Skip to main content

बैजनाथ मंदिर

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें

(बैजनाथ पपरोला रेलवे स्टेशन)
यह ट्रेन आगे जोगिन्दर नगर तक जाती थी, लेकिन हम बैजनाथ पपरोला स्टेशन पर ही उतर गए। बैजनाथ का जो मंदिर है, वो सामने पहाड़ पर स्थित है। निचले बैजनाथ शहर को पपरोला कहते हैं। यहाँ से मंदिर तक जाने के लिए अनलिमिटेड बसें हैं और पैदल भी ज्यादा दूर नहीं है। बैजनाथ मंदिर की बगल में ही बस अड्डा है।
...
(पपरोला का बाजार)
कांगडा, धर्मशाला और पठानकोट से मंडी, कुल्लू, शिमला, मनाली को जाने वाली बसें यहीं से होकर जाती हैं। यहाँ ज्यादातर प्राइवेट बसें चलती हैं। हिमाचल रोडवेज की तो कम ही बसें दिखाई देती हैं। पहाड़ पर आमतौर से टम्पू नहीं दिखाई देते, लेकिन कांगडा घाटी में खूब टम्पू चलते हैं।
...
हम स्टेशन से बाहर निकले। भयंकर भूख लग रही थी। एन एच 20 पर बाजार ही बाजार है। हम एक चाट वाले की दूकान में घुस गए। पहाड़ पर इस तरह की चीजें खाने का मजा ही अलग होता है। हमने चाटवाले से पूछा कि भाई, मंदिर किधर है, और हम कैसे जाएँ? बोला कि इस सड़क के साथ-साथ चलते जाओ। वहां चोटी पर बिना किसी से पूछे ही मंदिर मिल जायेगा।
...
(बैजनाथ मंदिर समूह)
इस इलाके में कांगडी भाषा बोली जाती है। इसका लहजा बिलकुल पंजाबी होता है। मैं भी जैसा देस वैसा भेस को चरितार्थ करता हुआ पंजाबी लहजे में बात कर लेता हूँ। पंजाबी मुझे आती तो नहीं, बस अपनी हरियाणवी मिश्रित हिन्दी को पंजाबी लहजे में ढाल लेता था। मेरी इस करतूत से लोगबाग मुझे कांगडा का ही निवासी समझते थे।
...
(बैजनाथ मंदिर)
मंदिर तक पहुँचने के लिए चारों तरफ से रास्ते बने हैं। एक रास्ते के लगभग सामने खड़े थे हम दोनों। शाम को अँधेरा होने लगा था। मैंने वहीँ खड़े एक लड़के से पूछा -"भाई, मन्द्र किद्र है?" उसने हाथ से इशारा किया और बोला -"मन्द्र के सामणे खड़े अर तम्नै मन्द्र नी दिखाई देरा?"
...
(मंदिर का मुख्य द्वार)
(मुख्य मंदिर)

मंदिर प्रांगण में पहुंचे। चौकोर चबूतरे पर पत्थरों से बना मंदिर। शाम का टाइम होने के बावजूद भी भीड़ नहीं थी। एक बार तो लगा कि कहीं यह कोई दूसरा मंदिर तो नहीं है।

(शानदार कलाकारी)
लेकिन नहीं, यह बैजनाथ मंदिर ही है। भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित मंदिर। इसके तीन तरफ छोटे-छोटे हरे-भरे पार्क हैं। एक तरफ बहुत गहराई में एक नदी बहती है। नदी के उस तरफ हिमालय विराजमान है।
...
नंदी की प्रतिमा (पीछे वाला नंदी है, आगे वाला नहीं)
इसके इतिहास की जानकारी तो मुझे नहीं है। लेकिन यह मंदिर कुछ अलग लगा। एक तो देशभर के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक (शायद ज्योतिर्लिंग ना भी हो, गारंटी नहीं है), दूसरे भीड़-भाड़ नहीं, तीसरे गंदगी भी नहीं। मंदिर के पास प्रसाद की भी दो-तीन दुकानें हैं। बस अड्डे की तरफ तो एक भी नहीं है। मुख्य मंदिर के पास ही तीन-चार छोटे-छोटे मंदिर और हैं। नंदी की भी प्रतिमा है।
...
बैजनाथ की बैकग्राउंड (है ना शानदार)
मंदिर देखकर हम बस अड्डे की तरफ चले गए। आखिर हमें रात बिताने के लिए कमरा भी तो चाहिए था। एक हलवाई के पास गए-" भाई साहब, यहाँ कोई सस्ता-सुस्ता सा कमरा-वमरा मिलेगा क्या?" उसने कहा-" हाँ मिलेगा।" और थोड़ी दूर एक रेस्ट हाउस में ले गया - स्टैण्डर्ड रेस्ट हाउस। एक कमरा दिखाया, उसमे डबल बेड पड़ा था और रजाई-गददे भी। हमें और क्या चाहिए था? किराया बताया सौ रूपये मात्र।
...
और ये हम
कमरे की चिंता ख़त्म। हम फिर बाजार में निकल पड़े। दो-चार जगह इधर-उधर मुहं मारा, पेट भर गया। तभी रामबाबू को एक दुकान दिखी-'गर्म सूप, मोमो।' उसने दोनों का आर्डर दे दिया। मैं तो नाक तक छका हुआ था। सूप नहीं पिया। सारा का सारा राम ने ही सुड़क लिया। फिर मोमो खाए। राम बोला-" वाह भई वाह!!!! मजा आ गया। ऐसा स्वादिष्ट मोमो मैंने आज तक नहीं खाया।"
...
'ताऊ' यहाँ भी विराजमान है
और वापस कमरे पर आकर भारी भरकम रजाई तानकर सो गए।
11 अप्रैल 2009, दिन शनिवार। रजाई में से मुहं निकला, देखा कि खिड़की से धूप आ रही है। उठे। उठे क्या, उठना पड़ा। चप्पल हमारे पास थी नहीं, तो नंगे पैर ही नित्य कर्म करने पड़े। पानी इतना ठंडा कि क्या कहने!!! लेकिन नहाना तो था ही। नीचे रेस्ट हाउस के ऑफिस में गए। अखबार पढने लगे- पहाडी अखबार। मैं जब भी पहाड़ पर जाता हूँ, तो हरेक चीज से पहले 'पहाडी' शब्द जोड़ देता हूँ।

(सुबह को बैजनाथ मन्दिर)
...

बगल में ही एक जरा सा होटल था। ढाबा टाइप होटल। चाय और आलू के परांठे का मजा लिया। इसके बाद फिर बैजनाथ मंदिर की तरफ निकल गए। अच्छी-खासी चहल पहल थी। आदमी, औरतें, बच्चें; और हाँ बन्दर भी। ये पहाडी बन्दर थे, जो मंदिर के पीछे पार्क में मटरगश्ती कर रहे थे। हम पार्क में गए, तो बन्दर वहां से हट गए।

(बन्दर और सुबह को नीले पहाड़)
...

रामबाबू को अब तलब लगी मोमो खाने की। उसी रात वाली दुकान पर। रात जबसे उसने मोमो खाए थे, तभी से पहाडी मोमो के गुणगान करता आ रहा था, कि ऐसे मोमो कहीं नहीं खाए। साढे आठ का टाइम था। उस दुकान पर पहुंचे। दुकान वाले ने मना कर दिया कि भाई, ग्यारह बजे की बाद ही मिलेंगे।

(मन्दिर के सामने फोटो तो खिंचवा ही ली)
...

हमारा आज का प्रोग्राम ये था कि पहले बीड जायेंगे, फिर 14 किलोमीटर आगे बिलिंग। उसके बाद शाम को पालमपुर में सोने की योजना थी। बीड बैजनाथ से करीब 15 किलोमीटर आगे है। यहाँ के चाय बागान व बौद्ध मठ प्रसिद्द हैं। बिलिंग पैराग्लाइडिंग का विश्व प्रसिद्द केंद्र है। इतनी ही जानकारी थी बीड-बिलिंग के बारे में हमें अभी तक। और हाँ, हमारा इरादा भी पैराग्लाइडिंग करने का था।

(बीड जाने को एकदम तैयार)
...
पता चला कि बीड जाने वाली एक बस अभी-अभी निकली है। पता नहीं अब कितनी देर में आएगी? मंड़ी जाने वाली बस में जा चढ़े। और बीड से 4 किलोमीटर दूर बीड मोड़ पर उतर गए। यह जगह समुद्र तल से 1300 मीटर की ऊंचाई पर है। यहाँ जितने भी किलोमीटर के पत्थर हैं, सभी पर उस स्थान की ऊँचाई लिखी होती है। एक टैक्सी वाले से पूछा तो उसने बिलिंग जाने का किराया बताया 400 रूपये प्रति सवारी। यानी हम दोनों के 800 रूपये। सुनते ही हवा ख़राब हो गयी। चलो, पहले बीड चलते हैं। क्या पता, वहां से कुछ सस्ता पड़ जाये।
...
पौन घंटे बाद बस आई। बीड पहुंचे। एक टैक्सी खड़ी थी। बोला 400 रूपये प्रति सवारी। एक यही तो उम्मीद थी लेकिन यह भी ख़त्म। लगा कि अब बिलिंग नहीं जा पाएंगे। दोनों के मुहं लटक गए। एक पकोड़ी वाले की दुकान पर जा बैठे। बगल में ही चाय की दुकान थी। चाय पी, पकौडियां खायीं। दुकानदार पूर्व फौजी था। एक बार मेरठ में भी पोस्टिंग हुई थी। उसने हमें सलाह दी कि टैक्सी से मत जाओ। पैदल चले जाओ। और रास्ता? सड़क के रास्ते मत जाना। वो चोटी दिख रही है ना? वही तो बिलिंग है। अगर पहाड़ पर रास्ता भटक भी जाओगे, तो चिंता की कोई बात नहीं है। बस चढ़ते जाना, चढ़ते जाना। अंत में पहुंचोगे चोटी पर ही।
...

बात हमें जँच गयी। दोनों ने अपने भारी-भरकम बैग यहीं दुकान पर रख दिए। पानी की बोतलें लीं। और चल पड़े अनजान रास्ते पर ट्रेकिंग करने।

अगला भाग: बिलिंग यात्रा


बैजनाथ यात्रा श्रंखला
1. बैजनाथ यात्रा - कांगड़ा घाटी रेलवे
2. बैजनाथ मंदिर
3. बिलिंग यात्रा
4. हिमाचल के गद्दी
5. पालमपुर यात्रा और चामुंड़ा देवी

Comments

  1. 'विश्व विरासत दिवस' को सार्थक बनाती पोस्ट.

    ReplyDelete
  2. बड़ा सुन्दर प्रयोग किया आपने अपनी यात्रा और कैमरे का।
    इस मन्दिर के चित्र तो पहली बार देखे। और अच्छा लगा कि भीड़-भाड़/गन्दगी नहीं है।

    ReplyDelete
  3. सुन्दर चित्रों के साथ यात्रा वर्णन रोचक और ज्ञानवर्धक है।

    ReplyDelete
  4. लगा जैसे आपके साथ साथ घूम रहे हैं....गज़ब का यात्रा वर्णन और चित्र...कमाल के...वाह जी...
    नीरज

    ReplyDelete
  5. हमें तो बहुत मजा आया. कुछ समय के लिए आँखें बंद कर लीं और वहीँ पहुँच भी गए. इतने सुन्दर चित्र जो साथ देने के लिए थे ही. पपरोला का बाज़ार अच्छा खासा है. सब कुछ इतना सस्ता भी. नंदी के सामने भी नंदी ही तो है जी, क्यों बना रहे हो. मंदिर का background जानदार है. उस छोटी सी नदी में पानी भरा होता तो और मजा आता.

    ReplyDelete
  6. नीरज भाई तो एक अच्छा फोटोग्राफर भी बन गया।

    ReplyDelete
  7. बहुत बढिया विस्‍तृत विवरण ... फोटो भी अच्‍छी हैं।

    ReplyDelete
  8. सचित्र यात्रा वृ्तांत बहुत ही बढिया रहा....

    ReplyDelete
  9. क्या बात बिना रास्ते की ट्रैकिंग ,

    ReplyDelete
  10. Very nice trip , ट्रैन कोन सी थी कितना किराया था उस समय toy ट्रैन का

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

डायरी के पन्ने- 30 (विवाह स्पेशल)

ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। 1 फरवरी: इस बार पहले ही सोच रखा था कि डायरी के पन्ने दिनांक-वार लिखने हैं। इसका कारण था कि पिछले दिनों मैं अपनी पिछली डायरियां पढ रहा था। अच्छा लग रहा था जब मैं वे पुराने दिनांक-वार पन्ने पढने लगा। तो आज सुबह नाइट ड्यूटी करके आया। नींद ऐसी आ रही थी कि बिना कुछ खाये-पीये सो गया। मैं अक्सर नाइट ड्यूटी से आकर बिना कुछ खाये-पीये सो जाता हूं, ज्यादातर तो चाय पीकर सोता हूं।। खाली पेट मुझे बहुत अच्छी नींद आती है। शाम चार बजे उठा। पिताजी उस समय सो रहे थे, धीरज लैपटॉप में करंट अफेयर्स को अपनी कापी में नोट कर रहा था। तभी बढई आ गया। अलमारी में कुछ समस्या थी और कुछ खिडकियों की जाली गलकर टूटने लगी थी। मच्छर सीजन दस्तक दे रहा है, खिडकियों पर जाली ठीकठाक रहे तो अच्छा। बढई के आने पर खटपट सुनकर पिताजी भी उठ गये। सात बजे बढई वापस चला गया। थोडा सा काम और बचा है, उसे कल निपटायेगा। इसके बाद धीरज बाजार गया और बाकी सामान के साथ कुछ जलेबियां भी ले आया। मैंने धीरज से कहा कि दूध के साथ जलेबी खायेंगे। पिताजी से कहा तो उन्होंने मना कर दिया। यह मना करना मुझे ब...

डायरी के पन्ने-32

ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। इस बार डायरी के पन्ने नहीं छपने वाले थे लेकिन महीने के अन्त में एक ऐसा घटनाक्रम घटा कि कुछ स्पष्टीकरण देने के लिये मुझे ये लिखने पड रहे हैं। पिछले साल जून में मैंने एक पोस्ट लिखी थी और फिर तीन महीने तक लिखना बन्द कर दिया। फिर अक्टूबर में लिखना शुरू किया। तब से लेकर मार्च तक पूरे छह महीने प्रति सप्ताह तीन पोस्ट के औसत से लिखता रहा। मेरी पोस्टें अमूमन लम्बी होती हैं, काफी ज्यादा पढने का मैटीरियल होता है और चित्र भी काफी होते हैं। एक पोस्ट को तैयार करने में औसतन चार घण्टे लगते हैं। सप्ताह में तीन पोस्ट... लगातार छह महीने तक। ढेर सारा ट्रैफिक, ढेर सारी वाहवाहियां। इस दौरान विवाह भी हुआ, वो भी दो बार। आप पढते हैं, आपको आनन्द आता है। लेकिन एक लेखक ही जानता है कि लम्बे समय तक नियमित ऐसा करने से क्या होता है। थकान होने लगती है। वाहवाहियां अच्छी नहीं लगतीं। रुक जाने को मन करता है, विश्राम करने को मन करता है। इस बारे में मैंने अपने फेसबुक पेज पर लिखा भी था कि विश्राम करने की इच्छा हो रही है। लगभग सभी मित्रों ने इस बात का समर्थन किया था।

लद्दाख बाइक यात्रा-4 (बटोट-डोडा-किश्तवाड-पारना)

9 जून 2015 हम बटोट में थे। बटोट से एक रास्ता तो सीधे रामबन, बनिहाल होते हुए श्रीनगर जाता ही है, एक दूसरा रास्ता डोडा, किश्तवाड भी जाता है। किश्तवाड से सिंथन टॉप होते हुए एक सडक श्रीनगर भी गई है। बटोट से मुख्य रास्ते से श्रीनगर डल गेट लगभग 170 किलोमीटर है जबकि किश्तवाड होते हुए यह दूरी 315 किलोमीटर है। जम्मू क्षेत्र से कश्मीर जाने के लिये तीन रास्ते हैं- पहला तो यही मुख्य रास्ता जम्मू-श्रीनगर हाईवे, दूसरा है मुगल रोड और तीसरा है किश्तवाड-अनन्तनाग मार्ग। शुरू से ही मेरी इच्छा मुख्य राजमार्ग से जाने की नहीं थी। पहले योजना मुगल रोड से जाने की थी लेकिन कल हुए बुद्धि परिवर्तन से मुगल रोड का विकल्प समाप्त हो गया। कल हम बटोट आकर रुक गये। सोचने-विचारने के लिये पूरी रात थी। मुख्य राजमार्ग से जाने का फायदा यह था कि हम आज ही श्रीनगर पहुंच सकते हैं और उससे आगे सोनामार्ग तक भी जा सकते हैं। किश्तवाड वाले रास्ते से आज ही श्रीनगर नहीं पहुंचा जा सकता। अर्णव ने सुझाव दिया था कि बटोट से सुबह चार-पांच बजे निकल पडो ताकि ट्रैफिक बढने से पहले जवाहर सुरंग पार कर सको। अर्णव को भी हमने किश्तवाड के बारे में नहीं ...