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Showing posts from May, 2018

जंजैहली से छतरी, जलोड़ी जोत और सेरोलसर झील

इस यात्रा वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें । पिछली पोस्ट ‘ शिकारी देवी यात्रा ’ में मित्र आलोक कुमार ने टिप्पणी की थी - “एक शानदार यात्रा वृतांत... वरना हिमाचल में हम लोग कुल्लू-मनाली और शिमला के अलावा जानते ही क्या हैं!” बिल्कुल सही बात कही है आलोक जी ने। और इसी बात को आगे बढ़ाते हुए आज हम आपको हिमाचल के एक ऐसे स्थान की यात्रा कराएँगे, जिसके बारे में मुझे भी नहीं पता था। आज 1 अप्रैल 2018 था। यात्रा कार्यक्रम के अनुसार तय था कि ब्रेकफास्ट के बाद नीरज मिश्रा जी हमसे विदा ले लेंगे और शाम तक आराम से मंडी पहुँचकर दिल्ली की बस पकड़ लेंगे। शाम आठ बजे उनकी बस थी। वे बड़े आराम से इसे पकड़ लेते। और हम क्या करते? हमारे पास मोटरसाइकिल थी। क्या हम आज का पूरा दिन जंजैहली से दिल्ली लौटने में खर्च करते? यह बात जँच नहीं रही थी। मई में हमें फिर से कुछ मित्रों को इधर लाना है और उनकी यात्रा में जंजैहली के साथ-साथ जलोड़ी जोत के साथ-साथ तीर्थन घाटी को भी शामिल करना है, तो हमें उधर जाना ही पड़ेगा।

शिकारी देवी यात्रा

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें । 30 मार्च 2018 शिवालिक होमस्टे के मालिक का नाम तो नहीं पता और न ही यह पता कि पराँठे उसने बनाए या उसकी घरवाली ने; लेकिन आज सुबह-सुबह हम सभी अपनी जिंदगी के सर्वश्रेष्ठ आलू-पराँठे खा रहे थे। एक सुर में सभी ने एक-साथ नारा लगाया - “एक-एक पराँठा और।” फिर थोड़ी देर बाद किसी ने “एक-एक और” तो किसी ने “आधा-आधा और” के नारे लगाए। सामान्यतः हिमाचल वालों से न तो जोरदार तड़क-भड़क वाली सब्जी बनती है, न ही जोरदार पराँठे। लेकिन यहाँ सब्जी भी शानदार थी और पराँठे भी। “भाई जी, आपने कोई ट्रेनिंग ली है क्या?” “किस चीज की?” “खाना बनाने की।” “नहीं।” तब तक टैक्सी ड्राइवर भी आ गया। वह हमें आज शिकारी देवी छोड़कर आ जाएगा और 1200 रुपये लेगा। दूरी 16 किलोमीटर है। वैसे तो हम चार जने दो मोटरसाइकिलों पर भी शिकारी देवी तक जा सकते थे, लेकिन चूँकि हमें कल वहाँ से पैदल दूसरे रास्ते से आना है, तो मोटरसाइकिल से जाने का इरादा त्याग दिया।

जंजैहली भ्रमण: मित्रों के साथ

जनवरी में रैथल ग्रुप यात्रा से उत्साहित होकर तय किया कि मार्च में जंजैहली जाएँगे। रैथल यात्रा के दौरान हमें कई बहुत अच्छे मित्र मिले, तो लगने लगा कि साल में कभी-कभार ग्रुप यात्राएँ आयोजित कर लेनी चाहिए। मार्च के आखिर में कई छुट्‍टियाँ थीं और 1 अप्रैल का रविवार था, तो कार्यक्रम बना लिया। लेकिन एक शर्त थी। वो यह कि सभी को स्वयं ही जंजैहली पहुँचना था। मैं और दीप्ति मोटरसाइकिल से जाने वाले थे। जंजैहली भले ही सामान्य यात्रियों में लोकप्रिय न हो, लेकिन वहाँ पहुँचना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है। सुंदरनगर और मंडी से नियमित बसें चलती हैं और दिल्ली तक से भी सीधी बस चलती है। अब हमारी बारी थी जंजैहली में मित्रों के ठहरने की व्यवस्था करने की। अगर केवल हमें ही जाना होता, तब तो हम इस बारे में कुछ भी नहीं सोचते, लेकिन अब सोचना जरूरी था। क्या एक चक्कर कुछ दिन पहले लगाया जाए?

दुधवा रेलवे - भारतीय रेल का कश्मीर

13 मार्च 2018 आखिरकार वो दिन आ ही गया, जब मैं दिल्ली से शाहजहाँपुर के लिए ट्रेन में बैठा। पिछले साल भी इस यात्रा की योजना बनाई थी और मैं आला हजरत में चढ़ भी लिया था, लेकिन गाजियाबाद से ही लौट आया था - पता नहीं क्यों। लेकिन आज काशी विश्वनाथ पकड़ी और शाम छह बजे जा उतरा शाहजहाँपुर। यहाँ बुलेट लेकर नीरज पांडेय जी मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे और अपने घर ले गए, जहाँ मिठाई व पानी से मेरा स्वागत किया गया। शाम को शहर से बाहर एक रेस्टोरेंट में चल दिए, जहाँ मच्छर-दंश से अपनी टांगें खुजाते हुए मैंने इसे गूगल मैप पर फाइव-स्टार रेटिंग भी दी। होटल मालिक पांडेय जी का दोस्त था - “हमारी एक खास बात है। हमारे यहाँ किसी भी हालत में कोई भी दारू नहीं पी सकता। ऐसा करने से मैं अपने बहुत सारे मालदार ग्राहकों को खो चुका हूँ, लेकिन मुझे बड़ा सुकून है कि हमारी पहचान एक ऐसे रेस्टोरेंट के तौर पर हो रही है, जहाँ कोई भी दारू नहीं पी सकता।” “हाँ, सही कहा भाई आपने। यही आपकी पहचान है।” - होटल मालिक के एक अन्य मित्र ने दारू का पव्वा काँच के गिलास में उड़ेलते हुए कहा, जो अभी-अभी अपने बच्चों को थोड़ी ही दूर एक पेड़ के नीचे बैठाकर आय

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।