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Showing posts from February, 2015

फॉसिल पार्क, कच्छ

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 17 जनवरी 2015 अब हमारा लक्ष्य था लखपत। खावडा से लखपत जाने के लिये भुज जाने की आवश्यकता नहीं है। उससे पहले ही एक ग्रामीण रास्ता सीधा नखत्राणा जाता है। भीरंडीयाला से 27 किलोमीटर भुज की तरफ चलने पर यह रास्ता दाहिने मुडता है। हम इसी पर हो लिये। इस रास्ते पर निरोना, बीबर आदि गांव आते हैं। देवीसर से कुछ पहले एक रास्ता दाहिने जाता है। यह आगे फॉसिल पार्क और थान मोनेस्ट्री चला जाता है। मेरी इच्छा इन दोनों स्थानों को देखने की थी। आपको फॉसिल पार्क का पता भी नहीं चलेगा अगर आप सावधान न हुए। मैंने पहले ही गूगल मैप का अध्ययन कर रखा था इसलिये मालूम था कि उस मोड के पास यह पार्क है। जैसे ही वह मोड आया, हमारी रफ्तार कम हो गई। झाडियों में इसका एक सूचना-पट्ट लगा था, हमने तुरन्त बाइक उधर ही मोड दी।

इण्डिया ब्रिज, कच्छ

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । इण्डियाब्रिज काला डोंगर से लगभग 20 किलोमीटर दूर है। उनकी बुलेट में पेट्रोल कम था। पेट्रोल पम्प खावडा में था जोकि इण्डियाब्रिज के विपरीत दिशा में है। तय हुआ कि अगर रास्ते में पेट्रोल समाप्त हो गया तो वे मेरी बाइक से निकालेंगे। मैं राजी था। हालांकि इसकी आवश्यकता नहीं पडी। आप कच्छ का नक्शा देखेंगे तो इसकी पूरी उत्तरी सीमा पाकिस्तान से मिलती है। लेकिन सीमा के इस तरफ एक बहुत बडा प्राकृतिक अवरोध भी है। यह है कच्छ का विशाल रन जहां साल में ज्यादातर समय पानी भरा रहता है या दलदल रहता है। इसी में एक उपयुक्त स्थान पर सडक भी निकाली गई है जो बिल्कुल सीमा तक जाती है। यह वही सडक है। यह भुज से वीघाकोट को जोडती है। वीघाकोट सीमावर्ती चौकी है। लेकिन आम नागरिकों के लिये सीमा तक जाना सरल नहीं होता। उससे कुछ ही पहले तक बेरोकटोक जाया जा सकता है, फिर आगे जाने के लिये परमिट लेना होता है।

काला डोंगर- कच्छ का उच्चतम स्थान

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 16 जनवरी 2015 खावडा से काला डूंगर की दूरी करीब बीस किलोमीटर है। आठ किलोमीटर आगे एक तिराहा है जहां से एक सडक तो सीधी चली जाती है और एक दाहिने मुड जाती है। यही दाहिने वाली काला डूंगर जाती है। सीधी सडक इण्डिया ब्रिज होते हुए विघाकोट जाती है। विघाकोट अर्थात भारत-पाक सीमा। विघाकोट जाने के लिये भुज से आज्ञापत्र बनवाना होता है। उसकी चर्चा अभी बाद में करेंगे जब इण्डिया ब्रिज चलेंगे। अभी फिलहाल काला डूंगर चलते हैं। चलिये, दाहिनी तरफ मुड जाते हैं। एक गांव आता है और इसे पार करते ही सडक पतली सी हो जाती है। चूंकि काला डूंगर कच्छ की सबसे ऊंची चोटी है तो यहां जाने के लिये कुछ चढाई भी करनी पडेगी। शीघ्र ही चढाई भी शुरू हो जाती है लेकिन यह छोटी सी चढाई काफी ‘ट्रिकी’ है। फिर साढे चार सौ मीटर की ऊंचाई पर जाकर दत्तात्रेय मन्दिर के पास चढाई समाप्त हो जाती है। पौने छह बज चुके थे। सूर्यास्त में अभी देर थी। उधर ‘देश’ में सूर्यास्त हो चुका होगा, यहां यह काम देर से होता है। काफी पर्यटक कैमरे लिये सूर्यास्त को कैद करने के लिये तैयार खडे थे।

सफेद रन

इस यात्रा-वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 16 जनवरी 2015 बारह बज चुके थे और मैं भुज में था। अभी तक कुछ खाया भी नहीं था। सुबह पच्चीस-तीस रुपये की पूरी-सब्जी खाई थीं एक ठेले पर। ठेला समझकर यह मत सोचना कि मैं गन्दगी में जा घुसा। गन्दगी वाला ठेला होता तो दस रुपये में ही काम चल जाता। वह लडका पार्ट टाइम के तौर पर सुबह नाश्ते के लिये पूरी-सब्जी बेचता है, बाद में कुछ और काम करता है। सफाई अच्छी थी। दो तरह की आलू की सब्जियां थीं- सूखी और तरीदार। दोनों में फर्क बस इतना ही था कि एक में तेल कुछ कम था, दूसरी में तेल ही तेल था। गुजराती सब्जियों में लगता है पानी की बजाय तेल डाला जाता है। इतना तेल हो जाता है कि अगर आप एक कटोरी आलू की तरीदार सब्जी में से आलू खा जायें तो आधा कटोरी तेल बचा रहेगा। उधर हम दिल्ली वालों के लिये तेल का बडा परहेज होता है। हां, तो मैं कह रहा था कि बारह बज गये थे। आज मुझे काला डूंगर जाना था जो यहां से करीब सौ किलोमीटर दूर है। अर्थात ढाई तीन घण्टे लगेंगे। रास्ते में कहीं रुककर खाना भी खाना था तो चार घण्टे लगेंगे। पांच बजे के बाद दिन छिपना शुरू हो जायेगा। हालांक

भुज के दर्शनीय स्थल

इस यात्रा-वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 16 जनवरी 2015 कल जब सोया था तो योजना थी कि आज पहले माण्डवी जाऊंगा और वहां से फिर लखपत के लिये निकल जाऊंगा। लेकिन इसके लिये सुबह जल्दी उठना पडता और यही अपनी कमी है। साढे आठ बजे उठा। सूरज सिर पर चढ आया था। माण्डवी के लिये काफी विलम्ब हो चुका था। फिर आज ही लखपत जाना सम्भव नहीं था। जाता भी तो भागमभाग करनी पडती और अन्धेरे में भी बाइक चलानी पडती। रास्ता भी पता नहीं कैसा हो। इसलिये अब माण्डवी जाने का विचार छोड दिया। इसके बजाय अब काला डूंगर जाऊंगा। काला डूंगर जाऊंगा तो वापसी में भुज नहीं आऊंगा। पहले मुझे क्लोकवाइज कच्छ देखना था, अब एण्टी-क्लोकवाइज देखूंगा। रूट वही रहेगा। वापस भुज नहीं आऊंगा। इसलिये भुज शहर में जो दर्शनीय स्थल हैं, उन्हें अभी ही देख लेता हूं। कमरे का ताला लगाया, बाइक यहीं छोडकर पैदल ही निकल पडा।

फोटोग्राफी चर्चा- 2

बडी बेइज्जती हो रही है फोटोग्राफी चर्चा करने में। कारण यही है कि मैं भद्दे तरीके से चर्चा करता हूं। बात तो ठीक है लेकिन करूं भी क्या? हमेशा कहता आया हूं कि आप जो भी फोटो भेजते हो, उसके बारे में चार लाइनें भी लिखकर भेज दिया करो। बहुत सहायता मिलती है इन चार लाइनों से। अन्यथा आपके फोटो पर मैं अपना अन्दाजा ही लगाता रहूंगा और आपको लगेगा कि बेइज्जती हो रही है। खैर, इस बार एक फोटो आया है चर्चा के लिये। इसे भेजा है सुधाकर मिश्रा जी ने। साथ में लिखा है: “ये चित्र मैंने नैनीताल में डोरोथी सीट के रास्ते से कहीं लिया था। पेडों की लाइन, उसके ऊपर छोटे पहाड और फिर बर्फीली चोटियां मुझे अच्छी लगी थीं। आप अपनी राय दीजिये।”

कच्छ की ओर- अहमदाबाद से भुज

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 15 जनवरी 2015 सुबह आठ बजे उठा। रात अच्छी नींद आई थी, इसलिये कल की सारी थकान समाप्त हो गई थी। अभी भी भुज यहां से लगभग साढे तीन सौ किलोमीटर दूर है, इसलिये आज भी काफी बाइक चलानी पडेगी। रास्ते में मालिया में उमेश जोशी मिलेंगे। फिर हम दो हो जायेंगे, मन लगा रहेगा। लेकिन जोशी जी को फोन किया तो कहानी कुछ और निकली। पिछले दिनों वे जामनगर के पास समुद्र में कोरल देखने गये थे। वहां उन्हें काफी चोट लग गई और अभी भी वे बिस्तर पर ही थे, चल-फिर नहीं सकते थे। उन्होंने बडा अफसोस जताया कि साथ नहीं चल सकेंगे। फिर कहने लगे कि जामनगर आ जाओ। लेकिन मेरे लिये जानमगर जाना सम्भव नहीं था। अगली बार कभी सौराष्ट्र घूमने का मौका मिलेगा, तो जामनगर जाऊंगा। अब पक्का हो गया कि मुझे कच्छ यात्रा अकेले ही करनी पडेगी। लेकिन जोशी जी ने भचाऊ के रहने वाले अपने एक मित्र के बारे में बता दिया। वहां बात की तो लंच करना तय हो गया।

कच्छ की ओर- जयपुर से अहमदाबाद

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 13 जनवरी 2015 सुबह आठ बजे विधान के यहां से निकल पडा। उदयपुर यहां से चार साढे चार सौ किलोमीटर दूर है। आज का लक्ष्य उदयपुर पहुंचने का ही रखा। असल में मुझे अहमदाबाद के रास्ते कच्छ जाना था। इसका एक कारण था कि मौका मिलते ही कहीं छोटा रन भी देख लेना चाहता था। मलिया में उमेश जोशी मिलने वाले थे। और अहमदाबाद के रहने वाले अमित गौडा से भी मिलने का वादा कर रखा था। जयपुर से अहमदाबाद जाने के मुख्य तीन रास्ते हैं। पहला, जयपुर से किशनगढ बाईपास, चित्तौडगढ, उदयपुर होते हुए; दूसरा, अजमेर, कांकरोली, उदयपुर होते हुए और तीसरा, अजमेर, ब्यावर, पाली, सिरोही, आबू रोड होते हुए। मैंने चलने से पहले मित्रों से पूछा भी था कि इनमें से कौन सा रास्ता सर्वोत्तम है। पता चला कि कांकरोली वाले रास्ते को चार लेन का बनाया जा रहा है। यानी वहां काम चल रहा है। पाली, आबू रोड वाले पर भी बताया गया कि काम चल रहा है। इसलिये चित्तौडगढ वाला रास्ता निर्विरोध चुन लिया गया। वैसे वापस मैं पाली के रास्ते आया हूं। वो रास्ता बर और ब्यावर के बीच में थोडा खराब है, बाकी एक नम्बर का

कच्छ नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा

कच्छ नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा- यह तुकबन्दी मुझे बडा परेशान कर रही थी कई दिनों से। पिछले साल एक बार साइकिल से जाने की भी योजना बनाई थी लेकिन वह ठण्डे बस्ते में चली गई। कच्छ में दो मुख्य रेल लाइनें हैं- अहमदाबाद-भुज और पालनपुर-समखियाली; दोनों पर कभी यात्रा नहीं की गई। बस फोटो देख-देखकर ही कच्छ दर्शन किया करता था। लेकिन ऐसा कब तक होता? कभी न कभी तो कच्छ जाना ही था। मोटरसाइकिल ली, गढवाल की एक छोटी सी यात्रा भी कर ली; फिर सर्दी का मौसम; कच्छ के लिये सर्वोत्तम। इस बार चूक जाता तो फिर एक साल के लिये बात आई-गई हो जाती। पिछले दिनों डिस्कवरी चैनल पर कच्छ से सम्बन्धित एक कार्यक्रम आया- यह कार्यक्रम कई दिनों तक आता रहा। मैंने कई बार इसे देखा। इसे देख-देखकर पक्का होता चला गया कि कच्छ तो जाना ही है। लेकिन समस्या थी दिल्ली से भुज ट्रेन से जाऊं या बाइक से। पहले तो तय किया कि जामनगर तक ट्रेन से जाऊंगा, बाइक या तो ट्रेन में ही रख लूंगा या फिर उमेश जोशी से ले लूंगा। जोशी जी ने भी साथ चलने की स्वीकृति दे दी।

चकराता से दिल्ली मोटरसाइकिल यात्रा

इस यात्रा-वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 27 नवम्बर 2014 छह बजे तक चकराता से निकल लेना था लेकिन चारों सोते रह गये और सात बजे उठे। अत्यधिक ठण्डे पानी में हाथ भिगोकर मुंह पर लगाया- मुंह धुल गया। सवा सात बजे तक चकराता से निकल पडे। होटल वाले ने हमें सचेत किया कि रास्ते में ब्लैक आइस मिलेगी, सावधानी से चलना। ब्लैक आइस से मुझे बहुत डर लगता है। यह दिखती नहीं है और मोटरसाइकिल इस पर फिसलकर गिर जाती है। खैर आधे-पौने घण्टे की बात है, सहिया तक ऊंचाई काफी कम हो जायेगी, ब्लैक आइस का खतरा भी टल जायेगा। लेकिन हर जगह यह नहीं मिलती। यह ज्यादातर ऐसे मोडों पर होती है जहां अन्धेरा और लगभग पूरे दिन छाया रहती हो। ऐसी कई जगहों पर प्रशासन ने चेतावनी बोर्ड भी लगा रखे हैं कि मोड पर बर्फ जमने का खतरा है, सावधानी से चलें। खैर, सावधानी से चलते रहे और कोई नुकसान नहीं हुआ।

डायरी के पन्ने-29

ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। 1. फिल्म ‘पीके’ देखी। फिल्म तो अच्छी है, अच्छा सन्देश देती है लेकिन कुछ चीजें हैं जो अवश्य विवादास्पद हैं। मुझे जो सबसे ज्यादा आहत किया, वो दृश्य था जब पीके ‘शिवजी’ को बाथरूम में बन्द कर देता है और इसके बाद शिवजी जान बचाकर भागते हैं। दूसरी बात कि फिल्म कहीं न कहीं इस्लाम को बढावा देती महसूस हुई। मसलन बार-बार पीके का कहना कि शरीर पर धर्म का ठप्पा। इससे कहीं न कहीं यह सन्देश जाता है कि जो धार्मिक हैं, उनके शरीर पर ठप्पा होना चाहिये, अन्यथा वे धार्मिक नहीं। गौरतलब है कि मुसलमानों के शरीर पर धर्म का ठप्पा लगा होता है। बाकी तो एक शानदार फिल्म है ही। दो भगवान होते हैं- एक, जिसने हमें बनाया और दूसरा, जिसे हमने बनाया। इसी आधार पर जो बुराईयां समाज में व्याप्त हैं, वही सब इस फिल्म में दिखाया गया है।