीकरण देने के लिये मुझे ये लिखने पड रहे हैं। पिछले साल जून में मैंने एक पोस्ट लिखी थी और फिर तीन महीने तक लिखना बन्द कर दिया। फिर अक्टूबर में लिखना शुरू किया। तब से लेकर मार्च तक पूरे छह महीने प्रति सप्ताह तीन पोस्ट के औसत से लिखता रहा। मेरी पोस्टें अमूमन लम्बी होती हैं, काफी ज्यादा पढने का मैटीरियल होता है और चित्र भी काफी होते हैं। एक पोस्ट को तैयार करने में औसतन चार घण्टे लगते हैं। सप्ताह में तीन पोस्ट... लगातार छह महीने तक। ढेर सारा ट्रैफिक, ढेर सारी वाहवाहियां। इस दौरान विवाह भी हुआ, वो भी दो बार। आप पढते हैं, आपको आनन्द आता है। लेकिन एक लेखक ही जानता है कि लम्बे समय तक नियमित ऐसा करने से क्या होता है। थकान होने लगती है। वाहवाहियां अच्छी नहीं लगतीं। रुक जाने को मन करता है, विश्राम करने को मन करता है। इस बारे में मैंने अपने फेसबुक पेज पर लिखा भी था कि विश्राम करने की इच्छा हो रही है। लगभग सभी मित्रों ने इस बात का समर्थन किया था।