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Showing posts from April, 2018

भारत प्रवेश के बाद: नेपाल बॉर्डर से दिल्ली

इस यात्रा की किताब ‘ हमसफ़र एवरेस्ट ’ हमारे भारत में प्रवेश करते ही समाप्त हो जाती है। इसके बाद क्या हुआ, आज आपको बताते हैं। इस यात्रा के फोटो आरंभ से देखने के लिये यहाँ क्लिक करें । 4 जून 2016 तो सीमा पार कर लेने के बाद फरेंदा की तरफ़ दौड़ लगा दी, जो यहाँ से 50 किलोमीटर दूर है। सड़क अच्छी बनी है। निकट भविष्य में और भी अच्छी बन जायेगी। लेकिन सामने से आते गाड़ी वाले अपनी हैड़लाइट डाउन नहीं करते। नेपाल में दूर से देखते ही हैड़लाइट डाउन कर लेते थे। यदि हम ऐसा करने में देर लगा देते तो सामने वाला लाइटें जला-बुझाकर तब तक इशारा करता रहता, जब तक हम डाउन न कर लें। वास्तव में नेपाल में भारत के मुकाबले ‘ट्रैफिक सेंस’ ज्यादा अच्छी है। लेकिन आज हमें कुछ भी ख़राब नहीं लग रहा था। जल्द ही मैंने भी हैड़लाइट डाउन करनी बंद कर दी और उसी ज़मात में शामिल हो गया, जिसकी अभी-अभी आलोचना कर रहा था। विमलेश जी के भाई का नाम कमलेश है। वे फरेंदा में मिल गये। बिजली विभाग में अच्छे पद पर हैं। अपने क्वार्टर पर अकेले ही थे और हमारे लिये रोटी व दाल चावल बना रखे थे। दीप्ति ने कहा - “आज भी दाल-भात।” मैंने कहा - “नहीं, ये दाल-भात

फोटो-यात्रा-22: एवरेस्ट बेस कैंप - ताकशिंदो-ला से भारत

इस यात्रा के फोटो आरंभ से देखने के लिये यहाँ क्लिक करें । 3 जून 2016 हम धीरे से नेपाल के द्वार से बाहर निकल गये। ‘नो मैंन्स लैंड़’ में पहुँचे और उतने ही धीरे से भारतीय द्वार में प्रवेश कर गये। किसी ने हमारी तरफ़ देखा तक नहीं। नेपाली बाइक भारत में और भारतीय बाइक नेपाल में दिनभर आती-जाती रहती हैं। अब हम भारत में थे। अपने देश में थे। चाहे यह जैसा भी हो, इसके नागरिक जैसे भी हों, लेकिन है तो हमारा अपना ही। चौबीस दिन नेपाल में रहकर हमें अपने देश की सख़्त ज़रूरत महसूस होने लगी थी। नेपाली सिम निकालकर भारतीय सिम डाल लिया। फेसबुक पर पहला संदेश भेजा - “भारत माता की जय।” एवरेस्ट बेस कैंप ट्रैक पर आधारित मेरी किताब ‘हमसफ़र एवरेस्ट ’ का एक अंश। किताब तो आपने पढ़ ही ली होगी, अब आज की यात्रा के फोटो देखिये:

फोटो-यात्रा-21: एवरेस्ट बेस कैंप - खारी-ला से ताकशिंदो-ला

इस यात्रा के फोटो आरंभ से देखने के लिये यहाँ क्लिक करें । 1 जून 2016 “रास्ते में एक विदेशी और एक भारतीय ट्रैकर मिले। भारतीय का नाम शायद साहिल था और वह नोएड़ा का रहने वाला था। ये दोनों एवरेस्ट मैराथन में भाग लेकर लौट रहे थे। इन्हें वैसे तो लुकला से फ्लाइट से काठमांडू जाना था, लेकिन दो दिनों से मौसम ख़राब होने के कारण कोई भी वायुयान नहीं उड़ सका। विदेशी की काठमांडू से कल दोपहर की फ्लाइट थी, जिसे वह किसी भी हालत में नहीं छोड़ सकता था। इस समय उसके पास काठमांडू पहुँचने के लिये केवल चौबीस घंटे ही शेष थे। मौसम कब तक सामान्य होगा, कब उड़ानें नियमित होंगी, इसकी प्रतीक्षा न करते हुए उसने फाफलू पहुँचने का जो निर्णय लिया था, वो एकदम ठीक निर्णय था।” “ट्रैकिंग के पहले दिन जिन स्थानों पर हम रुके थे, जहाँ-जहाँ पानी पीया था, सभी को ‘रिमाइंड़’ करते गये। कोठारी जी भी अदृश्य रूप में साथ थे। यहाँ इस पुल के पास बैठकर हमने कोठारी जी की एक घंटे तक प्रतीक्षा की थी। यहाँ कोठारी जी ने ‘तातोपानी’ पीया था। यहाँ हमें पहली ‘खच्चर-ट्रेन’ मिली थी।”

फोटो-यात्रा-20: एवरेस्ट बेस कैंप - नामचे बाज़ार से खारी-ला

इस यात्रा के फोटो आरंभ से देखने के लिये यहाँ क्लिक करें । 30 मई 2016 “‘मैं भी भारतीय हूँ, लद्दाख से’ यह सुनते ही जो खुशी हुई, उसे बयाँ नहीं कर सकता। एक ही साँस में मैंने उस पर कई प्रश्न उडेल डाले। वह भारतीय सेना के एवरेस्ट अभियान का एक हिस्सा था। उसने कल मैराथन में भाग भी लिया था। आठवाँ स्थान हासिल किया। इस दल में बाकी सभी उच्चाधिकारी थे, अकेला यही निचले दर्जे का था। नाम था मुरुप दोरज़े।” “लगातार चलते रहने से, चलते ही रहने से मानसिक और शारीरिक दोनों थकान होती है। एक सीमा के बाद पैर अपने ही आप कहने लगते - अब, बस और नहीं। रुकने के ठिकाने हर जगह मौजूद हों, तो यह भावना जल्दी होने लगती है। अगर रुकने का ठिकाना दस किलोमीटर आगे होता, तो थकान होने के बावज़ूद भी दस किलोमीटर और चलना पड़ता। आप जहाँ भी थक जायेंगे, वहीं एक होटल होगा और काफ़ी संभावना है कि आप वहीं रुक भी जायेंगे।”

फोटो-यात्रा-19: एवरेस्ट बेस कैंप - थुकला से नामचे बाज़ार

इस यात्रा के फोटो आरंभ से देखने के लिये यहाँ क्लिक करें । 29 मई 2016 “यह ठीक है कि यहाँ सारा सामान खच्चरों पर या याकों पर या इंसानों की पीठ पर बड़ी दूर से ढोया जाता है। सामान पहुँचने में कई-कई दिन लग जाते हैं। लेकिन खाने की चीजें कई साल पहले एक्सपायर हो चुकी होती हैं। ज्यादातर विदेशी लोग यहाँ आते हैं, क्या किसी का ध्यान नहीं जाता इस बात पर? मुझे अपने देश का लद्दाख और कई दुर्गम इलाके याद आये। वहाँ इस तरह एक्सपायरी चीजें नहीं मिलतीं। और अगर मिलती भी हैं तो दुकानदार को इस बारे में पता रहता है और वह इसके लिये शर्मिंदा भी होता है। कई बार तो ऐसी चीजें फ्री में भी दे देते हैं, अन्यथा पैसे कम तो ज़रूर ही हो जाते हैं। नेपाल को इस मार्ग से प्रतिवर्ष अरबों रुपये मिलते हैं। यह नेपाल की सबसे महँगी जगह भी है। लेकिन खाने की गुणवत्ता इस महँगाई के अनुरूप नहीं है। बेतहाशा व्यावसायिकता है। अंधी व्यावसायिकता। किसी को अगर इस तरह का खाना खाने से कुछ हो भी जाता होगा, तो ये लोग बड़ी आसानी से उस व्यक्ति की ही गलती घोषित कर देते होंगे - हाई एल्टीट्यूड़ की वजह से ऐसा हुआ।”

फोटो-यात्रा-18: एवरेस्ट के चरणों में

इस यात्रा के फोटो आरंभ से देखने के लिये यहाँ क्लिक करें । 28 मई 2016 “हम मानसिक और शारीरिक रूप से इतने थक चुके थे कि 5500 मीटर चढ़ने के लिये - अपना एक रिकार्ड़ बनाने के लिये - हम काला पत्थर नहीं जाने वाले थे। यदि मौसम साफ़ होता, तो एवरेस्ट देखने के लालच में जा भी सकते थे, लेकिन ऊँचाई के लालच में कभी नहीं जायेंगे।” “मेरी शिखर पर चढ़ने की कभी इच्छा नहीं होती। बेसकैंप तक आने की इच्छा थी और आज बेसकैंप मेरे सामने था।” “बेसकैंप से लौटते समय एक कसक भी थी कि एवरेस्ट के दर्शन नहीं हुए। लेकिन आभास भी हो रहा था कि वह हमें देख रही है और हम उसके साये में चल रहे हैं।” “सोने से पहले आज के दिन के बारे में सोचने लगे। निःसंदेह आज का दिन हमारी ज़िंदगी का एक अहम दिन था। जिस ट्रैक पर जाने की इच्छा सभी ट्रैकर्स करते हैं, आज हमने उसी ट्रैक को पूरा कर लिया था। एवरेस्ट बेस कैंप। हालाँकि प्रत्येक पर्वत का एक बेसकैंप होता है, लेकिन अगर कहीं दो ट्रैकर्स खड़े ‘बेसकैंप’ का ज़िक्र कर रहे हों, तो समझ लेना कि एवरेस्ट बेसकैंप की ही चर्चा चल रही होगी।”

फोटो-यात्रा-17: एवरेस्ट बेस कैंप - ज़ोंगला से गोरकक्षेप

इस यात्रा के फोटो आरंभ से देखने के लिये यहाँ क्लिक करें । 27 मई 2016 “या तो गंगोत्री के पास तपोवन के बराबर में शिवलिंग चोटी ने मुझे इतना सम्मोहित किया था, या फिर आज आमा डबलम ने किया। ये आगे-पीछे दो चोटियाँ हैं। आगे वाली कुछ छोटी है और पीछे वाली ज्यादा ऊँची है। ऐसा लगता कि आमा ने - अम्मा ने - अपनी बेटी को गोद में बैठा रखा हो। आमा डबलम का मतलब क्या होता है? किसी ने कहा - अम्मा का आभूषण, तो किसी ने कहा - डबल अम्मा यानी दो माताएँ। मतलब कुछ भी हो, आमा डबलम ही एवरेस्ट क्षेत्र का आभूषण है।” “आश्चर्यजनक रूप से गोरकक्षेप में हमें छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रतिमा दिखायी पड़ी। इसे पुणे की ‘गिरीप्रेमी’ संस्था ने 2012 में लगाया था। यहाँ इतनी दूर विदेश में, जहाँ से चीन की सीमा केवल चार हवाई किलोमीटर दूर थी, शिवाजी महाराज की प्रतिमा को देखकर लगा जैसे कोई अपना मिल गया हो। इसके लिये पुणे की यह संस्था वास्तव में बधाई की पात्र है। शायद ही कोई नेपाली या अन्य विदेशी ट्रैकर्स शिवाजी महाराज के बारे में जानते हों, लेकिन भारत का बच्चा-बच्चा इसी नाम से अपने लिखने-पढ़ने की शुरूआत करता है।”

फोटो-यात्रा-16: एवरेस्ट बेस कैंप - थंगनाग से ज़ोंगला

इस यात्रा के फोटो आरंभ से देखने के लिये यहाँ क्लिक करें । 26 मई 2016 आज का दिन हमारी इस यात्रा का सबसे मुश्किल दिन रहा। बर्फ़बारी के बीच ख़राब मौसम में 5320 मीटर ऊँचा चो-ला दर्रा पार करना आसान नहीं रहा। रही-सही कसर इसके उस तरफ ग्लेशियर ने पूरी कर दी। “बर्फ़ होने के बावज़ूद भी हमें रास्ता मिल रहा था। कारण था कि ठीकठाक पगडंड़ी बनी थी। फिर हमसे एक-डेढ़ घंटे पहले पाँच लोग यहाँ से गुज़रे थे, तो उनके पैरों के निशान भी मिल रहे थे। ऐसा ही चलता रहा, तो उत्तम होगा। लेकिन यदि मामूली-सी बर्फ़ भी पड़ गयी, तो ये निशान मिट जायेंगे। क्या पता आगे दर्रे के पास कैसी पगडंड़ी हो? हो या न हो।” “थोड़ी देर के लिये थोड़े-से बादल इधर-उधर हो गये और हमें सामने बिल्कुल सिर के लगभग ऊपर तीन चोटियाँ दिखायी पड़ीं। इनके बीच में दो दर्रों जैसी आकृतियाँ भी दिखीं। इनमें से एक चो-ला है। इसे देखना भर ही सिहरन पैदा कर रहा था। यह एक ‘रॉक-फ़ाल जोन’ था, जहाँ खड़े ढाल पर आपको ढीले पत्थरों पर चढ़ना होगा और कभी भी कोई भी पत्थर आपके चलने से या अपने-आप भी नीचे गिर सकता था। अभी तक हम बादलों की उपस्थिति को कोस रहे थे। अब खुश हुए कि बादल रहें, तो अच्छ