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सतपुडा नैरो गेज पर आखिरी बार- छिन्दवाडा से नागपुर


   24 नवम्बर 2015
   ट्रेन नम्बर 58845 पहले भारत की सबसे लम्बी नैरो गेज की ट्रेन हुआ करती थी - जबलपुर से नागपुर तक। यह एकमात्र ऐसी नैरो गेज की ट्रेन थी जिसमें शयनयान भी था। आरक्षण भी होता था। नैरो गेज में शयनयान का डिजाइन कैसा होता होगा - यह जानने की बडी इच्छा थी। कैसे लेटते होंगे उस छोटी सी ट्रेन में पैर फैलाकर? अब जबकि पिछले कुछ समय से जबलपुर से नैनपुर वाली लाइन बन्द है तो यह ट्रेन नैनपुर से नागपुर के बीच चलाई जाने लगी। नैनपुर से चलकर सुबह आठ बजे यह छिन्दवाडा आती है और फिर नागपुर की ओर चल देती है। मैंने इसमें सीटिंग का आरक्षण करा रखा था ताकि इसके आधार पर नागपुर में डोरमेट्री ऑनलाइन बुक कर सकूं।
   स्टेशन के बाहर बायें हाथ की तरफ कुछ दुकानें हैं। सुबह वहां गर्मागरम जलेबी, समोसे और पोहा मिला। चाय के साथ सब खा लिया - नाश्ता भी हो गया और लंच भी। बाकी कोई कसर रह जायेगी तो रास्ते में खाते-पीते रहेंगे।
   पांच मिनट की देरी से ट्रेन छिन्दवाडा आई। जो भीड थी, सब उतर गई और ज्यादा चढे भी नहीं। मैं गया सबसे पहले शयनयान डिब्बे को देखने, जो ट्रेन के बीच में लगा था। यह शयनयान-सह-सीटिंग डिब्बा था। इसका डिजाइन ब्रॉड गेज और मीटर गेज के डिब्बों की तरह नहीं था। बल्कि ऊपर दस शायिकाएं थीं और नीचे छत्तीस सीटिंग। मेरा आरक्षण इनमें से एक सीटिंग पर था। चूंकि सीट पर बैठने के बाद सिर के ऊपर शायिकाएं हैं तो मैं आराम से सीटिंग के टिकट पर शायिकाओं पर सोता हुआ जा सकता था लेकिन मेरा काम था दरवाजे पर खडे होने का। इस डिब्बे में दो ही दरवाजे थे - एक यहां सीधे हाथ की तरफ और दूसरा डिब्बे के दूसरे सिरे पर उल्टे हाथ की तरफ। ऐसे में प्लेटफार्म दूसरी तरफ आने पर बार-बार एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे तक जाने के लिये पूरे डिब्बे के अन्दर से होकर जाना पडता। इसलिये मैंने यह डिब्बा छोड दिया और जनरल डिब्बे में पनाह ली। वहां भी ज्यादा भीड नहीं थी।
    छह मिनट की देरी से यानी आठ बजकर छब्बीस मिनट पर ट्रेन छिन्दवाडा से चल दी।
   स्टेशन से चलते ही ट्रेन ने दाहिनी तरफ बडा मोड लिया। बराबर में एक-डेढ किलोमीटर तक ब्रॉड गेज की पटरियां भी बिछी हुई हैं। नैरो गेज बन्द करके इन्हें ही आगे नागपुर तक बढा देंगे। अगला स्टेशन शिकारपुर है। यह एक हाल्ट है। आज टिकट वाला ठेकेदार नहीं आया था तो यात्री दौडे-दौडे सीधे गार्ड के पास पहुंचे। गार्ड ने सबको ट्रेन में बैठ जाने को कह दिया। सात-आठ ही यात्री थे। सब बैठ गये और ट्रेन चल पडी।
   ट्रेन नैरो गेज होने के बावजूद भी फर्राटे से दौड रही थी। रफ्तार नापी तो चालीस से ऊपर मिली। देश के कई हिस्सों में नैरो गेज की अधिकतम स्पीड 30 ही है। ट्रेन में 10 डिब्बे लगे थे जो निश्चित ही नैरो गेज के लिहाज से काफी ज्यादा है। इसमें दक्षिण-पूर्व-मध्य रेलवे शाबाशी का पात्र है। नैरो गेज पर इन्होंने काफी काम कर रखा है। कम से कम उत्तर-मध्य रेलवे की नैरो गेज से तो बहुत अच्छा है।
   सबसे पीछे वाले डिब्बे में बैठकर आगे देखने पर ट्रेन ऐसी लगती जैसे कुछ शैतानी बच्चों को कतार बनाकर दौडने को कह दिया हो। कतार दौडती जाती लेकिन कभी एक इधर झुकता, उसी समय दूसरा उधर झुक रहा होता। डगमग-डगमग। इनका बस चलता तो ये पटरियों से उतरकर इधर-उधर भाग जाते।
   अगला स्टेशन लिंगा है, फिर बिसापुर कलां और फिर उमरानाला। उमरानाला हाल्ट नहीं है बल्कि स्टेशन है। गार्ड ने सबसे पहले शिकारपुर वालों से दस-दस रुपये लिये। एक ने रसीद भी मांगी लेकिन उसने नहीं दी। सात-आठ यात्री चढे थे, तीन से पैसे लिये यानी तीस रुपये। फिर स्टेशन से बाहर चला गया। कुछ देर बाद लौटा तो हाथ में एक किलो टमाटर लटके थे। अपने पास रख लिये। घर जायेगा तो सब्जी बनेगी। यहीं एक महिला ने मुझे दस रुपये देकर कहा- मंगोडी। मैंने सोचा कि यह शिकारपुर से चढी होगी। तीन लोगों से गार्ड ने पैसे ले लिये, चार लोग अभी भी बचे हैं। तो यह अपनी यात्रा को वैध कराने के लिये मुझसे ‘मंगोडी’ तक का टिकट मंगा रही है। मैं दौडा-दौडा काउंटर पर गया। उसने हंसकर और डांटकर भगा दिया- तो यहां क्यों आये हो? बाहर से लो। तब मुझे ध्यान आया कि मंगोडी कोई स्टेशन नहीं है बल्कि मूंग की दाल की पकौडियां हैं जो प्लेटफार्म पर ताजी-ताजी बनकर बिक रही थी। जिस समय महिला ने ‘मंगोडी’ कहा, मेरा सारा ध्यान इसी बात पर लगा था कि यह बेटिकट है और टिकट पाने के लिये इसने पैसे दिये हैं। यह कन्सन्ट्रेशन इतना अधिक था कि अगर वह दस रुपये देकर ‘टमाटर’ कहती, तब भी मैं ‘टमाटर’ का ही टिकट लेने पहुंच जाता।
    फिर तो मैंने भी ‘मंगोडी’ का टिकट लिया।
   उमरानाला के बाद पहाडी रास्ता आरम्भ हो जाता है। बगल में ब्रॉड गेज की लाइन भी बिछी मिली। नैरो गेज में छोटी होने के कारण ज्यादा तेज घुमाव दिये जा सकते हैं, लेकिन ब्रॉड गेज में इतने तेज घुमाव सम्भव नहीं हैं। इसलिये यहां पहाडी मार्ग पर नैरो गेज और ब्रॉड गेज का एलाइनमेंट अलग है। आगे तो यह इतना ज्यादा है कि उमरानाला से अगला स्टेशन कुक्डाखापा करीब एक किलोमीटर खिसक गया है। यानी नया स्टेशन जो बनेगा, वो पुराने स्टेशन से एक किलोमीटर दूर बनेगा। इस पहाडी मार्ग के लिये नये सिरे से भूमि अधिग्रहण करना पडा होगा।
   कुक्डाखापा में एक प्लेटफार्म है और तीन लाइनें हैं। ट्रेन बीच वाली लाइन पर रुकी जबकि प्लेटफार्म वाली लाइन खाली पडी थी। इसका अर्थ है कि यहां ट्रेनों का क्रॉसिंग है और नागपुर की तरफ से आने वाली ट्रेन को प्लेटफार्म वाली लाइन पर लिया जायेगा। यहां हमारी ट्रेन उन्नीस मिनट खडी रही। नागपुर से ट्रेन आई, वो गई, तब हमारी ट्रेन आगे बढी। स्टेशन के बगल में ही कुक्डाखापा जलप्रपात भी है जो इस समय सूखा पडा था। मानसून में खूब पानी आता होगा। जलप्रपात हो और बगल से ट्रेन गुजर रही हो, ऐसा नजारा भारत में बहुत कम है। ऐसा सबसे बडा जलप्रपात तो दूधसागर है, कोंकण रेलवे पर भी कुछ जलप्रपात रेलवे लाइन की बगल में हैं और पातालपानी भी प्रसिद्ध है। कुक्डाखापा का नाम मैंने एक-दो दिन पहले ही सुना। बुरी खबर ये है कि नये एलाइनमेंट के कारण रेलवे लाइन अब इस जलप्रपात के पास से नहीं गुजरेगी, बल्कि बहुत दूर से जायेगी।
   मीडिया किस तरह से खबरों को गलत तरीके से लिखता है, इसका एक उदाहरण कुक्डाखापा भी है। फिलहाल ध्यान नहीं कि कौन सा अखबार था और कब उसने यह छापा। लिखा था कि कुक्डाखापा वालों को अब तीन किलोमीटर (वास्तव में एक किलोमीटर के आसपास है) दूर जाना पडा करेगा ट्रेन पकडने। फिर केन्द्र सरकार की जमकर आलोचना की थी - अच्छे दिनों का कटाक्षी नारा भी लगाया था। तो भईया, बात ये है कि अब कुक्डाखापा वालों को तीन किलोमीटर दूर जाना पडा करेगा, पहले दूसरे गांव वालों को तीन किलोमीटर दूर कुक्डाखापा आना पडता था।
   इसके बाद मोहपानीमाल स्टेशन है, फिर भीमालगोंडी। यहां 10 रुपये के 12 सन्तरे मिल रहे थे। आखिर हम नागपुर जा रहे हैं। नागपुर के आसपास सन्तरे इफ़रात होते हैं। मैंने 5 के 6 सन्तरे ले लिये। अब समस्या ये आई कि इन्हें रखूं कहां? लेते समय याद नहीं आया। फिर एक गार्ड को दे दिया, एक सन्तरा एक बच्चे को दे दिया, दो सन्तरे जेब में रख लिये और एक खाने लगा। बचा एक - तो वो भी सीट पर बैठे एक आदमी को दे दिया। उसने मुस्कराते हुए ले लिया और अपनी बराबर में रख लिया। ट्रेन चल पडी, तो मुझे दिखाई दिया कि उस पट्ठे ने पहले ही 20 रुपये के सन्तरे अपनी बराबर में रखे हुए हैं। वो दो लोग थे और ट्रेन चलते ही सन्तरे खने लगे। मैंने फटाक से अपनी जेब से दोनों सन्तरे निकाले और उनके ढेर में मिला दिये। फिर तो हम तीनों अगले आधे घण्टे तक सन्तरे ही सन्तरे खाते रहे।
   इसके बाद घडेला स्टेशन है, फिर देवी है और फिर है रामाकोना। अब पहाड समाप्त हो गये थे। शायद भीमालगोंडी में ही पहाडी रास्ता समाप्त हो गया था - याद नहीं। रामाकोना में भी ट्रेन बीच वाली लाइन पर जाकर रुकी तो समझते देर नहीं लगी कि सामने से ट्रेन आ रही है। नागपुर-छिन्दवाडा पैसेंजर आई और ग्यारह बजकर बत्तीस मिनट पर पच्चीस मिनट की देरी से हमारी ट्रेन पुनः चल पडी।
   रामाकोना से चले तो कन्हान नदी मिल गई। इसे पार करके आगे बढे। नैरो गेज के पुल के बराबर में ब्रॉड गेज का पुल भी बन चुका है। कन्हान नदी काफी लम्बी नदी है जो उधर दमुआ से भी आगे से कहीं से आती है। यह आमला-छिन्दवाडा लाइन को भी काटती है। आगे नागपुर के पास तो इसके नाम पर कन्हान शहर भी बसा हुआ है। उसके बाद यह वैनगंगा में मिल जाती है। पानी तो ज्यादा नहीं था लेकिन नवम्बर के लिहाज से काफी पानी था।
   अगला स्टेशन सौंसर है। गाडी अब तक आधा घण्टा लेट हो चुकी थी। इसके बाद बेरडी है, फिर लोधीखेडा है, फिर पारडसिंगा है और फिर सावंगा है। सावंगा मध्य प्रदेश का इस लाइन पर आखिरी स्टेशन है। इसके बाद एक नाला मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा बनाता है। सीमा नाला बनाता है, इस बात का पता गूगल मैप से चला। मैं सीमा सूचना पट्ट को ढूंढता रहा लेकिन जिस तरफ मैं था, उस तरफ सीमा को दर्शाती कोई सूचना नहीं थी। अन्यथा दक्षिण-पूर्व-मध्य रेलवे अपने यहां जिलों की सीमा भी दिखाता है।
   महाराष्ट्र का पहला स्टेशन केलोद हाल्ट है। सीमा की सूचना यहां स्टेशन की एक दीवार पर भी लिखी थी कि मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सीमा तथा साथ के साथ छिन्दवाडा जिले और नागपुर जिले की भी सीमा रेलवे के किलोमीटर 1351/10 और 1351/11 के बीच में है। इसके बाद सावनेर है। सावनेर से निकले तो दाहिनी तरफ से ब्रॉड गेज लाइन आती दिखाई दी और नैरो गेज के साथ-साथ नागपुर की तरफ चलने लगी। पहले तो सोचा कि नागपुर से यहां तक ब्रॉड गेज का काम पूरा हो गया है। लेकिन जब निगाह रेल की पटरियों पर गईं तो मैं चौंक गया। पटरियां ऊपर से बिल्कुल चिकनी और चमकदार थीं, इसका अर्थ है कि यहां ट्रेनों का काफी आवागमन होता है। हो सकता है कि सावनेर में कोई पावर प्लांट हो, उसके लिये कोयले की मालगाडियां आती हों। बाद में घर आकर और खोजबीन की तो पता चला कि सावनेर में कोयले की खदानें हैं। यहां से कोयला निकाला जाता है और बाहर भेज दिया जाता है। ज्यादातर कोयला थोडा आगे खापरीखेडा पावर प्लांट में चला जाता है। तो इसलिये पटरियां चिकनी थीं। पटरियों की चिकनाहट से ही पता चल जाता है कि इन पर कितना ट्रैफिक चलता है।
   अगला स्टेशन टाकली है। टाकली के बाद ब्रॉड गेज की लाइन दाहिनी तरफ से बायीं तरफ आ जाती है। आमान परिवर्तन में इस ब्रॉड गेज लाइन का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। लगभग 30 किलोमीटर तक नई लाइन नहीं बिछानी पडेगी।
   टाकली के बाद पाटनसावंगी, पाटनसावंगी टाउन, पिपला और खापरीखेडा स्टेशन हैं। खापरीखेडा में ही पावर प्लांट है जहां सावनेर के कोयले की आपूर्ति हो जाती है। यहां हमारी ट्रेन की जोडीदार ट्रेन मिली अर्थात नागपुर-नैनपुर पैसेंजर। भयंकर भीड थी इसमें।
   अब तो नागपुर उपनगर में दाखिल हो ही गये थे। अगला स्टेशन कोराडीह है। फिर दो जगहों पर ब्रॉड गेज लाइन पुल के द्वारा इसके ऊपर से गुजरी। यह ब्रॉड गेज मुम्बई-हावडा लाइन थी। फिर दाहिनी तरफ एक बडा मोड लिया, उधर बायीं ओर से नागभीड से आने वाली नैरो गेज लाइन मिल गई और हम पहुंच गये इतवारी जंक्शन। इतवारी से चले तो बडा ही मजेदार नजारा देखने को मिला। कुछ दूर तक ब्रॉड गेज की एक लाइन और नैरो गेज बराबर-बराबर में चलती हैं। ब्रॉड गेज पर एक मालगाडी चल रही थी। दोनों की रेस शुरू हो गई। कमाल की बात ये रही कि नैरो गेज रेस जीत गई। असल में आगे नैरो गेज और ब्रॉड गेज की वो लाइन एक दूसरे को काटती हैं। तो जाहिर है कि एक समय में एक ही ट्रेन जा सकती है। सिग्नल नैरो गेज को मिल गया, ब्रॉड गेज को पीछे रह जाना पडा। यह हालांकि रेलवे का नियमित रूटीन है कि मालगाडी को रोककर यात्री गाडी को रास्ता दो; लेकिन इस रेस से मेरा तो मनोरंजन ही हुआ।
   आगे मोतीबाग है। यह स्टेशन तो नहीं है, बल्कि नैरो गेज ट्रेनों का मरम्मत यार्ड है। हालांकि ‘ट्रेन इंक्वायरी’ पर इसे स्टेशन दिखाया गया है। यही ट्रेन नागपुर जाकर वापस मोतीबाग आकर यार्ड में खडी हो जायेगी। इसके बाद नैरो गेज नागपुर-दिल्ली ब्रॉड गेज लाइन के नीचे से निकलकर नागपुर स्टेशन पर जा पहुंची। इधर हमारी ट्रेन नागपुर प्लेटफार्म पर दाखिल हो रही थी, उधर बराबर वाले ब्रॉड गेज प्लेटफार्म से मन्नारगुडी - भगत की कोठी एक्सप्रेस (16864) प्रस्थान कर रही थी। यहां नैरो गेज के दो प्लेटफार्म हैं। दोनों का ‘डैड एंड’ भी यहीं है। हमें पता भी नहीं चलता कि कब हम नैरो गेज के प्लेटफार्म से ब्रॉड गेज के प्लेटफार्म नम्बर एक पर पहुंच जाते हैं। दोनों बराबर-बराबर में हैं। हमारा एक कदम दक्षिण-पूर्व-मध्य रेलवे के नागपुर पर होता है तो दूसरा कदम मध्य रेलवे के नागपुर पर। नैरो गेज दक्षिण-पूर्व-मध्य रेलवे की है और इसके नागपुर स्टेशन का कोड है - NGPB जबकि ब्रॉड गेज वाले नागपुर का कोड है- NGP. कमाल की बात ये है कि बडे नागपुर वाले केवल अपने यहां आने वाली ट्रेनों की ही उद्घोषणा करते हैं, छोटे नागपुर पर आने-जाने वाली ट्रेनों की नहीं।
   अभी तीन ही बजे थे। शाम आठ बजे से डोरमेट्री में मेरा बिस्तर बुक है। पांच घण्टे मुझे बिताने हैं। इसलिये मैं प्लेटफार्म नम्बर एक पर ही बैठ गया और आने-जाने वाली ट्रेनों को देखता रहा।

   तीन बजकर उन्नीस मिनट पर बिलासपुर से तिरुनेलवेली जाने वाली ट्रेन (22619) प्रस्थान कर गई - पता नहीं किस प्लेटफार्म से। इसके बाद तीन बजकर छत्तीस मिनट पर बंगलुरू से निजामुद्दीन जाने वाली राजधानी (22691) प्लेटफार्म एक पर आई और 13 मिनट की देरी से तीन बजकर तितालीस मिनट पर चली गई। राजधानी है तो विशेष भी है। प्लेटफार्म पर आते ही एक सफाईकर्मी इसके शीशे बाहर से साफ करने लगा। लालागुडा का WAP-7 इंजन इसमें लगा था। इसके जाने के दो मिनट बाद ही हावडा से पुणे जाने वाली आजाद हिन्द (12130) प्लेटफार्म तीन पर आ गई- बिल्कुल ठीक समय पर। दक्षिण-पूर्व-मध्य रेलवे आपको सलाम! 1100 किलोमीटर से ज्यादा का रास्ता तय हो गया और गाडी बिल्कुल ठीक समय पर। वो भी तब जबकि यह झारखण्ड-ओडिशा-छत्तीसगढ को पार करती है जहां हर दो-दो मिनट में कोयले से लदी मालगाडियां इधर से उधर दौड लगाती रहती हैं।
   आजाद हिन्द के जाने से तीन मिनट पहले तीन बजकर पचपन मिनट पर हैदराबाद से नई दिल्ली जाने वाली तेलंगाना एक्सप्रेस (12723) प्लेटफार्म एक पर आ गई। पहले इस गाडी को एपी एक्सप्रेस कहते थे यानी आन्ध्र प्रदेश एक्सप्रेस। लेकिन आन्ध्र प्रदेश के विभाजन के बाद हैदराबाद जब तेलंगाना में आ गया तो इस गाडी का नाम तेलंगाना एक्सप्रेस रख दिया। फिर नई दिल्ली और विशाखापटनम के बीच नई वातानुकूलित ट्रेन (22415/22416) चलाई गई, उसे एपी एक्सप्रेस यानी आन्ध्र प्रदेश एक्सप्रेस नाम दिया गया। तेलंगाना एक्सप्रेस को भी लालागुडा का WAP-7 इंजन ही खींच रहा था।
   बंगलुरू राजधानी के जाने के बाद एक महिला सफाईकर्मी ने बडी शिद्दत से प्लेटफार्म नम्बर एक को साफ किया। मन किया कि इसका फोटो खींचकर ‘प्रभु जी’ को भेज दूं। लेकिन तेलंगाना एक्सप्रेस के यात्रियों ने दस मिनट के ठहराव में ही सन्तरे खा-खाकर प्लेटफार्म का वो हाल कर दिया कि कह नहीं सकता। हालांकि सब पढे-लिखे थे और सफाई के प्रति बडे ही जागरुक थे लेकिन उन्हें ख्याल ही नहीं आया होगा कि जहां वे सन्तरे के छिलके फेंक रहे हैं, वो कितना साफ सुथरा स्टेशन है? उनके आने से पहले प्लेटफार्म दिल्ली के मेट्रो प्लेटफार्मों की टक्कर ले रहा था। यही लोग मेट्रो प्लेटफार्मों पर छिलके तो छोडिये, सन्तरे का बीज भी थूकने से पहले दस बार सोचेंगे। अगर उनकी जगह मैं होता, मेरे हाथ में सन्तरा होता तो मैं कभी भी न छिलका प्लेटफार्म पर फेंकता और न बीज थूकता बल्कि उसी पॉलीथीन में सब डालता रहता। बाद में उचित जगह पर फेंक देता। मैंने यह आदत बना रखी है, आप भी बनाइये।
   ट्रेन में मैं मूंगफली भी कभी नहीं खाता। मूंगफली खाने का असली आनन्द है घर में टीवी देखते हुए। जहां भी कूडा फेंकते हैं, वो स्थान कूडाघर कहलाता है। आपने मूंगफली का एक भी छिलका अगर अपनी सीट के नीचे फेंक दिया तो समझिये कि आप कूडे पर बैठे हैं। आपको एहसास नहीं होता। जिस दिन भी इस बात का एहसास होने लगेगा, उसी दिन से कल्याण है।
   फिर चार बजकर बारह मिनट पर धनबाद से कोल्हापुर जाने वाली दीक्षाभूमि एक्सप्रेस (11046) प्लेटफार्म दो पर आई। इसमें WDM-3A इंजन लगा था यानी डीजल इंजन। इस ट्रेन का ज्यादातर मार्ग विद्युतीकृत नहीं है, इसलिये डीजल इंजन लगा था। ग्यारह मिनट रुककर अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान कर गई। अभी भी इसे कोल्हापुर पहुंचने में दो रातें और कल का पूरा दिन लगेगा। उधर ठीक इसी समय हावडा से लोकमान्य तिलक जाने वाली ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस (12102) प्लेटफार्म तीन पर आई। इसके सभी वातानुकूलित डिब्बों पर बीएसएनएल और हिमालया हर्बल के विज्ञापन लगे थे। पांच मिनट की देरी से यानी चार बजकर पैंतीस मिनट पर इसने नागपुर से प्रस्थान किया।
   इसके बाद स्टेशन पर शान्ति छा गई। कुछ मालगाडियां इधर से उधर गईं। अगली यात्री गाडी आई सवा पांच बजे गोंदिया से मुम्बई जाने वाली विदर्भ एक्सप्रेस (12106) प्लेटफार्म तीन पर। ठीक इसी समय त्रिवेन्द्रम से कोरबा जाने वाली ट्रेन (22648) दूर प्लेटफार्म 6 से जाती दिखी। फिर प्लेटफार्म एक पर यशवन्तपुर से निजामुद्दीन जाने वाली कर्नाटक सम्पर्क क्रान्ति (12649) आ गई। इसमें भी लालागुडा का WAP-7 इंजन लगा था। कुछ ‘हाई कैपेसिटी पार्सल वैन’ भी इसमें लगी थीं। पता नहीं ‘हाई कैपेसिटी’ कैसी होती हैं? पार्सल वाले वैसे भी सामान की मां-बहन करने में विश्वास रखते हैं।
   फिर प्लेटफार्म 6 पर अहमदाबाद-हावडा एक्सप्रेस (12833) आई। यह अपने निर्धारित समय से पन्द्रह मिनट पहले ही आ गई, जबकि लगभग 1000 किलोमीटर की दूरी तय कर चुकी है। इसके लिये पहले तो मेरी फेवरेट पश्चिम रेलवे और फिर मध्य रेलवे वाहवाही के पात्र हैं। यही लोग जानते हैं कि ट्रेनें समय पर कैसे चलाई जाती हैं। अन्यथा यूपी-बिहार खासकर इलाहाबाद डिवीजन ने तो रेलवे की ऐसी दुर्गति बना रखी है कि एक घण्टे देरी से चलती ट्रेन भी लगती है कि समय पर चल रही है। कोई ट्रेन सही समय पर चल रही है तो चमत्कार कहा जाता है।
   पांच बजकर चालीस मिनट पर कोल्हापुर से गोंदिया जाने वाली महाराष्ट्र एक्सप्रेस (11039) पता नहीं किस प्लेटफार्म से प्रस्थान कर गई - बिल्कुल ठीक समय पर। कोल्हापुर यहां कहीं आसपास नहीं है बल्कि 1200 किलोमीटर से भी ज्यादा है अर्थात जितनी दूर दिल्ली से पटना और धनबाद हैं, उससे भी ज्यादा दूर।
   इसके बाद निजामुद्दीन से हैदराबाद जाने वाली दक्षिण एक्सप्रेस (12722) अपने निर्धारित समय पर अर्थात पांच बजकर पैंतालिस मिनट पर चली गई। फिर छह बजे आई पटना से बंगलुरू जाने वाली संघमित्रा एक्सप्रेस (12296) प्लेटफार्म दो पर। इसमें बिजली का इंजन लगा था। निश्चित ही इटारसी में इसे लगाया गया होगा। इटारसी से उधर जबलपुर की तरफ तो बिजली की लाइन है ही नहीं। संघमित्रा के साथ साथ ही पुरी-अजमेर एक्सप्रेस (18421) प्लेटफार्म तीन पर आई।
   उधर प्लेटफार्म 7 से नागपुर-आमला पैसेंजर (51293) चली गई। यह ट्रेन साढे दस बजे तक आमला पहुंच जायेगी और कल सुबह वहां से छिन्दवाडा जायेगी।
   तीन घण्टे मुझे यहां ट्रेनें देखते हुए हो गए। इस दौरान यह समझ में आया कि प्लेटफार्म एक पर इटारसी की तरफ जाने वाली ट्रेनें आती हैं। दो पर इटारसी से आकर वर्धा की तरफ जाने वाली ट्रेनें, तीन पर गोंदिया से आने वाली और वर्धा की तरफ जाने वाली ट्रेनें आती हैं। दिशा के अनुसार प्लेटफार्म का चयन किया जाता है। तभी ट्रेनें आपके स्टेशन पर सही समय पर आयेंगीं और सही समय पर प्रस्थान करेंगीं। अन्यथा एक ट्रेन जायेगी तो उसके चक्कर में कई ट्रेनें खडी हो जाती हैं। नागपुर इस बात को बखूबी जानता है और करता भी है।
   फिर मैं बाहर पेटपूजा करने चला गया। वापस आया तो आठ बज चुके थे। डोरमेट्री में गया तो देखा कि वहां ‘डबल डेकर’ डोरमेट्री है। नीचे वाले बिस्तर का किराया ज्यादा था, ऊपर वाले का कम। मैंने पहले ही कम किराया देखकर ऊपर वाला बिस्तर बुक किया था। तब मुझे नहीं पता था कि यह ‘डबल डेकर’ है। आप भी अगर कभी नागपुर में डोरमेट्री बुक करें तो ऊपर वाला यानी सस्ते वाला ही करना। नागपुर में गर्मी बहुत पडती है। ऊपर वाले बिस्तर पर पंखे से सीधी हवा आती है जबकि नीचे वाले बिस्तर पर पंखे की सीधी हवा नहीं पहुंचती। नीचे वाले के पास मोबाइल चार्जिंग की सुविधा है। आपका चार्जर लम्बा है तो ऊपर वाले भी इसका लाभ उठा सकते हैं। ऊपर वाले बिस्तर पर ‘रेलिंग’ लगी है, गिरने का कोई डर नहीं और मजबूत है, सोते समय हिलता भी नहीं है।

नैरोगेज ट्रेन का स्लीपर-कम-सीटिंग डिब्बा

छिन्दवाडा से नागपुर की ओर मुडती ट्रेन। बराबर में ब्रॉडगेज की लाइनें।




उमरानाला स्टेशन

नैरोगेज के बराबर में ब्रॉडगेज बनाने का काम तेजी से चल रहा है।


कुक्डाखापा स्टेशन पर प्रवेश करते हुए

कुक्डाखापा स्टेशन






कन्हान नदी और दूर दिखता नया बना ब्रॉड गेज का पुल




टाकली स्टेशन के पास नैरोगेज और ब्रॉडगेज का मिलन



यह नागपुर SECR अर्थात दक्षिण-पूर्व-मध्य रेलवे का है।

और ‘नागपुर जं’ CR अर्थात मध्य रेलवे का है।
अगला भाग: सतपुडा नैरो गेज में आखिरी बार-2

1. सतपुडा नैरो गेज पर आखिरी यात्रा-1
2. सतपुडा नैरो गेज पर आखिरी बार- छिन्दवाडा से नागपुर
3. सतपुडा नैरो गेज में आखिरी बार-2
4. जबलपुर से इटारसी पैसेंजर ट्रेन यात्रा




Comments

  1. बढिया यात्रा, यही ट्रेन हमारे यहाँ भी चलती है।

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    1. हाँ जी, रायपुर से राजिम और धमतरी तक...

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  2. "सबसे पीछे वाले डिब्बे में बैठकर आगे देखने पर ट्रेन ऐसी लगती जैसे कुछ शैतानी बच्चों को कतार बनाकर दौडने को कह दिया हो। कतार दौडती जाती लेकिन कभी एक इधर झुकता, उसी समय दूसरा उधर झुक रहा होता। डगमग-डगमग। इनका बस चलता तो ये पटरियों से उतरकर इधर-उधर भाग जाते।"

    अब आप साहित्यिक लेखन भी करने लगे हैं
    बधाई भाई

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  3. break ke baad post bhi train ki trah speed pakad gayi hai.

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    1. सर, पूरे दिन की कथा अगर लिखेंगे तो स्पीड से लिखना ही पडेगा...

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  4. नीरज जी, रोचक लेख है. मेरे हिसाब से तो इस टाईप की ट्रेने बंद नही की जानी चाहिये. ऐसी ट्रेने हमें इतिहास के साथ सफर करवाती हैं. आपका लेख पढते पढते, निदा फाजली साहब का शेर याद आ रहा है :-
    मैं भी तू भी यात्री, आती जाती रेल,
    अपने अपने गांव तक सबसे सबका मेल.

    संतोष प्रसाद सिंह,
    जयपुर.

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    1. सर, हर चीज का अपना इतिहास होता है लेकिन हमें समय के साथ आगे बढना पड़ता है...

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  5. नैरो गेज के बारे अच्छी जानकारी। मुझे तो पता न था कि इसमें भी स्लीपर होती है।

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    1. इस ट्रेन के बंद होने से भारत में नैरो गेज शयनयान भी बंद हो गया...

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    2. इस ट्रेन के बंद होने से भारत में नैरो गेज शयनयान भी बंद हो गया...

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  6. मंगोड़ी वाली बात ने मजेदार किस्सा बना दिया ! ऐसी ट्रैन पहले मथुरा से कासगंज और पीलीभीत चलती थी जिसमें कई बार यात्रा करने का अवसर मिला लेकिन अब वो भी ब्रॉड गेज में बदल गयी है !

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    1. हाँ योगी जी, ठीक कहा आपने. लेकिन मथुरा वाली ट्रेन मीटर गेज थीं...

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  7. इस ट्रेन आरक्षण डिब्बा कुछ कुछ शयनयान बस के जैसा है |
    इस तरह की ट्रेन ग्वालियर में भी चलती है अभी भी |

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    1. हाँ, रीतेश जी... अभी भी ग्वालियर से श्योपुर कलां तक नैरो गेज की ट्रेन चलती है...

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  8. अदभुत।
    मंत्रमुग्ध हो गए।
    यात्रा नवम्बर में की थी,लेकिन लेखन में अब भी ताजगी है...
    मंगोड़ी व सतंरा के किस्से में स्वस्थ परिहास है।
    आप ने नागपुर स्टेशन पर आती-जाती ट्रेनों को साक्षी
    भाव से देखते हुए 5 घंटे गुजार दिए...
    यह किसी ध्यान साधना के बराबर ही है।

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  9. बहुत ही रोचक जानकारी वाला लेख। एक ही सांस मे सब पढ़ गया लगा जैसे मै खुद आप के जगह पर यात्रा कर रहा हूँ। पढ़ते समह मन मस्तिष्क पर जो चित्र उभरे वह फोटो देख कर क्लियर हो गाय । यात्रा मे किसी के लिए एक एक गाड़ियो का हिसाब रखना कठिन कम है किन्तु आप बखूबी कर लिए है । गार्ड से टीकेट लेना । संतरे और मुगफली की चर्चा। स्लिपर कोच और गाड़ियो मे रेस । डोरमेट्री की नई डिजाइन । महिला सफाईकर्मी । प्लैटफ़ार्म पर टाइम पास । ‘हाई कैपेसिटी पार्सल वैन’। कुछ स्टेशनो के रोचक नाम । सब कुछ मजेदार और जानकारी से भरपूर है । क्रॉस ओवर ब्रिज का फोटो लेना रह गया वैसे नागपुर एरिया मे कुल 05 क्रॉस ओवर ब्रिज है जो किसी एक एरिया मे सबसे ज्यादा है । भारतीय रेल मे लगभग 90 क्रॉस ओवर ब्रिज है ।

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  10. station ki safai ki photos bhi leke lagate.....log jagrook hote.............ANURAG,LUCKNOW

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब