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पचमढी: चौरागढ यात्रा

   आज हम जल्दी उठे और साढे छह बजे तक कमरा छोड दिया। आज हमें चौरागढ जाना था और वापस आकर दोपहर से पहले पचमढी छोड देना था। कल हम महादेव गये थे, जो कि पचमढी से दस किलोमीटर दूर है। आज भी सबसे पहले महादेव ही गये। रास्ते भर कोई नहीं मिला। लेकिन महादेव जाकर देखा तो हमसे पहले भी कई लोग चौरागढ जाने को तैयार मिले। दुकानें खुली मिलीं और उत्पाती बन्दर भी पूरे मजे में मिले। पार्किंग में बाइकें खडी करने लगे तो दुकान वालों ने कहा कि उधर बाइक खडी मत करो, बन्दर सीट कवर फाड देंगे। यहां हमारे पास खडी कर दो। उनके कहे अनुसार बाइक खडी कीं और उनके ही कहे अनुसार सीटों पर पत्थर रख दिये ताकि बन्दर सीटों पर ज्यादा ध्यान न दें।
   पैदल रास्ता यहीं से शुरू हो जाता है हालांकि सडक भी थोडा घूमकर कुछ आगे तक गई है। करीब एक किलोमीटर बाद सडक और पैदल रास्ते मिले हैं। हमें किसी ने नहीं बताया इस बारे में। बाइक वहां तक आसानी से चली जाती हैं और उधर बन्दरों का आतंक भी नहीं है। खैर।

   पता नहीं आगे कुछ खाने को मिले या न मिले, हमने बिस्कुट और नमकीन साथ ले लिये। वैसे इनकी कोई जरुरत नहीं है। आगे रास्ते में चाय बिस्कुट नमकीन के साथ नींबू पानी, शरीफा और पकौडे, पकौडियां, परांठे समेत भरपूर भोजन मिलता रहता है। ऊपर तक खाने की कोई परेशानी नहीं आती।
   दो सौ मीटर आगे ही गुप्त महादेव की गुफा है। बडी ही संकरी गुफा है यह। तकरीबन 20 मीटर लम्बी गुफा रही होगी। आने और जाने का एक ही रास्ता है। बाहर सूचना लिखी है कि एक बार में अधिकतम आठ व्यक्ति ही प्रवेश करें। अन्यथा अन्दर वाले बाहर नहीं निकल सकेंगे और बाहर वाले अन्दर नहीं जा सकेंगे। उस समय हम चारों के अलावा दो-तीन लोग और थे और अनगिनत बन्दर थे। सभी इंसान मिलाकर आठ से कम थे, इसलिये एक ही बार में हो आये। बन्दर अन्दर नहीं जाते या फिर कभी कभार चोरी छुपे चले जाते होंगे।
   गुप्त महादेव पर सबसे मजेदार चीज लगी यहां गुफा के द्वार पर लगा एग्जास्ट फैन। निश्चित ही संकरी गुफा में अन्दर ऑक्सीजन की कमी होने लगती होगी और दम घुटने लगता होगा। इसके लिये यहां पंखा लगा दिया। यह पंखा बाहर हवा फेंकने वाला था। जब यह पंखा चलता होगा तो हवा वहीं की वहीं सर्कुलेट करती रहती होगी। पंखे ने बाहर फेंकी और वही हवा गुफा के द्वार से दो-चार फीट अन्दर जाकर फिर से पंखे द्वारा बाहर फेंक दी जाती होगी। भीतर जो हवा रहती होगी, वो पक्का वहीं जमी रहती होगी। गुफाओं में या सुरंगों में हवा का सर्कुलेशन इस तरह नहीं होता बल्कि एक बडा सा पाइप लेकर उसे अन्दर तक ले जाया जाता है और पंखे से जबरदस्ती उसमें हवा फेंकी जाती है। ताजी हवा पाइप से गुफा के अन्त में प्रविष्ट कराई जाती है और बासी हवा अपने आप बाहर निकलती रहती है।
   महादेव से चौरागढ चोटी दिखती है। दूरी तीन किलोमीटर है और चढाई भी अच्छी खासी है। इसी के मद्देनजर मैंने डण्डे ढूंढने शुरू किये। एक डण्डा मिल गया, वो मैंने निशा को दे दिया। डॉक्टर दम्पत्ति के लिये भी डण्डे ढूंढने लगा लेकिन जहां भी झाडियों में या मुख्य पगडण्डी से इधर उधर होता, वहीं ‘हग्गू’ पडे मिलते। शौचालय क्रान्ति पता नहीं कब आयेगी। वैसे जहां भी सार्वजनिक शौचालय हैं, उनके हाल देखकर मन करता है कि बाहर बैठना ही अच्छा है। पहले शौचालय क्रान्ति आनी चाहिये, फिर उनकी नियमित सफाई के लिए एक क्रान्ति और। माने क्रान्ति पर क्रान्ति की सख्त आवश्यकता है।
   आगे बढते हैं। थोडी सी चढाई है और हमें वही सडक मिल जाती है जो महादेव से यहां तक आती है। यहां तीन-चार बाइक भी खडी थीं। इसके बाद ढलान है। ढलान खत्म होने पर कई दुकानें हैं। एक द्वार है, घण्टी टंगी है। द्वार के बाद सीढियां ऊपर जाती दिखती हैं। असली चढाई अब शुरू होने वाली है।
   आसपास के गांवों के स्थानीय लोग ही यहां छोटी छोटी दुकानें लगाते हैं। कुछ दुकानें तो अच्छी खासी बडी हैं और ज्यादातर अखबार के पन्ने जितनी बडी। पूरी दुकान और मालिक एक छतरी के नीचे आराम से आ जाते हैं। शरीफा खूब बेचते हैं। कोई खरीदे तो ठीक, न खरीदे तो भी ठीक; आराम से बैठे रहते हैं, सो भी जाते हैं।
   आखिरी हिस्सा बडी तेज चढाई का है। विकट सीढियां हैं। कुछ विशेष दिनों में भीड भी हो जाती होगी, उससे बचने के लिये लोहे की अतिरिक्त सीढियां भी लगा रखी हैं। रेलिंग तो सभी सीढियों पर है ही। चारों ओर के अच्छे नजारे दिखते हैं।
   आखिरी आधा किलोमीटर तो दुकानों के साये में ही कटता है। बिल्कुल आखिर में उच्चतम स्थान पर है चौरागढ का शिव मन्दिर। इसे अगर त्रिशूलों का संग्रहालय भी कह दें तो ज्यादती नहीं होगी। भयंकर तरीके से चारों ओर त्रिशूल ही त्रिशूल रखे हैं। वो भी अलग अलग आकार और प्रकार के। मन्दिर बिल्कुल साधारण सा है, कोई लिपाई पुताई नहीं। लिपाई पुताई से होता क्या है, असली बात तो श्रद्धा की है। स्थानीयों की यहां बहुत श्रद्धा है। और स्थानीय भी कौन हैं? विशुद्ध आदिवासी।
   हवा बडी तेज चल रही थी और बादल भी आ गये थे। हालांकि बारिश नहीं हुई। थोडी देर रुके, फिर वापस चल दिये। नीचे उतरना हमेशा ही अच्छा होता है। कम से कम बार-बार सांस लेने को नहीं रुकना पडता। इस बार तो डॉक्टर दम्पत्ति भी तेज तेज चल रहे थे। हम फोटो खींचने में व्यस्त हुए और वे आगे निकल गये। बारिश शुरू हुई तो पास की एक दुकान में जा घुसे। यहां मालिक-मालकिन पकौडियां तल रहे थे। जब बारिश से बचने को ही सही, यहां रुक गये तो पकौडियां भी ले लीं लेकिन पहले पक्का कर लिया कि यह भांग-वांग तो नहीं है। भईया, शिवजी के पास विचरने का एक साइड इफेक्ट यह भी है। थी तो घास-फूस की ही लेकिन स्वादिष्ट थीं। हमने दो बार ली। यहीं बगल में ही कुछ लोग दारू पीने में लगे थे। जब उनकी बोतल खाली हो गई तो उन्होंने इसे फेंकने की बजाय दुकान वाले को दे दी ताकि वो इसे बेचकर कुछ कमाई कर सके। उनके जाते ही दुकान वाले ने वो बोतल अपनी पत्नी को दी कि ले, पी ले। वह संकोच कर रही थी। शायद हमें देखकर संकोच कर रही होगी। फिर लडके ने खाली बोतल खोली, उलटी तो आधा ढक्कन दारू निकल पडी। बन्दा झट से पी गया। मैंने सुझाव दिया कि थोडा सा पानी डालकर पी जा। बोतल भी धुल जायेगी और थोडी बहुत दारू और मिल जायेगी।
   उस स्थान पर पहुंचे जहां द्वार बना था। यहां पक्की सीढियां समाप्त हो गईं। यहां से आगे थोडी सी चढाई थी और फिर उतराई। चढाई पर एक ग्रुप और जा रहा था। उनमें से एक आदमी जमीन पर बैठा था और अपने पैर मसल रहा था। दूसरे उसे जल्दी उठने और चलने को कह रहे थे। उसके पैर में मोच आ गई थी और उसे चलने में बडा दर्द हो रहा था। बिल्कुल ठेठ अनपढ आदमी रहे होंगे सब। उसके न उठने पर गाली-गलौच करने लगे और उसके दर्द को नाटक बताने लगे। हम आगे बढ गये, वे वहीं लडते रहे।
   महादेव आकर बाइक उठाई और सीधे पचमढी पहुंचे। होटल जाकर नहाये धोये और सामान समेटकर निकल लिये।
   बी-फाल देखने से रह गया। मुझे तो समय की कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन सुमित के पास समय की भारी किल्लत थी। अगर हम बी-फाल देखते तो पचमढी में ही शाम हो जाती। फिर हमें या तो रात यहीं रुकना पडता या फिर देर रात अगले ठिकाने पर पहुंचते। अगला ठिकाना पातालकोट था। मेरी जानकारी के अनुसार पातालकोट में ठहरने का कोई इंतजाम नहीं था, उसके लिये हमें तामिया रुकना पडता। देर रात वहां कमरा भी शायद मिलता या नहीं मिलता। फिर पचमढी से तामिया की सडक भी पता नहीं कैसी थी। सबकुछ सोच-विचारकर बी-फाल न जाने का निर्णय करना पडा।

यहां बाइक खडी कर दीं।

चौरागढ का पैदल रास्ता यहां से आरम्भ होता है।

गुप्त महादेव की गुफा





वो सामने ऊपर चौरागढ है।


रास्ते में एक और गुफा







चौरागढ










अगला भाग: पचमढ़ी से पातालकोट


1. भिण्ड-ग्वालियर-गुना पैसेंजर ट्रेन यात्रा
2. महेश्वर यात्रा
3. शीतला माता जलप्रपात, जानापाव पहाडी और पातालपानी
4. इन्दौर से पचमढी बाइक यात्रा और रोड स्टेटस
5. भोजपुर, मध्य प्रदेश
6. पचमढी: पाण्डव गुफा, रजत प्रपात और अप्सरा विहार
7. पचमढी: राजेन्द्रगिरी, धूपगढ और महादेव
8. पचमढी: चौरागढ यात्रा
9. पचमढ़ी से पातालकोट
10. पातालकोट भ्रमण और राजाखोह की खोज
11. पातालकोट से इंदौर वाया बैतूल




Comments

  1. नीरज भाई ज्यादातर गुफाओं में फोटो खिचना व तेज बोलना मना होता है, आखिर क्यों??
    फोटो से तो गुफाओं को कोई हानि नही होनी चाहिए?

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  2. आपकी यात्रा पढकर कर अपनी पचमढ़ी की यात्रा को याद किया | काफी बदल गया है चौरागढ़ ..... |

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  3. Bhoot acha laga pad kar, muze to yatra ka varnan pad kar hii esa lagta h kii m hii gum aaya ,likte bhoot acha Ho, ....

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  4. आदरणीय नीरज जी वर्ष १९७३ में हम लोगो ने कॉलेज स्टूडेंट लाइफ में वनस्पतिशास्त्र एक्सक्यूरशन टूर में पंचमढ़ी में 05 दिन रहे। और उस दौरान पुरे पचमढ़ी को ,चौरागढ़ ,धूपगढ़ , महादेव गुफा ,जटाशंकर महादेव और गुप्त महादेव। अप्सरा विहार ,सिल्वरफॉल,हांडी खो,प्रियदर्शिनी प्वाशइंट ,जटाशंकर गुफा,पांडव गुफा: इरन ताल, जलावतरण,कैथोलिक चर्च और क्राइस्ट चर्च ,चौरागढ़ में गड़े हज़ारो त्रिशूल ,व् खुले में बैठे शिव जी व् अन्य जगह को पैदल और साइकिल के द्वारा घूम-फिरकर और काफी वानस्पतिक पौधे खोज कर इकठ्ठे किये थे। साइलोटम दुर्लभ फ़र्न की वेराइटी तथा जटाशंकर की गुफाओ में मास पौधो को अँधेरे में जुगनू जैसी जगमगाते देखना दूर से आती पुलिस के बैंड को सुनना आज भी याद है। हलाकि वर्ष 2000 में फिर परिवार के साथ जाने का सौभाग्य मिला। लेकिन अब उस समय जैसा आनद नही आया। फिर भी घने जंगलों से ढँकी शांत वातावरण और और यहाँ बहते पानी का कल-कल, झरने की झर झर और बहती हवाओ की आवाज़ सुनना वह पहुचने पर बहुत ही सुकूनदायक लगता है । भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्तियाँ पूरे सफर में रह रह कर याद आती रहती है।
    झाड़ ऊँचे और नीचे
    चुप खड़े हैं आँख मींचे
    घास चुप है, काश चुप है
    मूक साल, पलाश चुप है
    बन सके तो धँसों इनमें
    धँस ना पाती हवा जिनमें
    सतपुड़ा के घने जंगल
    नींद में डूबे हुए से
    डूबते अनमने जंगल
    आपके यात्रा और उसका सचित्र वर्णन के लिए धन्यवाद व हार्दिक बधाई।

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  5. Hi Neeraj
    I am glad I found your blog. Very interesting to read. I visited Pachmarhi during my college days in 1992 to attend a scout camp. Very refreshing. Your blog has refreshed my memories. Photos are nice. I have travelled many places in world, Pachmarhi remains one of the top ones.
    My one advise if you listen, please wear sports shoes or sneaker during your hiking adventure.
    Alok Mishra
    Rochester, NY

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