पुस्तक मेले में घूम रहे थे तो भारतीय ज्ञानपीठ के यहाँ एक कोने में पचास परसेंट वाली किताबों का ढेर लगा था। उनमें ‘पिघलेगी बर्फ’ को इसलिये उठा लिया क्योंकि एक तो यह 75 रुपये की मिल गयी और दूसरे इसका नाम कश्मीर से संबंधित लग रहा था। लेकिन चूँकि यह उपन्यास था, इसलिये सबसे पहले इसे नहीं पढ़ा। पहले यात्रा-वृत्तांत पढ़ता, फिर कभी इसे देखता - ऐसी योजना थी। उन्हीं दिनों दीप्ति ने इसे पढ़ लिया - “नीरज, तुझे भी यह किताब सबसे पहले पढ़नी चाहिये, क्योंकि यह दिखावे का ही उपन्यास है। यात्रा-वृत्तांत ही अधिक है।” तो जब इसे पढ़ा तो बड़ी देर तक जड़वत हो गया। ये क्या पढ़ लिया मैंने! कबाड़ में हीरा मिल गया! बिना किसी भूमिका और बिना किसी चैप्टर के ही किताब आरंभ हो जाती है। या तो पहला पेज और पहला ही पैराग्राफ - या फिर आख़िरी पेज और आख़िरी पैराग्राफ।
नीरज मुसाफिर का यात्रा ब्लॉग