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लाक्षागृह, बरनावा

नई बाइक ली और अगले ही दिन लाइसेंस के लिये पहुंच गया लोनी रोड। वहां जो लम्बी लाइन देखी, तत्काल वापस भाग आया। फिर अगले दिन गया कडकडडूमा के पास सूरजमल विहार। यहां बिल्कुल लाइन नहीं थी। मोटरसाइकिल के लाइसेंस की फीस 30 रुपये जमा की और उसी दिन लर्निंग लाइसेंस लेकर लौट आया। अब इन्तजार था कि कब एक महीना पूरा हो और कब मैं परमानेंट लाइसेंस लेने जाऊं। लेकिन इस दौरान मुझे बाइक चलानी भी सीखनी थी। अब से पहले मैंने कभी भी बाइक नहीं चलाई थी। एक महीने बाद जब मैं ड्राइविंग टेस्ट देने पहुंचा तो घबराहट होनी स्वाभाविक थी। मेरे देखते ही देखते कई बाइक वाले असफल भी घोषित हुए।
आखिरकार मैं सफल हुआ। शनिवार 22 नवम्बर को परमानेंट लाइसेंस घर आ गया। अब निश्चित हो गया कि सोमवार को यात्रा पर निकलूंगा। पहले ही बता चुका हूं कि मेरी पहली पैदल हिमालय यात्रा नीलकण्ठ महादेव की थी, पहली साइकिल यात्रा भी नीलकण्ठ की ही थी तो तय कर लिया कि पहली बाइक यात्रा भी नीलकण्ठ की ही होगी। इसे और ज्यादा आकर्षक बनाने के लिये नाम दिया- लाक्षागृह से लाखामण्डल। लाक्षागृह बडौत के पास है और लाखामण्डल चकराता के पास। दोनों की कहानी एक ही है कि कौरवों ने लाख का एक महल बनवाया था और उसमें पाण्डवों को रहने के लिये राजी कर लिया। जब पाण्डव रहने लगे तो कौरवों ने धोखे से उसमें आग लगा दी। पाण्डव किसी तरह सुरंगों के रास्ते बचकर निकले। यही सब देखने के लिये लाक्षागृह और लाखामण्डल जाना था।

इस बार मैं चाहता था कि कोई और भी साथ रहे। पहली बार बाइक चला रहा था तो किसी अनुभवी का साथ होना आवश्यक भी था। आखिरकार पानीपत से सचिन जांगडा और बडौत से अरुण पंवार चलने को राजी हुए। अरुण ने किसी और को भी साथ लेने को कहा ताकि खर्च बच सके। मैंने कहा कि यात्रा पूरी तरह मेरी शर्तों पर होगी, आप जिसे भी साथ लोगे, उसे भी मेरी शर्तें माननी पडेंगी। लेकिन इतना तय है कि 26 नवम्बर की रात तक घर वापस आ जायेंगे। इस दौरान जहां भी जाना है, जहां भी रुकना है; सबकुछ मैं ही तय करूंगा।
उधर सचिन ने भी कहा कि उसकी बाइक पर एक बन्दा चल सकता है लेकिन शर्त है कि वो पीछे बैठकर सोयेगा नहीं, अन्यथा उसे वहीं छोड दूंगा। मैं अरुण को बिल्कुल भी नहीं जानता था, उनसे पहली बार बात हुई थी। मैं इस बात की गारण्टी नहीं ले सकता था। फिर जब सचिन के अभी ऐसे आक्रामक इरादे हैं, तो क्या पता कि आगे चलकर और भी आक्रामक हो जायें। सचिन से कह दिया कि तू अपनी बाइक पर अकेला चल और अरुण अपनी पर अकेला।
छह बजे ड्यूटी समाप्त करके निकल पडने की योजना थी। आठ बजे तक बडौत पहुंच जाना था। इस समय तक सचिन बडौत नहीं आ सकता था इसलिये वह हमारा साथ मुजफ्फरनगर से देगा। लेकिन मैं घर से निकलते-निकलते लेट हो गया और साढे सात बज गये। सचिन को भी बता दिया तो उसने कहा कि वो नौ बजे तक बडौत आ सकता है।
दिल्ली से ही 700 रुपये का तेल डलवाया, टंकी फुल हो गई और बाइक पुश्ता रोड पर दौडा दी। शीघ्र ही बागपत रोड पर था। सडक अच्छी बनी है, हालांकि जगह-जगह खराब भी है। बागपत जिला मुख्यालय है लेकिन मुझे उम्मीद नहीं थी कि यह इतना छोटा सा है। एक किलोमीटर पहले तक भी चारों तरफ खेत थे। मुख्य चौराहे पर थोडी सी चहल-पहल मिली और चौराहा पार करते ही बागपत शहर से बाहर निकल गया।
गौरीपुर मोड से एक सडक सोनीपत चली जाती है। लेकिन गौरीपुर के बाद फिर सडक खराब। सचिन ने पहले ही बता दिया था कि बडौत के मुख्य चौराहे से दो किलोमीटर पहले दिल्ली बस स्टैण्ड है, वहीं से एक सडक बडौत के बाहर ही बाहर निकल जाती है। शहर में प्रवेश करने की जरुरत नहीं है। वहीं पर मेरी प्रतीक्षा करना। और वास्तव में बडौत बडा शहर है। बागपत से तो बहुत बडा। फिर पता नहीं इसे जिला मुख्यालय क्यों नहीं बनाया गया? गौरतलब है कि कुछ समय पहले बागपत जिला मेरठ का भाग हुआ करता था। बडौत को जिला मुख्यालय न बनाने के लिये जरूर कोई न कोई राजनीति रही होगी।
सीधा बाईपास पर जाकर रुका। नौ बच चुके थे यानी मुझे दिल्ली से यहां तक आने में डेढ घण्टा लगा, दूरी लगभग 50 किलोमीटर है। अरुण को भी यहीं बुला लिया। अरुण के साथ उनका मित्र दीपक भी था। अब सचिन की प्रतीक्षा करनी थी। चाय पी और प्रतीक्षा करते रहे। आखिरकार दस बजे वो आया। विलम्ब के लिये दस बातें मैंने उसे सुनाईं और फिर बरनावा के लिये प्रस्थान कर गये।
बडौत से बरनावा लगभग 20 किलोमीटर है। हमें आधा घण्टा लगा। सडक बिल्कुल शानदार बनी है, ट्रैफिक भी कम ही था। बरनावा में बुढाना मोड से कुछ आगे दाहिनी तरफ एक द्वार बना हुआ था जो लाक्षागृह जाने का रास्ता था। यहां से लाक्षागृह तकरीबन एक किलोमीटर दूर है। जहां सडक समाप्त हुई, वहीं हम भी रुक गये।
लाक्षागृह आजकल एक महाविद्यालय है- संस्कृत महाविद्यालय यानी गुरुकुल। उत्तर प्रदेश में पर्यटन की तो भयंकर दुर्गति है और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो और भी ज्यादा। यहां लाक्षागृह से सम्बन्धित कुछ सूचना पट्ट भी लगे थे लेकिन उन्हें पढने के लिये विशेष प्रकार की विशेषज्ञता की आवश्यकता होगी। विद्यालय के शिक्षकों से लाक्षागृह के बारे में जानकारी ली और उनके बताये अनुसार देखने चल दिये।
खेतों के बीच एक पगडण्डी पर कुछ दूर चलना पडा। यह स्थान असल में एक टीला है। साथ ही दो नदियों का संगम भी। एक तो हिण्डन नदी है और दूसरी का नाम ध्यान नहीं। दोनों के मध्य बरनावा बसा हुआ है। और इसी वजह से यह टीला निर्मित हो गया है। कुछ सीढियां उतरकर टीले से नीचे उतरे। यहां दो सुरंगें बनी थीं। दोनों के मुहाने तो पक्के थे लेकिन अन्दर से ये कच्ची थीं। निश्चित ही मुहाने कुछ ही साल पहले बनाये गये हैं।
किंवदंती है कि जब कौरवों ने धोखे से पाण्डवों को यहां बुलाकर उन्हें इसमें बन्द करके आग लगा दी तो वे इन्हीं सुरंगों के रास्ते बच गये थे। यह तो जलकर खाक हो गया था तो पाण्डवों ने अपने लिये बाद में इन्द्रप्रस्थ बनाया।
ये सुरंगें इतनी संकरी हैं कि आप खडे होना तो दूर, ठीक से बैठकर भी इनमें नहीं घुस सकते। आपको गर्दन पूरी झुकाकर घुटनों के बल इनमें घुसना पडेगा। यह टीला कोई चट्टानी टीला नहीं है, दो नदियों के संगम पर बना टीला है। नदियों के कारण मिट्टी कटती चली गई और कालान्तर में यह टीला निर्मित हो गया। इसलिये इसके अन्दर जो सुरंगें हैं वे भी कच्ची मिट्टी के अन्दर ही बनी हैं। ये सीधी नहीं हैं बल्कि टेढी मेढी हैं। मैं बन्दर की तरह चलता हुआ एक सुरंग के अन्दर घुसा। एक मोड के बाद यह कुछ ऊंची हो गई और ढंग से बैठने लायक जगह बन गई। और अन्दर गया तो यह धीरे धीरे संकरी होती चली गई लेकिन कहीं भी गहरी होती नहीं दिखी। घुप्प अन्धेरा तो था ही, मोबाइल की टॉर्च काम आई।
यह कुरु महादेश प्राचीन तो है, इसमें कोई सन्देह नहीं लेकिन यह टीला, ये सुरंगें, यह लाक्षागृह महाभारतकालीन नहीं है। कतई नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि ये दोनों नदियां आज जहां बहती हैं, पांच हजार साल पहले वहां नहीं बहती थीं। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे इनकी स्थिति में परिवर्तन होता गया और आज ये अपनी वर्तमान स्थिति में हैं। मैदानों में नदियां हमेशा रास्ता बदलती हैं, क्या पता आने वाले समय में फिर हिण्डन रास्ता बदल ले। और इन दो नदियों के बहने के फलस्वरूप ही यह टीला निर्मित हुआ।
खुदाई करेंगे, प्राचीन चीजें जरूर मिलेंगी लेकिन ये सुरंगे प्राचीन बिल्कुल नहीं हैं। पूरी तरह कच्ची मिट्टी के अन्दर ये सुरंगे हैं। आप कोई नुकीली चीज लेकर इनके अन्दर जाओ, तो आसानी से इन्हें खोद सकते हो। ऊपर बारिश पडे या खेतों में पानी दिया जाये तो सुरंगों के अन्दर भी पानी जरूर आता होगा। इस तरह ये सुरक्षित भी नहीं हैं। आप कहोगे कि इतने सालों में ये ढही क्यों नहीं?
वास्तव में ये सुरंगें ढह चुकी हैं। आप कभी लाक्षागृह जाओ तो गौर से देखना। कहने को तो ये दो सुरंगें हैं, दोनों के मुहाने पक्के हैं लेकिन गौर से देखने पर पता चलेगा कि यहां किसी समय छोटा सा भूस्खलन हुआ था, कुछ मिट्टी नीचे खिसक गई थी। यह एक ही सुरंग थी। बीच में मिट्टी खिसक जाने से इसके दो टुकडे हो गये और आज ये दो सुरंगें लगती हैं। तो इस तरह इनका वास्तविक मुहाना कहीं और है। लेकिन अगर वह अभी तक नहीं मिला है तो समझना चाहिये कि मिट्टी खिसकने के बाद किसी ने मजे-मजे में बैठे-बैठे ये सुरंगें खोद डालीं।
हो सकता है कि पांच हजार साल पहले यहां कोई महल रहा होगा, उसमें आग लग गई होगी, पाण्डव बच गये होंगे लेकिन वे सुरंग के रास्ते नहीं बचे थे। सुरंग तो वर्तमान काल में ही बनाई गई हैं। सौ साल पहले भी या दो सौ साल पहले भी। इससे ज्यादा पुरानी ये सुरंगें नहीं हैं।

अरुण के साथ बडौत में

बरनावा, जहां लाक्षागृह स्थित है


टीले से नीचे उतरती सीढियां

एक सुरंग का मुहाना

दूसरी सुरंग

ये सुरंगें बेहद संकरी हैं।




नोट: ज्यादातर फोटो सचिन ने लिये हैं।





अगला भाग: मोटरसाइकिल यात्रा- ऋषिकेश, नीलकण्ठ और कद्दूखाल

लाक्षागृह-लाखामण्डल बाइक यात्रा
1. लाक्षागृह, बरनावा
2. मोटरसाइकिल यात्रा- ऋषिकेश, नीलकण्ठ और कद्दूखाल
3. लाखामण्डल
4. लाखामण्डल से चकराता- एक खतरनाक सफर
5. चकराता से दिल्ली मोटरसाइकिल यात्रा




Comments

  1. Neerajbhai starting to shandar he par bike ka 1 Photo banta he .

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    1. बाइक के बहुत फोटो मिलेंगे।

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  2. भाई इस पहली बाइक यात्रा का तो बेसब्री से इंतज़ार था।
    शानदार शरूआत। नई बाइक का एक फोटो तो mandatory था।
    एक फोटो तो लगा ही दो हमेशा यादगार रहेगी।

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    1. मिलेगा भाई जी बाइक का भी फोटो... थोडा सब्र रखिये।

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  3. सन् 2000-2001 के दौरान मायावती सरकार ने राजनैतिक कारणों से बडौत की जगह बागपत को जिला बनाया था, और कालांतर में मायावती को इसका लाभ भी मिला.
    बरनावा दो नदियों के बीच में स्थित है एक हिंडन नदी, जैसा नीरज भाई आपने बताया और दूसरी कृष्णा नदी (काली नदी)..!

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    1. धन्यवाद पंवार साहब जानकारी के लिये...

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  4. Neeraj.... kabhi Valley of Flowers gaye ho?

    ANURAG

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    1. to Ek baar Valley of Flowers ka bhi tour kar lijiye.........

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  5. nayi bike ki nayi post thanks byai

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  6. नीरज भाई राम -राम,
    भाई गुफा तो प्राचीन ही लग रही है,ओर लाखामंडल भी देखना होगा की कौन सी सही है.

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    1. हां, फोटो में तो प्राचीन ही लग रही है लेकिन हैं नहीं।

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  7. Neeraj bhai is yatra kaa humko bhi bahut besabri se intjaar tha.aagaz aisa hai to anjam kaisa hoga,humain intjaar hai.subh yatra.

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  8. bahut badiya likha hai maza aa gya.

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  9. फोटो सहित बहुत बढ़िया जानकारी ..

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  10. बढ़िया जानकारी है।

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  11. नीरज भाई घुम्मक्कड़ी छोड़िय ये बताईये की बारात कब निकलेगी . सीजन चल रहा है.

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  12. बहुत बढियां सफर होने जा रहा है अब ट्रेन के रिज़र्वेशन का चक्कर भी खतम --- बाईक के लिए शुभ कामनाये ,लगता है बीबी को साथ घूमने की तैयारियां हो रही है। । देखना कही शादी में भूल न जाना

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  13. आपकी यात्रा का व्रतान्त पढ़कर मुझे ऐसा लगा की जैसे मैंने ही यात्रा कर ली हो . मेरी शुभकामनाए है की आप अगली बार नै कार लेकर भारत भ्रमण के लिए जाए.

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  14. बहुत अच्छी जानकारी

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