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एक हिमालयी गाँव रैथल की यात्रा

इस यात्रा का विचार कहाँ से आया?
पता नी। लेकिन मुझे बर्फ़ अच्छी तो लगती है, डर भी लगता है। यार लोग चादर ट्रैक, केदारकांठा ट्रैक इत्यादि के बर्फ़ीले फोटो शेयर करते तो आह-सी निकलती। फिर जल्द ही अपनी ‘कैपेसिटी’ भी पता पड़ जाती। “हमारे बस की ना है।” और इस प्रकार बर्फ़ीले ट्रैक बर्फ़ में ही दबे रह जाते।
तो क्या करें? यह बर्फ़ तो मई में जाकर पिघलेगी। इन पाँच महीनों में क्या करें? और नींव पड़ी इस ग्रुप यात्रा की। दिसंबर में अक्सर इस तरह के आइडिये मन में आ ही जाते हैं। हैप्पी न्यू ईयर दिखता है, ‘छब्बी’ जनवरी दिखती है और मन करता है कि यार-दोस्तों के साथ एक आसान-सी यात्रा पर चलें।
दो साल पहले नागटिब्बा गये थे। इन दो सालों में इतना अनुभव तो हो गया कि बर्फ़ में ट्रैकिंग ठीक ना है। तो आसान-सा कार्यक्रम बनाया - एक गाँव में चलते हैं, जहाँ से हिमालयी बर्फ़ीली चोटियाँ दिखती हों, एकदम शांत वातावरण हो और घर जैसा अनुभव हो। फिर थोड़ा-सा हिसाब-किताब लगाया और यार लोगों में घोषणा कर दी कि 5000 रुपये लगेंगे। दिल्ली से उत्तराखंड परिवहन की बस से सीधे उत्तरकाशी जायेंगे, फिर रैथल जायेंगे और तीसरे दिन उसी बस से दिल्ली लौट आयेंगे। रात की भी यात्रा होगी, इसके बावजूद भी कई मित्रों ने फटाक से रजिस्ट्रेशन कर दिया।




जिन मित्रों ने रजिस्ट्रेशन नहीं किया, उनमें प्रमुख थे दारू वाले मित्र। एक नियम था - दारू नोट एलाउड। हम जानते थे कि यार लोग पीयेंगे ज़रूर, इसलिये अगला नियम बनाया - अगर पी ली, तो 2000 रुपये जुर्माना और फेसबुक पर बदनामी अलग से।
फिर देखते ही देखते 10 से ज्यादा मित्र तैयार हो गये। फिर से हिसाब लगाया। सरकारी बस कैंसिल और एक टैंपो ट्रैवलर बुक कर ली। इस दौरान मैं और दीप्ति भी बाइक से रैथल का एक चक्कर लगा आये। 20 लोगों के लिए वहाँ व्यवस्था हो भी जायेगी या नहीं। कहीं दस की ही व्यवस्था हो और दसों-दसों की खींचतान में रजाइयों के ही चीथड़े न उड़ जाएँ। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 20 लोगों के लायक अच्छी व्यवस्था हो गयी और हम खुशी-खुशी जनवरी के पहले सप्ताह की भयानक ठंड का सामना करते हुए दिल्ली लौट आये।

फिर कुछ उतार-चढ़ाव हुए और बात टैंपो ट्रैवलर से घटकर इनोवा तक आ गयी। हालाँकि बजट कह रहा था कि फिर से सरकारी बस पकड़ लो, लेकिन अब ऐसा करने का मेरा भी मन नहीं किया। रात के सफ़र में उत्तराखंड रोड़वेज की साधारण बस में शामत आ जाती।
तो चलते-चलते 13 जने इकट्ठे हो गये। दिल्ली से मैं, दीप्ति, ऋचा और रणविजय; नोएडा से नरेंद्र और संजय जी सपरिवार; लखनऊ से दिवाकर मिश्रा जी, ग्वालियर से प्रशांत जी, विकासनगर से उदय झा साब और हरिद्वार से अक्षय जी और उनके एक मित्र। यात्रा के लिए सबसे पहले घर से निकले झा साब - 25 जनवरी की सुबह आठ बजे। वे पहले तो अपनी बाइक से जाने वाले थे, लेकिन दो दिन पहले हुई बर्फ़बारी और ब्लैक आइस के कारण उन्होंने यह इरादा त्याग दिया। उन्होंने विकासनगर से बस पकड़ी और चलते रहे, चलते रहे। मैंने सोचा कि दोपहर तक उत्तरकाशी पहुँच गये होंगे। चिंता हुई कि कहीं वे चलते ही न चले जाएँ और गंगोत्री, गौमुख पार करके बद्रीनाथ न पहुँच जाएँ। लेकिन दो बजे फोन आया - देहरादून हूँ। उत्तरकाशी की आखिरी बस और जीप सब जा चुके थे। तो झा साब ऋषिकेश पहुँचे और चंबा भी पहुँच गये। एक कमरा लिया और यह कहते हुए सो गये - सुबह जब इधर से गुजरोगे, तो मुझे भी ले चलना।
उधर ग्वालियर से प्रशांत जी ने उत्कल पकड़ी और आधी रात को हरिद्वार। दिवाकर साब ने लखनऊ से एक साथ कई ट्रेनें पकड़ी और रात 3 बजे वे भी हरिद्वार। और इधर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र वाले सभी मित्र रात ग्यारह बजे चल दिये - किराये की इनोवा और रणविजय की क्रेटा। मुझे सभी कारें एक-सी लगती हैं, वही चार पहिये और वही कूबड़-सी निकली छत और हमेशा एक-दूसरी को ओवरटेक करने की कोशिशों में तेजी से दाहिने-बायें लेन बदलती हुई और टैं-टैं होर्न बजाती हुई। मैं जिस कार में था, वह तेजी से लेन तो नहीं बदल रही थी, तेजी से ओवरटेक भी नहीं कर रही थी, लेकिन दो मिनट में दो सौ बार होर्न ज़रूर बज जाता था। इसका ड्राइवर खेमा अच्छी पर्सनलिटी का मालिक था और जल्द ही हम मित्र बन गये।
गाजियाबाद से चलते ही कोहरा। रात का समय, कोहरा और फिर दिल्ली-हरिद्वार रोड़। इस मार्ग की एक खासियत है। वो यह कि किसी भी ट्रांसपोर्ट एथोरिटी को अपने यहाँ भारी-भरकम लागत लगाकर ड्राइविंग टेस्ट ट्रैक बनाने की ज़रूरत नहीं है, इस मार्ग पर आधा किलोमीटर गाड़ी चलाते ही लाइसेंस दिया जा सकता है।
तो इतनी रात में, ऐसे मौसम में, इतनी ठंड में, इतनी सारी गाड़ियाँ कहाँ जा रही थीं? हमें नहीं पता। हमें केवल दो गाड़ियों का ही पता था, जो रैथल जा रही थीं।
एक जगह कोहरे में खेमा ने गाड़ी रोक दी - “उस्ताज्जी, बस एक मिनट में आया पेशाब करके।”
वह गाड़ी से दो मीटर दूर गया और एकदम लौट आया। मैंने पूछा - “क्या हुआ?”
“यहाँ तो घर बने हैं। घरों के सामने करना ठीक नहीं।”
“भाई, हम मोदीनगर के सेंटर में खड़े हैं। पचास मीटर आगे राज चौपला है।”
अब आप यह मत पूछ लेना कि इतने घने कोहरे में उस अनुभवी ड्राइवर को गाड़ी से उतरने के बाद ही घर दिखे, जबकि मुझे अपनी सटीक लोकेशन भी पता थी। नहीं, मोबाइल एक तरफ कहीं पड़ा हुआ था।
सवा चार बजे हम हरिद्वार रेलवे स्टेशन के सामने थे और हमारे सामने थे लखनऊ से घंटेभर पहले आये दिवाकर जी। इस समय उन्हें देखने से यह पता लगाना मुश्किल था कि वे नींद में थे या नींद उनमें थी।




रणविजय को फोन किया - “कहाँ हो महाराज?”
“पता नहीं, कोहरा ही कोहरा है।”
“फिर भी... अंदाज़े से ही बता दो।”
“कुछ भी नहीं पता। कोहरे में ही हैं।”
ऋषिकेश और उससे आगे नरेंद्रनगर। साढ़े पाँच बजे थे। एक-दो आदमी ही जगे हुए थे। और उन एक-दो में मैदान में झाडू लगा रहा एक कर्मचारी भी था। एक छत पर बीस-पच्चीस बंदर एक-दूसरे से चिपके हुए बैठे भी थे और सो भी रहे थे। तापमान अवश्य शून्य के आसपास रहा होगा। मैदान में एक तंबू का ढाँचा खड़ा था। इसे इन्होंने कल ही लगा दिया होगा, आज पूरा तंबू बना देंगे। आज गणतंत्र दिवस था।
फिर पहुँचे चंबा। धूप निकल चुकी थी, लेकिन तापमान शून्य से दो डिग्री नीचे था। उदय झा साब नहा भी लिये थे। यह सुनते ही मैं एक दुकान में जा घुसा।
“ओये, बाहर निकलो। बाहर निकलो। चाय की दुकान बगल वाली है।” दुकान वाले ने मुझे भगा दिया।
और बगल वाली दुकान में वाकई अमृत बरस रहा था। कसम से! मैं वर्णन नहीं कर सकता। एक कढ़ाई में पकौड़ियाँ तली जा रही थीं और समोसे भी अपनी बारी के इंतज़ार में थे। पहाड़ी रास्तों पर कार में, बस में यात्रा करते हुए मुझे उल्टी हो जाती है - यह जानते हुए भी ढाई सौ ग्राम पकौड़ियाँ खा लीं। मन नहीं भरा। संजय जी के बच्चों के आगे तक से उठाकर खा गया।
लेकिन फिर रैथल पहुँचना मुश्किल हो गया। हर मोड़ पर, हर घुमाव पर ‘निशानी’ छोड़ने का मौसम होने लगा। बार-बार ड्राइवर से कहता - “भाई, कोई जल्दी ना है। तू भी सीनरी एंजोय करता चल।” दोस्त लोग अपनी मनपसंद जगह पर रुकते। पानी पीते, चाय पीते, राजमा-चावल खाते, रोटियाँ खाते, आलू के पराँठे खाते और मैं अधमरा-सा पड़ा रहा।

“उस्ताज्जी, वे बर्फ़ीली चोटियाँ देख रहे हो ना आप? वे चाइना में हैं।”
“हट बे, श्रीकंठ है वो और उसके बगल में गंगोत्री पीक। उनके सौ-सौ किलोमीटर उस पार तक भी चाईना नहीं है। और हाँ, हम उन चोटियों के एकदम नज़दीक में रैथल गाँव जा रहे हैं।”

उत्तरकाशी में तिलक सोनी जी से मिलना भी ज़रूरी था। अपनी नव-प्रकाशित किताबें उन्हें भेंट करीं। इसके बदले उन्होंने हमें चौदह लाख रुपये की एक बाइक दिखायी। असल में कल सुबह तिलक भाई कुछ बाइकर्स को गंगोत्री ले जा रहे हैं, जहाँ वे उन्हें बर्फ़ में बाइक चलाने के गुर भी सिखायेंगे और उत्तराखंड के उस इलाके में पर्यटन को बढ़ावा देंगे, जहाँ सर्दियों में कोई नहीं जाता। यहाँ तक कि स्थानीय लोग भी अपने घर-बार छोड़कर नीचे आ जाते हैं। तो एक बाइकर चौदह लाख की बाइक लाया था। 1100 सी.सी. और 110 किलो वजन।
“ओये, इस बाइक को कोई हाथ नहीं लगायेगा। अगर खरोंच लग गयी तो वो भी दस हज़ार से ऊपर की होगी।” मैंने अपने मित्रों को आगाह किया। हालाँकि ज्यादातर मित्र इस पर बैठकर फोटो खिंचवाना चाहते थे।
तिलक सोनी ने कहा - “डी.एम. साहब तुम्हारी किताब के बारे में पूछ रहे थे।”
“उन्हें इतना समय होता है? क्या वे पढ़ेंगे?”
“हाँ, हाँ। वे किताबों के बड़े शौकीन हैं।”
दो किताबें मेरे पास और भी थीं, मैंने उन्हें पकड़ा दीं - “ये लो। डी.एम. साहब को दे देना।”
अब डी.एम. साहब तक किताब पहुँचे या न पहुँचे, हमारी तरफ़ से तो गयी।

रैथल में प्रवेश किया तो स्वागत बर्फ़ से हुआ। उत्तरी ढलान पर सड़क पर हर जगह बर्फ़ थी। बाकी कहीं भी बर्फ़ नहीं थी। सब खुश हो गये।
यहाँ दो बसें और भी खड़ी थीं। अवश्य ये दयारा जाने वाले किसी ग्रुप की बसें हैं। आज मुझे यहाँ दयारा जाने वालों के होने की उम्मीद नहीं थी, लेकिन लंबे वीकएंड की वजह से ऐसा था।

अगले दिन यानी 27 जनवरी का कार्यक्रम था कि हमें कुछ भी नहीं करना है। खाते रहना है और पड़े रहना है और गपशप करते रहना है। लेकिन बर्फ़ ने हौंसला बढ़ा दिया।
“अगर हम दयारा वाले रास्ते पर एक किलोमीटर भी चले गये तो काफ़ी बर्फ़ मिल जायेगी।”
लेकिन इसमें एक समस्या थी। दयारा जाने के लिए दस रुपये के स्टांप पेपर और एक एफीडेविट की ज़रूरत होती है कि ट्रैकिंग के लिए हम खुद जिम्मेदार होंगे और सरकार या वन-विभाग किसी भी तरह जिम्मेदार नहीं होगा। इसके लिए रैथल गाँव में दयारा के द्वार पर वन विभाग का ऑफिस भी है। हम जब कुछ ही दिन पहले यहाँ आये थे तो इस नियम का पता चला था। चूँकि अब हमें दयारा तो नहीं जाना था, लेकिन दयारा पथ पर ही जाना था। तो पता नहीं बिना स्टांप पेपर के फोरेस्ट रेंजर जाने भी देगा या नहीं। स्टांप पेपर बनता है कम से कम उत्तरकाशी से। तो सभी मित्रों को कह दिया - “मैं रेंजर से बात करता हूँ। अगर वो मान गया तो एक किलोमीटर तक पैदल जायेंगे, अन्यथा ऐसे ही टहल-टूहल लेंगे।”
अब कमाल की बात कि रेंजर और हमारे होटल वाले की आपस में पुरानी तनातनी है। दोनों स्थानीय हैं। तो जो भी कोई इस होटल में ठहरता है, रेंजर उनके लिए भी नकारात्मक हो जाता है और बेहद सख्ती से पेश आता है। मैं पिछली बार आया था तो इस बात की जानकारी हो गयी थी। होटल वाले ने मुझे रेंजर के विरुद्ध भर दिया था। मैं जायजा लेने रेंजर के यहाँ गया। हमें दयारा जाना ही नहीं था, तो रेंजर की चिरौरी करने की आवश्यकता भी नहीं थी। बैठे-बैठे एक घंटे तक गप्पे ही मारता रहा। नतीजा यह हुआ कि खाली बैठे रेंजर ने होटल वाले के बारे में वो सबकुछ उगल दिया, जो वह सोचता था। वह होटल वाले का भविष्य में क्या नुकसान करने की योजना बना रहा है, वो भी पता चल गया। मैं इस तरह के रहस्य अपने पेट में संभालकर रख लेता हूँ, किसी से बताता नहीं हूँ। उधर होटल वाले ने रेंजर का नुकसान करने की जो-जो योजनाएँ बना रखी थीं, वे भी पता चल गयीं।
तो आज फिर उस होटल में ठहरने के बावजूद भी रेंजर की निगाह में मैं एक अच्छा आदमी था।
“क्या हाल है साब जी?” मैंने बातचीत शुरू की।
“बहुत बढ़िया हैं जी। आज भी आप उसी होटल में ठहरे हो?”
“अरे हमें क्या मतलब है तुम्हारे झगड़ों से। ये बताओ, आज तो बहुत सारे ट्रैकर गये हैं दयारा।”
“हाँ जी, अभी भी जा रहे हैं। स्टांप पेपर के नियम की किसी को जानकारी नहीं है, तो लोगों को समझाना मुश्किल हो रहा है।”
“वो तो है।”
“क्या आप भी दयारा जाओगे?”
“नहीं, पूरे दिन यहीं रैथल में पड़े रहेंगे और खाते रहेंगे और कल चले जायेंगे।”
“सही है।”
“अब सुनो काम की बात। हमें जाना है थोड़ा ऊपर। सिर्फ़ एक किलोमीटर। दोस्त लोग थोड़ा जंगल देख लेंगे और बर्फ़ के मजे ले लेंगे। क्या स्टांप पेपर चाहिए?”
“हाँ जी, स्टांप पेपर तो ज़रूर चाहिए। आपको तो पता ही है। लाये होंगे आप।”
“नहीं, हमें ट्रैक नहीं करना। अब यहाँ आकर मन कर रहा है केवल एक किलोमीटर जाने का। सब खुश हो जायेंगे। रास्ता निकालो कोई।”
“आप भी जाओगे क्या साथ?”
“हाँ।”
“देखो, आप उस होटल में ठहरे हो। कोई और होता तो बिल्कुल नहीं जाने देता। लेकिन आप अच्छे आदमी हैं, इसलिए आपको जाने दूंगा। कितने जने हैं?”
“कुल मिलाकर चौदह लोग हैं।”
“कैमरे कितने हैं?”
“सबके पास हैं।”
“तो चौदह सौ तो कैमरे के ही हो गये और...”
“अएँ!!! चौदह सौ?”
“हाँ जी।”
“फिर तो रहने दो। हम सड़क पर ही घूम लेंगे।”
कुछ सोचकर - “एक किलोमीटर ही जाओगे ना?”
“हाँ, ज्यादा नहीं जायेंगे।”
“गोई तक तो नहीं जाओगे?”
“नहीं भाई। गोई तो बहुत दूर है।”
“चलो तो, आप दस-दस रुपये एंट्री फीस दे देना। कुल 140 रुपये।”
140 रुपये की पर्ची कट गयी और हम सबके-सब हँसते-खिलखिलाते और फोटो खींचते दयारा ट्रैक पर चल पड़े।
“सुनो भई। हम अधिकतम 2500 मीटर की ऊँचाई तक ही जायेंगे। तो कोई भी तेज नहीं चलेगा। यहाँ इतनी ऊँचाई पर बहुत ज्यादा बर्फ़ की उम्मीद मत करना। जंगल का आनंद लो और जहाँ अच्छी बर्फ़ होगी, वहाँ बर्फ़ का आनंद लेना।”
तो कुल मिलाकर मज़ा आ गया। प्रशांत जी ज्यादा नहीं चल पाये और आधा किलोमीटर बाद ही एक छोटे-से मैदान में बैठ गये। बगल में एक ग्रीन-हाउस था और एक बूढ़े चाचा थे। वे बतियाने में मशगूल हो गये।
2450 मीटर की ऊँचाई पर यानी रैथल से 250 मीटर ऊपर और डेढ़ किलोमीटर दूर एक मैदान मिला। यहाँ अच्छी बर्फ़ थी। सबने जमकर फोटोग्राफी की, बर्फ़ के गोले बनाये, फेंके और फिसलपट्टी बनाकर फिसले भी।





यहाँ से लौटकर रैथल गाँव का दौरा किया। यहाँ पाँच मंजिल का और पाँच सौ साल पुराना एक मकान है, जो फिलहाल जर्जर है और इसमें कोई नहीं रहता। समय की मार के चलते यह एक तरफ झुक भी गया है। वर्तमान में इसमें चौथी मंजिल तक जाया जा सकता है और पाँचवीं तक जाने की सीढ़ियाँ टूट चुकी हैं। पत्थर और लकड़ी का ही बना है यह।
गाँव का मंदिर भी आलीशान है। पंचायत चल रही थी। कुछ पुरुष बैठे थे और थोड़ी दूरी पर कुछ महिलाएँ भी। जोरदार शोर-शराबा हो रहा था और गढ़वाली में होने के कारण मुझे ज्यादा समझ नहीं आया। इतना ही समझ आया कि आगामी मेले या देवता की यात्रा के समय कौन-कौन कितने-कितने पैसे देगा और किस-किसको क्या-क्या करना है।
अगले दिन यानी 28 जनवरी की सुबह दस बजे वापस चल पड़े।

मुझे उम्मीद थी कि दारू पर प्रतिबंध के बावजूद भी कोई न कोई पीयेगा ज़रूर। मैं इसके लिए तैयार था और पियक्कड़ को फेसबुक पर बदनाम करने और 2000 रुपये जुर्माना वसूलने की पूरी तैयारी में था।
“भगवान करे कोई दारू पी रहा हो। 2000 रुपये मिलेंगे, मज़ा आ जायेगा। और वो अकेला तो पीयेगा नहीं। दो जने पीयेंगे, तो 4000 रुपये और 6000 रुपये और 8000 रुपये...।” इसके लिए रैंडमली किसी भी कमरे का दरवाजा खड़खड़ा देता और अंदर घुसकर कुत्ते की तरह इधर-उधर सूंघता, लेकिन हमें तो सारे ही दोस्त सदाचारी मिले हैं।
कुल मिलाकर सब कुशल-मंगल रहा और किसी ने दारू को हाथ भी नहीं लगाया। हालाँकि कई मित्रों की बड़ी इच्छा थी, ठंड का भी हवाला दे रहे थे और कान में फुसफुसा भी रहे थे कि चुपचाप एक पैग पी लेंगे और कमरे से बाहर भी नहीं निकलेंगे।
“इसका मतलब आप दारू लाये हो?”
“नहीं, गाँव में मिल जायेगी। हमने बात कर ली है।”
“नहीं पीनी। बिल्कुल भी नहीं पीनी।”

उधर उदय झा जी ने अपना एक अनुभव लिखा है:
“लिखना तो नहीं आता मुझे, लेकिन एक छोटी-सी बात ने मुझे सोचने को विवश किया। हमारे होटल के ऊपर की तरफ एक शेड़ बना था, जिसमें एक ग्रामीण ने भेड़ पाल रखी थीं। मैं 26 की सुबह एक-आध अच्छे फोटो के लालच में वहाँ पहुँचा, भेड़ों के फोटो खीचें, बहुत सुंदर भेड़ें थीं। झुंड में एक भेड़ लंगड़ाकर चल रही थी। सहानुभूतिवश पूछने पर भेड़पालक ने बताया कि यह बीमार है। मैं लंगड़ाकर चलती हुई भेड़ को देखकर उसके दर्द को महसूस कर ही रहा था कि कुछ दूर भेड़ों के साथ-साथ चलने पर आगे जाकर भेड़पालक के कुछ मित्र मिले, जो कहने लगे आज शाम को पार्टी करते हैं यार, बता कौन-सी भेड़ देगा। भेड़पालक ने उसी लंगडी भेड़ की तरफ इशारा किया और बोला, इसी को बनाएंगे।”

...



छब्बीस जनवरी, गणतंत्र दिवस की परेड़ और पंचर की दुकान

मूँछ नहीं है तो क्या हुआ... नाक तो है...

नेशनल हाईवे पर खड़े होकर तिलक सोनी को किताबें भेंट करने का दृश्य...





रैथल में ब्रेकफास्ट... जिसे जहाँ जगह मिली...

और झा साब को जगह मिली मटर के खेत की दीवार पर...

रैथल गाँव और हिमालयी चोटियाँ...

इस यात्रा का आयोजन दीप्ति ने किया था और उसका चेहरा इस बात को बता भी रहा है...

रणविजय और खेमा... 


संजय जी की बिटिया








और यह रहा हमारा ग्रुप फोटो...

संजय जी की फुल फैमिली...

नरेंद्र सिंह







नरेंद्र और अक्षय आर्य







यह फोटो लिया है रणविजय ने... उसमें इंसानियत और कॉमन सेंस इस कदर भरी है कि वह मेरे सर्वोत्तम मित्रों में से एक है...
यहाँ मैं संजय जी की बिटिया को बर्फ़ की फिसलपट्टी पर सुरक्षित रूप से आगे धकेल रहा हूँ... बिटिया पहले कभी बर्फ़ पर फिसली नहीं थी, इसलिए उसके चेहरे पर कुछ नया पाने की खुशी, रोमांच और जिज्ञासा झलक रही है... 








Comments

  1. बहुत सुन्दर यात्रा और उसका बहुत सुन्दर वर्णन ....

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  2. नीरज हमेशा की तरह बेहरीन. जल्द ही कुछ और पोस्ट करूंगा.

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  3. बेहतरीन लिखा है। नीरज जी ऐसी खूबसूरत जगह की यात्रा करवाने के लिए धन्यवाद।

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  4. धन्येवादं neeraj ji aur deepti ji shandaar trip ka aayojan krne ke leye.sambhav ho to north east ka bhi ek tour banaya jaye.app dono logo ne sabka sman roop se khayal rakha.sb log bilkul desi rhey ye aur bhi accha lga udai ji aur ranvijay ne bahut mst photography kee.unko bhi thanks.sadu saab kee jay.behad sukhad rha aap logo ka sath.

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  5. धन्येवादं neeraj ji aur deepti ji shandaar trip ka aayojan krne ke leye.sambhav ho to north east ka bhi ek tour banaya jaye.app dono logo ne sabka sman roop se khayal rakha.sb log bilkul desi rhey ye aur bhi accha lga udai ji aur ranvijay ne bahut mst photography kee.unko bhi thanks.sadu saab kee jay.behad sukhad rha aap logo ka sath.

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  6. एक नंबर गुरु
    :D छा गए

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  7. शानदार ट्रिप रहा
    चित्र और विवरण भी बढ़िया

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  8. Nice writeup , as usual . Daru wale mitr ko bhi sath na jane ka afsos rahega .

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  9. बहुत ही सुन्दर विवरण लिखा है नीरज भाई

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  10. बहुत ही सुन्दर विवरण एक अनूठी यात्रा का, मित्रों को सम्मिलित करने का विचार वास्तव में अनूठा है। जिसके लिये आप सभी को बधाई। ईश्वर चाहेंगे तो अगली यात्रा में आपके साथ शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त होगा।

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  11. यह यात्रा सकुशल संपूर्ण करने की बहुत सारी बधाई। अंतिम चित्र पद्मावत part 2 का लग रहा है।

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  12. बहुत खूब-------आनंद आ गया आपकी पोस्‍ट पढ़ कर। बहुत नायाब जगहों की सैर करते रहते हो आप।

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