Skip to main content

लखनऊ से बरेली मीटरगेज ट्रेन यात्रा

मुझे नई-नई रेलवे लाइनों पर घूमने का शौक है। करता ये हूं कि किसी भी लाइन पर सुबह को चलने वाली पैसेंजर गाडी पकड लेता हूं और बैठा रहता हूं, बैठा रहता हूं। 300 किलोमीटर तो आराम से कवर हो ही जाता है। कम से कम 50 नये स्टेशन भी हाथ लगते हैं। इनकी ऊंचाई लिख लेता हूं और फोटो तो खींचता ही हूं। इस साल का मकसद है कि छोटी लाइनों यानी मीटर और नैरो गेज को रौंदना। भारतीय रेलवे का मकसद है कि जितनी भी छोटी लाइनें है, सभी को बडा बनाना है, सिर्फ पांच लाइनों को छोडकर- कालका-शिमला, कांगडा रेल, दार्जीलिंग रेल, ऊटी रेल और मथेरान वाली रेल। जिस दिन मैंने यह खबर पढी, तभी से प्रतिज्ञा कर ली कि इनके बडे बनने से पहले ही इन्हें देख लेना है, इनपर घूम लेना है।
पिछले करीब दो महीनों से मैं मानसून की बाट देख रहा था। भयानक गर्मी में दिनभर ट्रेन में बैठे-बैठे लू और धूल कतई बर्दाश्त नहीं है। हमेशा की तरह दिक्कत आयी कि कौन सी लाइन रौंदनी है। दिमाग में दो लाइनें थीं- राजस्थान में जयपुर-सीकर-चुरू और सीकर-लोहारू तथा दूसरी यूपी में ऐशबाग-मैलानी-बरेली। ऐशबाग लखनऊ के बिल्कुल पास है, लखनऊ में ही है। कार्यक्रम बना कि किसी तरह शाम तक जयपुर/लखनऊ पहुंच जाना है, रात भर स्टेशन पर ही सोना है, फिर सुबह को ट्रेन पकड लेनी है। शाम तक बरेली/लोहारू आ जाना है और रात होने तक दिल्ली। लेकिन आखिरी क्षणों तक यह तय नहीं कर पाया कि जाऊं कहां।
बात दरअसल यह है कि मेरी लिस्ट में तब तक कुल मिलाकर 1563 स्टेशन थे। इनमें से 403 स्टेशन थे यूपी के और 397 स्टेशन थे राजस्थान के। जिस दिन से मैंने यह लिस्ट बनानी शुरू की है, यूपी हमेशा टॉप पर रहा है। यूपी से एक लगाव सा हो गया है। सोचता हूं कि बेचारा बडी मेहनत कर रहा है- शुरूआत में उत्तराखण्ड ने टक्कर दी थी, फिर एक टाइम हरियाणा का भी था और अब राजस्थान भयानक टक्कर दे रहा है। इसे लिस्ट में टॉप पर ही रहना चाहिये। अगर मैं जयपुर जाता हूं तो रींगस तक पहुंचते पहुंचते यूपी की बादशाहत खत्म हो जायेगी। इसकी बादशाहत बरकरार रहनी चाहिये, इसलिये जयपुर को कैंसिल करना पडा। लखनऊ चलना पडा नहीं तो दिल तो गुलाबी नगरी की तरफ था।
20 जून को गोमती एक्सप्रेस पकडी और सीधे लखनऊ। लखनऊ में बारिश हो रही थी। मैं चाहता भी यही था कि बारिश हो। इस गाडी में यह यात्रा बडी ही यादगार रही। बताऊंगा किसी दिन। लखनऊ में दो स्टेशन है बगल बगल में- एक लखनऊ जो उत्तर रेलवे का है और इसके बिल्कुल सामने ही लखनऊ जंक्शन जो है पूर्वोत्तर रेलवे का। पता नहीं इसे लखनऊ जंक्शन क्यों कहते हैं जबकि यह एक टर्मिनल स्टेशन है। इस स्टेशन पर आने वाली हर गाडी यहां से टर्मिनेट होती है। कभी किसी जमाने में यह मीटर गेज था। मोटे तौर पर बात यह है कि गोण्डा गोरखपुर जाने के लिये पूर्वोत्तर रेलवे और दिल्ली, कानपुर, वाराणसी, इलाहाबाद जाने के लिये उत्तर रेलवे। मुझे जाना था ऐशबाग जो गोरखपुर वाली लाइन पर पहला ही स्टेशन है। ऐशबाग की गाडी पूर्वोत्तर वाले लखनऊ से मिलती है।
रात थी तो सोने का टाइम भी था। दोनों स्टेशन छान मारे लेकिन लेटने लायक जगह नहीं मिली। बारिश ने काम खराब कर रखा था। फिर भी उत्तर रेलवे वाले लखनऊ पर जगह मिल गई। ऊपर पंखे चल रहे थे। हर दिशा में आदमी पडे थे, मैं भी एक संकरी सी जगह में घुसड गया। सुबह आंख खुली। अरे नहीं, आंख खुलवाई गई थी, नहीं तो क्या मजाल कि अपने आप खुलती। झाडू वाले की बडी मेहरबानी कि वो पांच बजे ही झाडू मारने आ गया। वैसे तो साढे चार का अलार्म भी लगाया था लेकिन हमेशा की तरह खुद बज-बजाकर शान्त हो गया। अलार्म से कभी आंख नहीं खुलती।
पूर्वोत्तर वाले लखनऊ से 5.20 पर गोण्डा पैसेंजर चलती है। मुझे इसे पकडकर ऐशबाग जाना था। वहां से 5.55 पर चलने वाली मीटर गेज की सीतापुर पैसेंजर पकडनी थी। जबकि मैं सोया था उत्तर रेलवे वाले लखनऊ पर। भागा-भागा पूर्वोत्तर वाले लखनऊ पर गया। टिकट की भयंकर लाइन। थोडी देर तो लगा रहा लाइन में लेकिन जब देखा कि गाडी का टाइम हो लिया है, टिकट का चक्कर छोडा और चढ लिया। मैंने अभी थोडी देर पहले बताया था कि यहां हर गाडी टर्मिनेट होती है तो जी यहां भी वही हो रहा था। गाडी जब प्लेटफार्म पर आई तो इंजन इस तरफ था। जाने के लिये इंजन की बदली होनी थी लेकिन मेरे गाडी में चढने तक इंजन का कहीं अता-पता ही नहीं था तो मैं वापस लाइन में लग लिया कि टिकट मिल जाये। मेरी यात्रा बरेली तक होनी थी और अगर मैं यही से बरेली का टिकट मांगता तो वो मुझे सीधे बडी लाइन का टिकट दे देता। बडी लाइन की दूरी मीटर गेज की लाइन से कम पडती है इसलिये मुझे मीटर गेज पर सफर करते हुए हमेशा चौकस रहना पडता कि कोई टिकट ना देख ले। फिर उस केस में टिकट का होना ना होना बराबर था क्योंकि पैनल्टी लगनी तय थी। कम दूरी का टिकट लेकर ज्यादा दूरी पर सफर नहीं कर सकते। टिकट हमेशा सही ट्रेन, सही क्लास के साथ साथ सही रूट का भी होना चाहिये।
इसलिये मैंने सीतापुर तक का टिकट मांगा। उसने मुझे ऐसे देखा जैसे उसकी छोरी का हाथ मांग लिया हो। बोला कि नहीं दूंगा- सीधी गाडी नहीं है। मैंने समझाना शुरू ही किया था गाडी चलती दिख गई। फिर तो छोडा टिकट का चक्कर और चढ लिया गाडी में। दस मिनट में उस बेचारी ने मुझे ऐशबाग पहुंचा दिया। 5.55 होने में अभी टाइम था, टिकट की लाइन भी नहीं थी। आराम से कहा कि बरेली तक छोटी लाइन का एक टिकट दे दो। बन्दे ने देखा तक नहीं और टिकट पकडा दिया।
ऐशबाग से चलकर लखनऊ सिटी और डालीगंज तक तो छोटी और बडी लाइनें साथ साथ हैं लेकिन इसके बाद अलग अलग हो जाती हैं। बडी लाइन चली जाती है गोरखपुर और छोटी लाइन जाती है सीतापुर। डालीगंज से आगे मोहिबुल्लापुर, बख्शी का तालाब, इटौंजा, अटरिया, मनवा, सिधौली, सुरैंचा, कमलापुर, बरी जलालपुर, खैराबाद अवध के बाद है सीतापुर। सीतापुर में बडी लाइन भी है। गाडी का सीतापुर पहुंचने का टाइम है 8.50 का लेकिन 9.00 बजे गाडी वहां पहुंची। यहां से 10.05 पर सीतापुर-मैलानी पैसेंजर चलती है। पहले ही अंदाजा लगा लिया था कि यही गाडी आगे मैलानी जायेगी और अंदाजा सही निकला। ऊपर वाली बर्थ पर कमर सीधी करने लेट गया। तभी गाडी हिली और मैंने गौर किया कि भीड काफी ज्यादा है और गाडी चल रही है। मैं तुरन्त उठा। टाइम देखा तो 10.10 हो चुके थे। कहां तो मैं मात्र कमर सीधी करने के लिये लेटा था और कहां अभी अभी एक घण्टे की नींद भी खींच ली। सीतापुर में तो मुझे कुछ खाना भी था, बेचारा भूखा रह गया।
सीतापुर से निकलकर भुर्जिहा बडा गांव, झरेकापुर, परसेहरामल, हरगांव, ओयल, कादीपुर सानी, खीरी टाउन, लखीमपुर पहुंचे। सीतापुर के बाद यही बडा स्टेशन है। और हो भी क्यों ना, आखिर जिला हेड क्वार्टर जो है। जिला है लखीमपुर खीरी। लखीमपुर और खीरी टाउन दो स्टेशन हैं और दोनों की दूरी चार किलोमीटर है। एक बात और बता रहा हूं कि यह जिला ऊत प्रदेश मतलब उत्तर प्रदेश का सबसे बडा जिला भी है- क्षेत्रफल के हिसाब से। दूसरी बात भी बता रहा हूं- गौर से पढना- ये बातें आसानी से पता नहीं चलतीं। दूसरी बात यह कि ऊत प्रदेश में मात्र एक ही राष्ट्रीय पार्क है बाकी सब अभयारण्य हैं। वो राष्ट्रीय पार्क है दुधवा नेशनल पार्क। यह भी लखीमपुर खीरी जिले में ही है।
तो भईया, यहां भी अपने खाने की आस अधूरी रह गई क्योंकि गाडी लेट होने लगी थी और उसे सही टाइम पर लाना जरूरी था। कुछ सेकण्डों के लिये गाडी रुकी और चल पडी। देवकली, फरधान, रजागंज, बहेलिया बुजुर्ग, गोला गोकरननाथ, बांकेगंज के बाद इस मार्ग के पहले जंक्शन मैलानी पहुंचे। इसका मैलानी पहुंचने का टाइम है 13.55 लेकिन जब यह वहां पहुंची तो 14.02 हो गये थे। नतीजा यह हुआ कि हमारी आंखों के सामने ही मैलानी से निकलने वाली बरेली पैसेंजर अपने निर्धारित समय 14.00 बजे निकल गई। एक तरफ तो यह गाडी मैलानी स्टेशन में प्रवेश कर रही थी, वही दूसरी तरफ हमसे मात्र सौ मीटर आगे बरेली पैसेंजर प्रस्थान कर चुकी थी। मेरी योजना उसी गाडी को पकडने की थी। मैं भागकर पकड भी सकता था लेकिन मेरा बैग दूसरे डिब्बे में था।
लेकिन जो होता है, अच्छा ही होता है। यहां अच्छा यह हुआ कि मुझे भरपेट खाने के लिये डेढ घण्टा मिल गया। 15.00 बजे गोण्डा-बरेली पैसेंजर आती है जो उस समय आधा घण्टा लेट थी। खाना तो मैंने आधे घण्टे में ही खा लिया था, अब एक घण्टे तक क्या करें। चलो, सोते हैं। एक मजेदार बात यह भी हुई कि मुझे पूरे स्टेशन पर बैठने की कोई जगह नहीं मिली, भीड जो थी। लेकिन लेटने की जगह मिल गई। लेटते ही फिर वही समस्या कि गाडी आने पर उठेगा कौन? हाथों और पैरों सहित ज्यादातर उपभोक्ताओं ने चेतावनी दे दी कि अगर दिमाग आपातकालीन सूचना नहीं भेजेगा तो हम उठने वाले नहीं हैं। दिमाग ने भी चेतावनी दे दी कि अगर उसके पास भी कोई खबर नहीं आई तो वो हाथों-पैरों को कोई सूचना नहीं देगा। अब दिमाग को कौन खबर दे? आंख बोली कि बिल्कुल नहीं खुलूंगी, कानों ने कहा कि नहीं सुनेंगे, नाक बोली कि कतई नहीं, जीभ बोली कि पेट भरा हुआ है और पांचवी खाल यानी त्वचा ने कहा कि बढिया मौसम है, हवा चल रही है, अगर पसीना आ जाये तो बताना सम्भव है। हाथ-पैर सहित ज्यादातर अंग दिमाग भरोसे होकर सुस्त पड गये। दिमाग ने अपना काम पांचों इंद्रियों पर छोड दिया। पांचों में खूब घमासान हुआ, आखिरकार चुनाव हुए और उसका नतीजा यह निकला कि कान गाडी के आने की खबर दिमाग को देगा। जैसे ही गाडी सीटी बजाते हुए प्लेटफार्म पर पहुंची, दिमाग के पास तुरन्त सूचना आ गई, तब जाकर हाथ-पैरों ने ना-नुकूर करते हुए अपना धर्म निभाना शुरू किया।
मैलानी से चलकर अकेला हंसपुर, सेहरामऊ, कुर्रैया, दूधिया खुर्द, पूरनपुर, शाहगढ, सनदेई, माला, दियूरी हाल्ट के बाद आता है पीलीभीत जंक्शन। यह इधर का सबसे बडा जंक्शन है। यहां से बरेली-मैलानी के अलावा एक लाइन शाहजहांपुर जाती है और एक टनकपुर। यहां से आगे ललौरी खेडा, शाही, बिजौरिया, सेथल, डिबनापुर, भोजीपुरा जंक्शन, दोहना, इज्जतनगर, बरेली सिटी के बाद करीब साढे आठ बजे बरेली जंक्शन पहुंचे। अच्छा हां, भोजीपुरा जंक्शन से एक लाइन लालकुआं जाती है जो हल्द्वानी- काठगोदाम के पास है।
जिस लाइन पर मैंने सफर किया था, उस पर कई एक्सप्रेस गाडियां भी चलती हैं- नैनीताल एक्सप्रेस, रुहेलखण्ड एक्सप्रेस, गोकुल एक्सप्रेस, सेंचुरी एक्सप्रेस। इनमें स्लीपर से लेकर थर्ड एसी और फर्स्ट क्लास तक के डिब्बे हैं। अब भले ही कल की बजाय आज ही यह लाइन बन्द हो जाये, कोई गम नहीं होगा। हां, गोण्डा-मैलानी और शाहजहांपुर-पीलीभीत-टनकपुर लाइनें भी किसी दिन कवर करनी हैं।













Comments

  1. नीरज भाई अच्छी यात्रा अच्छी जानकारी

    ReplyDelete
  2. आपकी यात्रायें दिलचस्प और बेजोड़ होती हैं...माथेरान वाली छोटी लाइन आपके इंतज़ार में है...अभी तो बारिश की वजह से बंद है सितम्बर में खुलेगी...चले आना...और हाँ मुंबई की लोकल की सैर नहीं की तो क्या किया?

    नीरज

    ReplyDelete
  3. सारे मीटरगेज घूम डालिये, आने वाले वर्षों में सब बदल जायेंगे।

    ReplyDelete
  4. अब ये स्टेशन भी एक विरासत बनकर यादों में ही रह जाएंगे. आपका प्रण पूर्ण हो, शुभकामनाएं.

    ReplyDelete
  5. बहुतों के शौक पर जिम्मेदारियां भारी पड़ जाती हैं।
    प्रभू ने जो नेमत बक्शी है उसके लिए उनका शुक्रिया जरूर करते रहना।
    खुश रहो।

    ReplyDelete
  6. भाई, आप यात्री तो हैं ही। भारतीय रेलवे के सब से बड़े प्रचारक भी। रेलवे की सब से अधिक जानकारी आप दे रहे हैं। हिन्दी ब्लाग पर। मुझे लगता है कि भारतीय रेलवे को आप को आजीवन निशुल्क यात्रा पास दे देना चाहिए।
    समस्या ये है कि सिफारिश कैसे की जाए? तो पूछते हैं। ज्ञान पाण्डे जी से या फिर प्रवीण पाण्डे जी से ...

    ReplyDelete
  7. दिलचस्प और बेजोड़ ||

    ReplyDelete
  8. दिनेश जी सही कह रहे है... तुम जैसो कि टिकट कि चिंता नहीं करनी चाहिए... रेलवे लो मुफ्त पास देना चाहिए..

    तुम हो मजेदार..

    ReplyDelete
  9. सुश्री मायावती प्रसन्न होंगी अगर जानेंगी कि यू.पी. को फ़िर से टॉप पर रखा है। प्रांतवाद को बढ़ावा दे रहे हो:)
    और पीलीभीत की भीत तो गुलाबी सी दीखे है।

    ReplyDelete
  10. नीरज, सारे स्टेशन दिखा दिये मगर बरेली का कोई स्टेशन (जंक्शन, सिटी, क्लटरबकगंज, शहदाना, पीताम्बरपुर, आयज़ैटनगर) आदि कुछ दिखा नहीं, क्या हुआ?

    ReplyDelete
  11. दिमाग में दो लाइनें थीं- राजस्थान में जयपुर-सीकर-चुरू और सीकर-लोहारू तथा दूसरी यूपी में ऐशबाग-मैलानी-बरेली
    @राजस्थान में जयपुर-सीकर-चुरू और सीकर-लोहारू वाली लाइन पर घूम ही आवो भाई ,कहीं तुम्हारे घुमने के इन्तजार में रेलवे इस लाइन के कार्य को अटका न दे| बस में ज्यादा भाड़ा देते तंग आ गए है हम इस लाइन पर जाने वाले|

    ReplyDelete
  12. आपकी यात्रायें दिलचस्प में है..

    ReplyDelete
  13. बेहतरीन....मेनका गाँधी का क्षेत्र कवर कर लिए हो...तो अब हम का कहें.....

    ReplyDelete
  14. bas aapke aanko se duniya dekh ke man khush ho jata hai

    ReplyDelete
  15. aap ki yatrayen pad kar mast ho gaya - en choti si cheez ko bhi kitni achchi tarah se bayan karte ho - keep writing

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब...