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नागटिब्बा ट्रैक-2

27 दिसम्बर 2015
   सुबह उठे। बल्कि उठे क्या, पूरी रात ढंग से सो ही नहीं सके। स्थानीय लडकों ने शोर-शराबा और आपस में गाली-गलौच मचाये रखी। वे बस ऐसे ही मुंह उठाकर इधर आ गये थे। जैसे-जैसे रात बीतती गई, ठण्ड भी बढती गई। उनके पास न ओढने को कुछ था और न ही बिछाने को। वे ठण्ड से नहीं सो सके, हम शोर-शराबे से नहीं सो सके। हमने उन्हें परांठे और एक कम्बल दे दिया था। नहीं तो क्या पता वे हमारे साथ भी गाली-गलौच करने लगते। रात में पता नहीं किस समय उन्होंने अपनी बनाई झौंपडी भी जला दी।
   अभी तक मैं यही मानता आ रहा था कि पन्तवाडी से आने वाला रास्ता भी यहीं आकर मिलता है। हिमाचल वालों से भी मैंने यही कहा कि मेरी जानकारी के अनुसार पन्तवाडी वाला रास्ता आकर मिलता है, इसलिये हमें अपने टैंट आदि आगे नागटिब्बा तक ले जाने की आवश्यकता नहीं है। खाली हाथ जायेंगे और वापस यहां आकर सामान उठाकर नीचे पन्तवाडी चले जायेंगे। इसलिये पहले हिमाचल वालों ने और बाद में मैंने पन्तवाडी की तरफ उतरती पगडण्डी ढूंढी, लेकिन कोई पगडण्डी नहीं मिली। एक हल्की सी पगडण्डी धार के नीचे की तरफ अवश्य जा रही थी, लेकिन यह पन्तवाडी वाला रास्ता नहीं हो सकता। इसलिये सभी ने सामान समेटा और लादकर नागटिब्बे की ओर चल दिये।
   दूर एक धार पर हरी छत और पीली पुती हुई दीवारों वाला एक घर जैसा कुछ दिख रहा था। हरी छत कह रही थी कि यह जंगल विभाग वालों का है। तो अगर वो जंगल विभाग का रेस्ट हाउस या कुछ भी है तो जाहिर है कि वो पन्तवाडी वाले रास्ते पर बना है। इसकी पुष्टि सामने से आते एक ग्रुप ने भी कर दी। ग्रुप का गाइड एक स्थानीय था। वे कल वहीं रेस्ट हाउस के पास रुके थे और अब देवलसारी की ओर नीचे उतर रहे थे। इन्होंने बताया कि रेस्ट हाउस के पास पानी उपलब्ध है। यह सुनते ही हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। हम कल से प्यासे मर रहे थे और प्यास के कारण भूखे भी थे। वो स्थान वैसे तो सामने दिख रहा था, लेकिन दूरी तकरीबन दो किलोमीटर थी। रास्ता समतल था - न चढाई और न उतराई। कुछ ही देर में जा पहुंचे।
   यह एक बुग्याल है। बीच में जंगल विभाग का रेस्ट हाउस है, जो निहायत गन्दा पडा था। दो कमरे थे - एक में खच्चरों की लीद की भरमार थी और दूसरे को स्थानीय लोगों ने रसोई-घर बना रखा था। पास में कुछ टैंट लगे थे। इनके लिये स्थानीय लोग यानी गाइड भोजन बना रहे थे। मैंने चाय के बारे में पूछा तो उसने इसकी सहमति दे दी। आप अन्दाजा नहीं लगा सकते कि इस समय मुझे कितनी खुशी हुई। न केवल यहां हम जी भरकर पानी पी सकेंगे, बल्कि चाय भी मिलेगी। भले ही भोजन उस ग्रुप के लिये बन रहा हो, लेकिन हमें भी थोडा-सा भोजन मिल सकेगा। नितिन और अमरीश कुछ पीछे थे, मैं उनकी प्रतीक्षा करने लगा।
   पानी कहां है, यह पूछने पर बताया कि थोडी ही दूर नाग मन्दिर है, उसके पास कुएं में खूब पानी है। फिर उधर से वे दोनों भी नाग मन्दिर पर आ गये और इधर से मैं भी पहुंच गया। गला तो कल से ही सूखा पडा था, अब हम जी भरकर पानी पीयेंगे।
   लेकिन यह क्या? बिल्कुल गन्दा और काला पानी था कुएं में। हमने हालांकि खाली बोतलें भर तो लीं लेकिन पीया किसी ने नहीं। रेस्ट हाउस पर जाकर चाय पीयेंगे। चाय इसी पानी की बनती है लेकिन तब यह कम से कम उबल तो जाता है। बोतलों में जो पानी हमने भरा, उसे भी वहां उबलवा लेंगे और पुनः बोतलों में भर लेंगे।
   इस स्थान की ऊंचाई 2630 मीटर है। सामने नागटिब्बा दिख रहा था लेकिन हममें से किसी की भी हिम्मत वहां जाने की नहीं हुई। नागटिब्बा लगभग 3000 मीटर की ऊंचाई पर है। दूरी करीब दो किलोमीटर है। इसका अर्थ है कि अच्छी-खासी चढाई है। भूखे पेट भजन न होए, फिर यह तो चढाई थी। तीनों ने एक सुर में कह दिया कि ऊपर नहीं जाना है। नीचे यानी जहां हम खडे थे, वहीं नाग देवता का मन्दिर है। दर्शन हो गये, यात्रा सफल हो गई। स्थानीय लोग ऊपर वाली चोटी को झण्डी कहते हैं क्योंकि बताते हैं कि वहां दो-तीन झण्डियां लगी हैं। ऊपर कोई मन्दिर नहीं है। बस, जाना और आना ही होता है।
   एक ग्रुप आज झण्डी तक गया और अब वे लोग नीचे पन्तवाडी जायेंगे। उनके लिये चाय और पुलाव बन रहे थे। गाइड से हमने चाय के लिये बात की थी और पुलाव तक भी पहुंच गये। पहले उबला पानी पीया, फिर चाय के साथ पुलाव खाने में आनन्द आ गया। मेरी हालत सबसे ज्यादा खराब थी। नितिन और अमरीश ने मेरी बिस्तर पर पडे मरीज की तरह सेवा की। कुछ पेट में गया, तब जान में जान आई। चाय और पुलाव के 270 रुपये लगे। यहां से हमने बोतलों में उबला पानी भी भर लिया। रास्ते में पता नहीं कहां पानी मिलेगा?
   हमेशा की तरह एक आवश्यक घोषणा भी की- अब के बाद ट्रैकिंग बन्द।
   साढे ग्यारह बजे यहां से चल दिये। यह स्थान एक बुग्याल है। ऊंचाई 2600 मीटर के आसपास है। 3000 मीटर से कम ऊंचाई पर हिमालय में छोटे-छोटे बुग्याल मिलते हैं, लेकिन चारों ओर जंगल से घिरे होने के कारण इनकी खूबसूरती देखते ही बनती है। सर्दियां होने के कारण घास सूख चुकी थी। मानसून में तो यहां चारों तरफ हरियाली होती होगी और रंग-बिरंगे फूल खिलते होंगे। इसी तरह बर्फबारी होने पर बर्फ से ढकी ढलानें अत्यधिक शानदार लगती होंगीं। हम यहां बर्फबारी की उम्मीद लेकर ही आये थे लेकिन बर्फ नहीं मिली। एक महीने बाद जनवरी में आयेंगे, तो निश्चित ही यहां खूब बर्फ मिलेगी।
   चलते ही जंगल में घुस गये। लेकिन पगडण्डी काफी चौडी बनी है, भटकने का कोई डर नहीं होता। मैं कल्पना कर रहा था - जब यहां बर्फ पडती होगी तो पूरा जंगल, पत्ता-पत्ता बर्फ से लद जाता होगा। रास्ते पर भी बर्फ होती होगी। चलते हुए फिसलने का डर होता होगा। चौडी पगडण्डी है, इसलिये उतना नहीं फिसलते होंगे। फिर आगे लगातार ढलान है। उत्तराखण्ड में 2500 मीटर तक की ऊंचाई पर इतनी बर्फ अक्सर नहीं पडती कि चौडा रास्ता भी अगम्य हो जाये। कुल मिलाकर जब हम जनवरी में आयेंगे, तो इस रास्ते से जा सकते हैं।
   2300 मीटर की ऊंचाई पर एक और बुग्याल मिला- नाम ध्यान नहीं। एक बज गया था यानी हमें डेढ घण्टा हो गया था। काफी बडा बुग्याल है यह। बताते हैं कि जब ऊपर नाग देवता पर खूब बर्फ पड जाती है तो वहां टैंट लगाने की जगह नहीं बचती। तब यहीं टैंट लगाये जाते हैं। दो टैंट अभी भी यहां लगे थे। यात्री सामान यहीं छोडकर ऊपर नागटिब्बा तक गये हुए थे। दो गाइड यहीं धूप में लेटे हुए थे। पूछने पर बताया कि बगल में थोडा सा नीचे उतरकर पानी का एक सोता है। पानी का सोता- यानी ताजा ठण्डा पानी- जिसके लिये हिमालय जाना जाता है- जिसके लिये हम पिछले चौबीस घण्टे से मर रहे थे। तुरन्त उबले पानी की एक बोतल खाली की और मैं पानी के सोते की तरफ चल दिया। नितिन और अमरीश से कह दिया कि आप मुख्य पगडण्डी से आगे चलो, मैं आपको पकड लूंगा। वे इधर चल दिये, मैं उधर।
   जरा सा नीचे उतरते ही पानी मिल गया। एक छोटे से कुण्ड में भरा हुआ था। मैंने सोचा कि कहीं मन्दिर के कुएं की तरह यह रुका हुआ पानी तो नहीं है। अगर रुका हुआ होता तो मैं इसे नहीं भरता। फिर गौर से देखा तो पाया कि बहुत थोडा-थोडा पानी बह रहा है। इसका अर्थ है कि पानी रुका हुआ नहीं है। पीने योग्य है। बोतल भर ली। एक ही सांस में गटक गया। फिर दोबारा भरी और वापस चल दिया।
   यह बुग्याल काफी बडा था। इसमें गडरियों की एक झौंपडी भी थी। कुछ टैंट ‘इण्डियाहाइक्स’ वालों के भी लगे थे। इण्डियाहाइक्स देहरादून से देहरादून तक 3600 रुपये में यह यात्रा कराता है। इण्डियाहाइक्स से जुडे स्थानीय लोगों से बात की तो वे उनसे जुडकर अच्छा महसूस कर रहे थे। बताया कि पहले ही खबर मिल जाती है कि फलां तारीख को इतने लोगों का ग्रुप आयेगा। न किसी से मोलभाव करना और न किसी की चिकचिक सुननी- समय पर पैसे भी आ जाते हैं।
   मैंने पूछा कि यह इतना चलता-फिरता रास्ता है। रोज ही लोग बडी संख्या में यहां आते हैं। तुम यहां कोई दुकान क्यों नहीं खोल लेते? बोले कि सभी लोग अपना राशन-पानी नीचे से ही लेकर आते हैं, हमसे कोई नहीं लेगा। मैंने कहा कि नीचे से इसीलिये लाते हैं कि ऊपर कुछ नहीं मिलता। एक बार ऊपर खाना मिलने लगेगा तो नीचे से कोई नहीं लायेगा। एक छानी डाल लो, सस्ते में लोगों के रुकने का भी इंतजाम होने लगेगा।
   यह ट्रैक जितना चलता-फिरता है, उसे देखते हुए यहां कुछ भी इंतजाम नहीं है। रोज औसतन 50 यात्री इस मार्ग से गुजरते हैं। कभी-कभी तो 100 तक भी यह संख्या पहुंच जाती है। ट्रैकिंग के लिहाज से यह संख्या काफी है। हिमालय के दूसरे हिस्सों में इससे कम यात्री संख्या होने के बावजूद भी रास्ते में खाने-पीने-रुकने का इंतजाम मिल जाता है। पन्तवाडी की तरफ पीने का पानी भी कई स्थानों पर उपलब्ध है। बडी आसानी से वहां सुविधाएं बनाई जा सकती हैं। यह अपेक्षाकृत एक नया ट्रैक है और गढवाल के उस इलाके में है, जहां पर्यटन है ही नहीं। एक तरफ दूर भागीरथी घाटी है और दूसरी तरफ यमुना घाटी और तीसरी तरफ दूर मसूरी-धनोल्टी। बीच का यह इलाका हमेशा से पर्यटकों और घुमक्कडों से अछूता रहा है। अब जब अचानक नागटिब्बा प्रसिद्धि पाने लगा तो स्थानीय लोगों को कुछ नहीं सूझा और उन्होंने अपनी पूरी ताकत ‘गाइड’ बनने में लगा दी। खच्चर खोले, सामान बांधा और ग्रुप को लेकर चल दिये। इससे आगे भी कुछ हो सकता है, ये लोग नहीं सोच पा रहे। हालांकि रास्ते में एक जगह ‘द गोट विलेज’ नाम से होटल बन रहा है। उसे उत्तरकाशी स्थित निम के एक प्रिंसिपल बनवा रहे हैं। उसके ढांचे को देखते हुए ही लग रहा है कि वह खर्चीले लोगों के लिये बन रहा है। हम जैसे बेचारे गरीब ट्रैकर उसे दूर से ही देखकर निकल जाया करेंगे।
   जहां ‘द गोट विलेज’ बन रहा है, उसके पास ही पानी का एक पाइप है। पानी ऊपर से कहीं से आता है, यहां एक टंकी में इकट्ठा होता है और इसकी आपूर्ति नीचे कर दी जाती है। यहां दो-तीन घर भी हैं और खेत भी। इसके बाद जंगल समाप्त हो जाता है और आबादी वाला इलाका आरम्भ हो जाता है। आबादी इस अर्थ में कि अब खेत हैं, यदा-कदा घर भी हैं और जंगल नहीं है। पहाड का ढाल पश्चिम की ओर होने के कारण दोपहर बाद की तेज धूप सीधे चेहरे पर लग रही थी।
   अब बडा ही तेज ढलान शुरू हो जाता है। फिर पगडण्डी पर बिखरे नुकीले पत्थर और धूल और भी परेशानी पैदा करती है। यह ढलान इतना ज्यादा है कि हम खैर मनाते रहे कि इधर से हमने चढाई नहीं की। अगले महीने यानी जनवरी में मुझे यहां फिर आना है तो इस ढलान को देखकर मन डांवाडोल होने लगा। इधर से हमें चढना पडेगा और इस खडी चढाई पर चढना आसान नहीं होगा।
   आज ज्यादातर हम नीचे ही उतरते रहे। नीचे उतरने में पैर दुखने लगते हैं। फिर इस खडे ढलान ने और भी दुखा दिये। जब एक मोटर-मार्ग पर पहुंचे तो हम तीनों में किसी की भी और चलने की हिम्मत नहीं बची थी। अभी भी पन्तवाडी काफी दूर था। यहां एक ट्रैवलर बस भी खडी थी और इसके यात्री अभी अभी नागटिब्बा की ट्रैकिंग पूरी करके आये थे और यह चलने को तैयार थी। हमने इसमें पन्तवाडी तक बैठने की प्रार्थना की लेकिन उन्होंने मना कर दिया। हम खडे होने को भी तैयार थे और छत पर बैठने को भी लेकिन निराशा ही हाथ लगी। इसलिये फिर से पैदल चलना पडा।
   यह रास्ता गूगल मैप पर नहीं है। यह मोटर-मार्ग पगडण्डी को चार-पांच स्थानों पर काटता है। थोडा नीचे उतरकर फिर सडक मिल जाती है। सडक पार करके फ़िर से पगडण्डी नीचे जाती दिखती है। इसी तरह जब तीसरी बार सडक ने पगडण्डी को काटा तो हम विश्राम करने बैठ गये। चलने को हुए तो एक सूमो मिल गई। इसने हमें बैठा लिया। बडा सुकून मिला। यह सूमो नैनबाग जा रही थी। अब तो हमारा पन्तवाडी उतरने का कोई औचित्य ही नहीं था। कुछ ही देर में नैनबाग पहुंच गये।
   ट्रैकिंग समाप्त हो चुकी थी। भूखे और प्यासे रहने के कारण थकान अभी भी हो रही थी। साढे पांच बजे थे, जब हम नैनबाग पहुंचे। पता चला कि अब न तो कोई बस मिलेगी और न ही कोई शेयर्ड सूमो - न देहरादून के लिये और न विकासनगर के लिये। हमारा आज का मसूरी एक्सप्रेस में आरक्षण था- वेटिंग आरक्षण। अब हमारे सामने दो ही विकल्प थे- या तो आज रात नैनबाग रुकें या टैक्सी करें। नैनबाग रुकने का अर्थ था कि कल का पूरा दिन खराब होना और एक और दिन की छुट्टी लेना। इसलिये हमने 2500 रुपये में देहरादून तक के लिये टैक्सी कर ली।
   तीन घण्टे में देहरादून पहुंच गये। अब तक मसूरी एक्सप्रेस का चार्ट बन गया था और हमारा टिकट कन्फर्म नहीं हुआ था। अभी लम्बी छुट्टियां समाप्त हुई थीं, इसलिये ट्रेन में भी भीड थी। हमने टीटीई से बात की तो उसने हमें सीटें देने में हाथ खडे कर दिये। उधर नन्दा देवी एसी एक्सप्रेस में भी भारी वेटिंग चल रही थीं। आलू-परांठे की दावत उडाकर आईएसबीटी पहुंचे। पूरी रात का सफर था। हम इसे अधिक से अधिक आरामदायक तरीके से करना चाहते थे। उत्तराखण्ड परिवहन की दिल्ली जाने वाली सभी वातानुकूलित बसें पहले से ही फुल थीं। अब उत्तराखण्ड में हिमाचल की तर्ज पर बसों की ऑनलाइन बुकिंग होने लगी है। साधारण बस में नहीं जाना। थके भी थे और देहरादून से मुजफ्फरनगर तक यानी कम से कम पांच घण्टों का रास्ता बडा ही खराब है।
   आखिरकार प्राइवेट बसों की शरण में गये। 400 रुपये में दिल्ली तक शयनयान बस मिल गई। उत्तर भारत में इन प्राइवेट बसों का रिकार्ड बडा ही खराब रहता है। इसने बताया कि रात ग्यारह बजे बस यहां से चल पडेगी तो इसका अर्थ था कि बारह बजे के बाद ही चलेगी। दिल्ली पहुंचने में सुबह के आठ बज जाने हैं। साढे नौ बजे से मेरा ऑफिस है। लेकिन शयनयान के आराम को देखते हुए इसी में जाना तय हो गया।
   भीड इतनी थी कि समय से पहले ही यह बस भर गई। बस भर गई हो तो ये लोग इसे देहरादून में क्यों खडी रखेंगे? फिर भी आईएसबीटी से चलते-चलते साढे ग्यारह बज गये। यह बस हरिद्वार होते हुए दिल्ली की ओर चली। इसका कारण था कि देहरादून से निकलते ही छुटमलपुर की तरफ शिवालिक की पहाडियों में कई जगह पुलिया बनाने का काम चल रहा है तो वहां कई कई किलोमीटर का जाम लगा मिलता है। इस जाम से बचने का सर्वोत्तम तरीका है कि हरिद्वार के रास्ते चलो। नितिन और अमरीश मेरठ उतर जायेंगे इसलिये हमने यहीं एक-दूसरे को अलविदा कह दिया।
   सुबह छह बजे आंख खुली। बस आनन्द विहार से आगे कडकडी मोड की ओर बढ रही थी। वहां से गीता कालोनी और फिर यमुना पार करके कश्मीरी गेट मेट्रो स्टेशन के गेट नम्बर एक के पास बस रुक गई। फिर तो कितनी देर लगती है शास्त्री पार्क जाने में?

वह स्थान जहां हम रात रुके थे। ऊपर बायीं चोटी ही नागटिब्बा है।



मसूरी 


यही वो स्थान है जहां नाग मन्दिर है और यहीं से पन्तवाडी वाला रास्ता भी जाता है।

नाग देवता मंदिर


नाग देवता मन्दिर के अहाते में ही यह कुआं है, जिसमें गन्दा पानी था।

चाय और खिचडी का भोजन


पन्तवाडी के रास्ते में पडने वाला एक बुग्याल




पन्तवाडी जाने का पथरीला और धूलभरा रास्ता


नीचे दिखता पन्तवाडी गांव


देहरादून में मनपसन्द और भरपेट भोजन


1. नागटिब्बा ट्रेक-1
2. नागटिब्बा ट्रेक-2




Comments

  1. कभी मज़ा तो कभी सजा :O

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  2. ha ha. aaj ke baad trekking band :D

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  3. Replies
    1. इसमे थकान बहुत होती है. फिर भूखे प्यासे पहाड़ चढते रहो..

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  4. हा हा हा
    आज से ट्रेकिंग बन्द और कल से चालू

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  5. इंतजार खत्म लेकिन अभी पढा नही है

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  6. नीरज भाई काफी दिनों बाद इस ट्रैक की पोस्ट आई है
    सब खैरियत तो है..!

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    1. हाँ भाई, सब खैरियत है, लिखने का कम ही मन करता है आजकल...

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  7. कश्मीरी गेट से शास्त्री पार्क...बस केवल 10 मिनिट।
    खेर भाई ट्रेकिंग के दौरान पानी के बगैर गुजारा करना अत्यंत कठिन और कष्टप्रद रहा होगा...
    कमाल की सहनशीलता दिखाई आप सभी ने...

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  8. To kya samjha jaye ,, ki tracking continue

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  9. बहुत सुन्दर वर्णन नीरज जी, साथ ही फोटो भी काफी मनमोहक तथा आकर्षक हैं. मैं भी घुमने का शौक रखता हूं, पर बैंक की नौकरी के कारण घुमने का मौका जरा सा कम मिल पाता है. फिलहाल दिनांक 22.02.2016 से 24.02.2016 तक जैसलमेर भ्रमण का कार्यक्रम बनाया है जो निम्न प्रकार से है :- 21.02.2016 को शाम में जयपुर से प्रस्थान; 22.02.2016 को सुबह रामदेवरा बाबा के दर्शन; 22.02.2016 को दोपहर में भादरिया माता जी के दर्शन; 22.02.2016 को शाम में सम (जैसलमेर से 40 किमी दूर स्थान जहां रेत के टीले हैं) में सूर्यास्त देखना तथा ऊंट सफारी एवं सम में ही टेंट में रात्रि विश्राम; 23.02.2016 को सम में सूर्योदय देखना तथा बाद मे तनोट के लिये प्रस्थान; 23.02.2016 को रात्रि मे जैसलमेर में रुकेंगें; 24.02.2016 को दिन में जैसलमेर के किले; हवेलिया आदि का भ्रमण तथा शाम में जयपुर के लिये वापसी.
    मैं इस यात्रा का पूरा वृतांत फोटो सहित आपको भेजूंगा.
    आप इस यात्रा के संबंध में कुछ सलाह देना चाहेंगे तो बडी कृपा होगी.
    संतोष प्रसाद सिंह

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    1. संतोष जी, सलाह तो मैं कुछ नहीं दूँगा, आपने अच्छा कार्यक्रम बनाया है. आपके वृत्तान्त की प्रतीक्षा रहेगी...

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  10. वाह, वर्णन ऐसा लगता है जैसे स्वयं गये हों।

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  11. Neeraj bhai..any chance of organising a tour covering Tungnath, chandrashila, kedarnath, devasriya taal during 1st to 15th May? -Pawan

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    1. नहीं सर, उधर का कोइ प्लान नहीं है...

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  12. This comment has been removed by the author.

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    1. भाई आप पहाड़ो पर इतना घूमते हो आपको थकान नहीं होती क्या ? हम लोगो को तो कई दिन लग जाते हैं नार्मल होने में ?

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    2. Neerah Bhai I am from Jodhpur Rajasthan. I am working in Indian Railway.Your travelogues are very good.
      Kabhi Jodhpur AAO to mujse Jarur milana
      Dono Bhai Ek saath Khana Khayenge My mobile no. 9414914104
      Or ek baat Janana chahta hoo ki kya me meri splendor 100 cc bike le kar leh yatra kar sakta hun?
      Log kahate hain ki 100 cc bike vahan fail ho jaati hai

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    3. महेंद्र जी, 100 सीसी वैसे तो काफी कम होता है लेकिन अगर आप चाहेंगे तो बाइक लद्दाख चली जायेगी... यदि आप इस बाइक से लद्दाख जाना चाहते हैं तो बिल्कुल जा सकते हैं... हाँ, पीछे किसी को मत बैठाना...
      और कभी जोधपुर आना होगा, तो आपसे मिलूंगा...धन्यवाद आपका...

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  13. Neeraj bhai treking band na Karna. ..

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ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब