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Showing posts from 2015

श्योपुर कलां से ग्वालियर नैरो गेज ट्रेन यात्रा

   ग्वालियर और श्योपुर कलां से बीच 2 फीट गेज की यह रेलवे लाइन 200 किलोमीटर लम्बी है और विश्व की सबसे लम्बी नैरो गेज की लाइन है। लेकिन इसके बनने की कहानी बडी ही दिलचस्प है। ग्वालियर के महाराजा थे माधव राव जी। कहते हैं कि उन्होंने एक बार इंग्लैण्ड से टॉय ट्रेन मंगवाई। राजा थे तो यह टॉय ट्रेन कोई छोटी-मोटी तो होगी नही। बडी बिल्कुल असली ट्रेन थी लेकिन 2 फीट गेज की पटरियों पर चलती थी। इंजन था और छह सात डिब्बे थे। आधे किलोमीटर लम्बी पटरियां भी मंगाई गईं और किले के अन्दर ही बिछा दी गईं। लेकिन दिक्कत ये हो गई कि जब तक इंजन स्पीड पकडता, तब तक पटरियां ही खत्म हो जातीं। तो महाराजा ने और पटरियां मंगाईं और किले में ही करीब दो किलोमीटर लम्बा नेटवर्क बना दिया और अपनी निजी ट्रेन का आनन्द लेने लगे।    फिर ऐसा हुआ कि यह भी महाराजा को कम लगने लगा। किले में इतनी जगह नहीं थी कि इससे भी ज्यादा पटरियां बिछाई जायें। तय हुआ कि किले से बाहर पटरियां बिछाते हैं। बात किले के अन्दर थी तो अन्दर की बात थी लेकिन बाहर ऐसा करना थोडा मुश्किल था क्योंकि उस समय रेलवे लाइन बिछाना केवल अंग्रेजों का ही कार्य था, भारतीयों का न

सवाई माधोपुर-जोधपुर-बिलाडा-पुष्कर ट्रेन यात्रा

   ज्यादातर मित्र मेरी पैसेंजर ट्रेन यात्राओं को पसन्द नहीं करते। यह नापसन्दगी पिछले साल खूब सुनने को मिली, इसलिये ट्रेन यात्राओं के वृत्तान्त प्रकाशित करने बन्द कर रखे थे। पिछले साल का जो वृत्तान्त प्रकाशित किया था, वो था मुगलसराय से गोमो , गोमो से हावडा और पटना से बक्सर पैसेंजर ट्रेन यात्राएं। इसके अगले ही सप्ताह भारत के इसी हिस्से में मैं फिर गया था और गोमो से खडगपुर, खडगपुर से टाटानगर, बिलासपुर होते हुए गोंदिया, चाम्पा से गेवरा रोड और बिलासपुर से कटनी तक का मार्ग देख लिया था। रतनगढ-बीकानेर-फलोदी मार्ग भी देखा और पठानकोट-अमृतसर, जालन्धर-पठानकोट-जम्मू-तवी-श्री माता वैष्णों देवी कटडा, दिल्ली-फर्रूखनगर, जोधपुर-भिलडी, पाटन-महेसाना-वीरमगाम-राजकोट, अहमदाबाद-आबू रोड मार्गों पर रेल यात्राएं कीं और रास्ते में आने वाले सभी स्टेशनों के बोर्डों के फोटो भी लिये। मुझे स्टेशन बोर्ड के फोटो संग्रह करने का शौक है। पिछले दिनों भिण्ड-ग्वालियर-गुना मार्ग देखा जिसका वृत्तान्त प्रकाशित किया जा चुका है। अब के बाद ऐसी ट्रेन यात्राओं के वृत्तान्त भी छपा करेंगे। ताजातरीन यात्रा का वृत्तान्त आज पढिये।    य

जोशीमठ-पौडी-कोटद्वार-दिल्ली

30 सितम्बर 2015 आज हमें दिल्ली के लिये चल देना था। सुबह सात बजे ही निकल पडे। एक घण्टे में पीपलकोटी पहुंचे। पूर्व दिशा में पहाड होने के कारण धूप हम तक नहीं पहुंच पा रही थी, इसलिये रास्ते भर ठण्ड लगी। पीपलकोटी में बस अड्डे के पास ताजी बनी पकौडियां देखकर रुक गये। यहां धूप थी। पकौडियां, चाय और गुनगुनी धूप; तीनों के सम्मिश्रण से आनन्द आ गया। आधे घण्टे में यहां से चले तो नौ बजे चमोली पहुंचे, दस बजे कर्णप्रयाग। यहां 15 मिनट रुके, आराम किया। वातावरण में गर्मी बढने लगी थी। रास्ता अलकनन्दा के साथ साथ है और ज्यादा ऊंचाई पर भी नहीं है। इसलिये गर्मी लगती है। गौचर रुके। यहां से बाल मिठाई ली। हम दोनों को यह मिठाई बेहद पसन्द है लेकिन चूंकि यह कुमाऊं की मिठाई है इसलिये लगता है गढवाल वाले इसे बनाना नहीं जानते। कुछ दिन पहले कर्णप्रयाग से ली थी, वो पिघल गई थी और सभी मिठाईयां एक बडा लड्डू बन गई थीं। आज ली तो यह भी खराब थी। इसका पता दिल्ली आकर चला। खैर, गौचर में दुकान वाले से कुछ बातें कीं। आपको पता नहीं याद हो या न हो; कुछ साल पहले जब देश में कांग्रेस की सरकार थी, तो सोनिया और राहुल गांधी आदि गौचर आये थे औ

बद्रीनाथ यात्रा

29 सितम्बर 2015    आपको याद होगा कि हम बद्रीनाथ नहीं जाना चाहते थे क्योंकि बद्रीनाथ के साथ साथ वसुधारा, सतोपंथ, हेमकुण्ड और फूलों की घाटी को हम एक साथ देखते और पूरे आठ-दस दिनों के लिये आते। लेकिन कल करण के बद्रीनाथ प्रेम के कारण हमें भी आना पडा। हमारे पास बद्रीनाथ में बिताने को केवल एक ही दिन था। जोशीमठ से लगभग 50 किमी दूर है बद्रीनाथ। हमने जोशीमठ में ही सामान छोडकर रात होने तक वापस यहीं आ जाने का विचार किया ताकि कल वापस दिल्ली के लिये निकला जा सके और उजाले में अधिकतम दूरी तय की जा सके।    तो नहा-धोकर और गोभी के परांठे का नाश्ता करके साढे दस बजे बद्रीनाथ के लिये निकल पडे। शुरूआती दस किलोमीटर यानी अलकनन्दा पुल तक उतराई है, उसके बाद चढाई है। अलकनन्दा पुल के पास ही विष्णु प्रयाग है जहां अलकनन्दा में धौलीगंगा आकर मिलती है। धौलीगंगा घाटी बडी ही विलक्षण है। 1962 से पहले कैलाश मानसरोवर जाने का एक रास्ता यहां से भी था। वह रास्ता धौलीगंगा घाटी में ऊपर चढता था और नीति दर्रा पार करके यात्री तिब्बत में प्रवेश करते थे। अब तो नीति दर्रा इतना दुर्गम हो गया है कि कोई आम भारतीय भी वहां नहीं जा सकता। ऐस

अनुसुईया से जोशीमठ

28 सितम्बर 2015 सुबह उठे तो पैर बुरी तरह अकडे थे। करण तो चलने में बिल्कुल असमर्थ ही हो गया था। इसका कारण था कि कल हमने तेज ढाल का कई किलोमीटर का रास्ता तय किया था। कल हम कई घण्टों तक उतरते ही रहे थे, इसलिये पैरों की दुर्गति होनी ही थी। आज के लिये कल तय किया था कि पहले अत्रि मुनि आश्रम जायेंगे, फिर वापस मण्डल। अत्रि मुनि आश्रम जाकर वापस अनुसुईया आना पडता, इसलिये किसी की भी वहां जाने की हिम्मत नहीं हुई। आलू के परांठे बनवा लिये। साथ ही उसने थोडा सा पानी भी छौंक दिया। जी हां, पानी। प्याज टमाटर को बारीक काटकर पहले फ्राई किया, फिर उसमें दो-तीन गिलास पानी डाल दिया और उबलने दिया। फिर इसे चखकर देखा तो मजा आ गया। था तो यह पानी ही लेकिन इसका स्वाद किसी दाल या आलू की सब्जी को भी पीछे छोड रहा था।

रुद्रनाथ यात्रा- पंचगंगा से अनुसुईया

27 सितम्बर 2015    सवा ग्यारह बजे पंचगंगा से चल दिये। यहीं से मण्डल का रास्ता अलग हो जाता है। पहले नेवला पास (30.494732°, 79.325688°) तक की थोडी सी चढाई है। यह पास बिल्कुल सामने दिखाई दे रहा था। हमें आधा घण्टा लगा यहां तक पहुंचने में। पंचगंगा 3660 मीटर की ऊंचाई पर है और नेवला पास 3780 मीटर पर। कल हमने पितरधार पार किया था। इसी धार के कुछ आगे नेवला पास है। यानी पितरधार और नेवला पास एक ही रिज पर स्थित हैं। यह एक पतली सी रिज है। पंचगंगा की तरफ ढाल कम है जबकि दूसरी तरफ भयानक ढाल है। रोंगटे खडे हो जाते हैं। बादल आने लगे थे इसलिये अनुसुईया की तरफ कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। धीरे-धीरे सभी बंगाली भी यहीं आ गये।    बडा ही तेज ढलान है, कई बार तो डर भी लगता है। हालांकि पगडण्डी अच्छी बनी है लेकिन आसपास अगर नजर दौडाएं तो पाताललोक नजर आता है। फिर अगर बादल आ जायें तो ऐसा लगता है जैसे हम शून्य में टंगे हुए हैं। वास्तव में बडा ही रोमांचक अनुभव था।

रुद्रनाथ यात्रा- पंचगंगा-रुद्रनाथ-पंचगंगा

27 सितम्बर 2015    सुबह छह बजे उठे और चाय-बिस्कुट खाकर रुद्रनाथ की ओर चल दिये। रुद्रनाथ यहां से तीन किलोमीटर दूर है। पंचगंगा समुद्र तल से 3660 मीटर पर है जबकि रुद्रनाथ 3510 मीटर पर। जाहिर है कि ढलान है। पंचगंगा ही वो स्थान है जहां मण्डल से आने वाला रास्ता भी मिल जाता है। हमें चूंकि अनुसुईया और मण्डल के रास्ते वापस जाना था, इसलिये रुद्रनाथ जाकर पंचगंगा आना ही पडता, इसलिये अपना सारा सामान यहीं रख दिया। पानी की एक बोतल, ट्रेकिंग पोल लेकर ही चले। अच्छी धूप निकली थी, रेनकोट की कोई आवश्यकता नहीं थी।    करीब एक किलोमीटर बाद लोहे के सरिये को ऐसे ही मोडकर एक द्वार बना रखा है। यहां से रुद्रनाथ के प्रथम दर्शन होते हैं। बडा ही मनोहारी इलाका है यह। दूर दूर तक फैले बुग्याल, कोई जंगल नहीं। हम वृक्ष-रेखा से ऊपर जो थे। रुद्रनाथ के पीछे के पहाडों पर बादल थे, अन्यथा पता नहीं कौन-कौन सी चोटियां दिखतीं।

रुद्रनाथ यात्रा- पुंग बुग्याल से पंचगंगा

26 सितम्बर 2015 आंख सात बजे से पहले ही खुल गई थी। बाहर निकले तो कोहरा था। चटाई बिछ गई और हम वहां जा भी बैठे। आलू के परांठे बनाने को कह दिया। परांठे खाये तो नीचे से एक ग्रुप आ गया। ये लोग खच्चर पर सवार थे। मुम्बई की कुछ महिलाएं थीं। सबसे पहले एक आईं, इनका नाम नीता था। 35 के आसपास उम्र रही होगी। भारी-भरकम कद-काठी। निशा ने धीरे से मुझसे कहा कि बेचारे खच्चर पर कैसी बीत रही होगी। खैर, अगले तीन दिनों तक हम मिलते रहे। उन्होंने पूर्वोत्तर समेत भारत के ज्यादातर इलाकों में भ्रमण कर रखा है। अच्छा लगता है जब कोई महिला इस तरह यात्रा करती हुई मिलती है। आठ बजे पुंग बुग्याल से चल दिये। घना जंगल तो है ही। आज कुछ चहल-पहल दिखी। कई बार तो ऊपर से लोग आते मिले और मुम्बई वाला ग्रुप हमारे पीछे था ही। खूब चौडी पगडण्डी है। जंगल होने के बावजूद भी कोई डर नहीं लगा। जितना ऊपर चढते जाते, नीचे पुंग बुग्याल उतना ही शानदार दिखता जाता। चारों ओर घना जंगल और बीच में घास का छोटा सा मैदान। हम आश्चर्य भी करते कि रात हम वहां रुके थे और अब इतना ऊपर आ गये।

रुद्रनाथ यात्रा: गोपेश्वर से पुंग बुग्याल

25 सितम्बर 2015 पांचों केदारों में केवल रुद्रनाथ ही अनदेखा बचा हुआ था, बाकी चारों केदार मैंने देख रखे हैं। सभी के लिये कुछ न कुछ पैदल अवश्य चलना पडता है। लेकिन रुद्रनाथ की यात्रा को कठिनतम माना जाता है। मैंने इसके कई यात्रा-वृत्तान्त पढ रखे हैं लेकिन एक बात का हमेशा सन्देह रहा। गोपेश्वर से रुद्रनाथ जाने के दो रास्ते हैं- एक तो मण्डल, अनुसुईया होते हुए और दूसरा सग्गर होते हुए। मुझे मण्डल का तो पता चल गया कि यह चोपता रोड पर गोपेश्वर से पन्द्रह किलोमीटर दूर है। लेकिन कभी यह पता नहीं चला कि सग्गर कहां है। चोपता रोड पर ही है या किसी और सडक पर है। सग्गर से आगे भी कोई सडक जाती है या सग्गर में ही सडक समाप्त हो जाती है- इस बात को जानने की मैंने खूब कोशिश कर ली लेकिन मैं यात्रा पर जाने तक नहीं जान पाया था कि सग्गर कहां है। गूगल मैप पर भी सग्गर की कोई स्थिति नहीं है। जब आपको यह आधारभूत जानकारी ही नहीं होगी तो आपको आगे का कार्यक्रम बनाने में भी परेशानी आयेगी।

गैरसैंण से गोपेश्वर और आदिबद्री

25 सितम्बर 2015    दिल्ली से चले थे तो हमारी योजना बद्रीनाथ और सतोपंथ जाने की थी लेकिन रात जब सतोपंथ के बारे में नेट पर पढने लगे तो पता चला कि वहां जाने का परमिट लेना होता है और गाइड-पोर्टर और राशन-पानी भी साथ लेकर चलना होता है। तभी मैंने सतोपंथ जाना स्थगित कर दिया और विचार किया कि रुद्रनाथ जायेंगे। निशा तो तुरन्त राजी हो गई लेकिन करण को समझाना पडा क्योंकि वह बद्रीनाथ और सतोपंथ का ही विचार किये बैठा था। आखिरकार वह भी मान गया।    सुबह सवा आठ बजे बिना नाश्ता किये गैरसैंण से चलना पडा क्योंकि रेस्टोरेंट का रसोईया आज नहीं आया था। यहां से आदिबद्री ज्यादा दूर नहीं है। वहीं नाश्ता करेंगे।    कुछ दूर तक चढाई है, फिर उतराई है। यहां हमें चाय की खेती दिखाई दी। उत्तराखण्ड में अक्सर चाय नहीं होती लेकिन यहां कुछ जगहों पर चाय की खेती होती है। यह इलाका मुझे बडा पसन्द आया। एक तो यह काफी ऊंचाई पर है, फिर चीड का जंगल। कहीं 2000 मीटर से ऊंची जगह पर अगर आपको चीड का जंगल मिले तो समझना कि आप वहां पूरा दिन भी बिता सकते हैं। बार-बार रुकने को मन करता है। खूब फोटो खींचने को मन करता है।

दिल्ली से गैरसैंण और गर्जिया देवी मन्दिर

   सितम्बर का महीना घुमक्कडी के लिहाज से सर्वोत्तम महीना होता है। आप हिमालय की ऊंचाईयों पर ट्रैकिंग करो या कहीं और जाओ; आपको सबकुछ ठीक ही मिलेगा। न मानसून का डर और न बर्फबारी का डर। कई दिनों पहले ही इसकी योजना बन गई कि बाइक से पांगी, लाहौल, स्पीति का चक्कर लगाकर आयेंगे। फिर ट्रैकिंग का मन किया तो मणिमहेश परिक्रमा और वहां से सुखडाली पास और फिर जालसू पास पार करके बैजनाथ आकर दिल्ली की बस पकड लेंगे। आखिरकार ट्रेकिंग का ही फाइनल हो गया और बैजनाथ से दिल्ली की हिमाचल परिवहन की वोल्वो बस में सीट भी आरक्षित कर दी।    लेकिन उस यात्रा में एक समस्या ये आ गई कि परिक्रमा के दौरान हमें टेंट की जरुरत पडेगी क्योंकि मणिमहेश का यात्रा सीजन समाप्त हो चुका था। हम टेंट नहीं ले जाना चाहते थे। फिर कार्यक्रम बदलने लगा और बदलते-बदलते यहां तक पहुंच गया कि बाइक से चलते हैं और मणिमहेश की सीधे मार्ग से यात्रा करके पांगी और फिर रोहतांग से वापस आ जायेंगे। कभी विचार उठता कि मणिमहेश को अगले साल के लिये छोड देते हैं और इस बार पहले बाइक से पांगी चलते हैं, फिर लाहौल में नीलकण्ठ महादेव की ट्रैकिंग करेंगे और वापस रोहतांग स

पातालकोट से इंदौर वाया बैतूल

पातालकोट हम घूम चुके और अब बारी थी वापस इन्दौर जाने की। एक रास्ता तो यही था जिससे हम आये थे यानी पिपरिया, होशंगाबाद, भोपाल होते हुए। इस रास्ते को हम देख चुके थे। दूसरा रास्ता था बैतूल होते हुए। मैं इसी बैतूल वाले से जाना चाहता था। नया रास्ता, नई जगह देखने को मिलेगी। तामिया से दोनों रास्ते अलग होते हैं। हम बायें मुड गये और जुन्नारदेव के लिये ग्रामीण रास्ता पकड लिया। तामिया से जुन्नारदेव 28 किलोमीटर है और सारा रास्ता अच्छा बना है। सडक सिंगल लेन है यानी पतली सी है और कोई ट्रैफिक नहीं। ऊंची-नीची छोटी-छोटी पहाडियां इस रास्ते को बाइक चलाने के लिये शानदार बनाती हैं। आधा घण्टा लगा जुन्नारदेव पहुंचने में। शाम के चार बज चुके थे। बैतूल अभी भी लगभग 100 किलोमीटर था। मुझे इस दूरी को तय करने में लगभग तीन घण्टे लगेंगे, अगर सडक अच्छी हुई तो। यानी बैतूल पहुंचने में अन्धेरा हो जाना है। मैं अन्धेरे में बाइक चलाना पसन्द नहीं करता इसलिये तय कर लिया कि रात बैतूल रुकना है। उधर सुमित पहले ही काफी लेट हो रहा था। उन्हें जल्द से जल्द इन्दौर पहुंचना था इसलिये आज वे बैतूल नहीं रुक सकते थे। सहमति बनी और हम जुन्नारदे

पातालकोट भ्रमण और राजाखोह की खोज

   अगले दिन यानी 24 अगस्त को आराम से साढे आठ बजे सोकर उठे। तेज हवाएं अभी भी चल रही थीं। बाहर निकले तो घना कोहरा था। अगस्त में कोहरा आमतौर पर नहीं होता लेकिन यहां के भूगोल, तेज हवाओं और अगस्त के नम वातावरण की वजह से यहां ऊपर बादल बन गये थे जो कोहरे जैसे लग रहे थे। नीचे घाटी में कोई कोहरा नहीं होगा। अदभुत अनुभव था।    मैं और सुमित बाइक पर दूध लेने चल दिये। चौकीदार ने बताया कि गांव में किसी के यहां दूध मिल जायेगा। डिब्बा लेकर हम एक घर में पहुंचे। आवाज देने पर एक लडका बाहर आया। पूछने पर उसने पहले तो हमें विस्मय से देखा, फिर बोला- अभी हमारी गईया नहीं ब्याई है। फिर हमने किसी और से नहीं पूछा और सीधे पहुंचे तीन किलोमीटर दूर छिन्दी बाजार में। बाजार खुलने लगा था और हलवाई के यहां हमारी उम्मीदों के विपरीत ताजा पोहा उपलब्ध था। कल हमें बताया गया था कि यहां खाने को कुछ नहीं मिलता। अगर पोहे का पता होता तो हम आज खिचडी नहीं बनाते। देर-सबेर यहां आना ही था। हम सभी पोहे को बडे चाव से खाते हैं, तो आराम से भरपेट खाते।

पचमढ़ी से पातालकोट

23 अगस्त 2015 बहुत दिनों से सोच रखा था कि जब भी पचमढी जाऊंगा, तब पातालकोट भी जाना है। मेरे लिये पचमढी से ज्यादा आकर्षक पातालकोट था। अब जब हम पचमढी में थे और हमारे पास बाइक भी थी, तो इतना तो निश्चित था कि हम पातालकोट भी अवश्य जायेंगे। पातालकोट का रास्ता तामिया से जाता है, तामिया का रास्ता मटकुली से जाता है और मटकुली पचमढी जाते समय रास्ते में आता है। मटकुली में एक तिराहा है जहां से एक सडक पिपरिया जाती है, एक जाती है पचमढी और तीसरी सडक जाती है तामिया होते हुए छिन्दवाडा और आगे नागपुर। डेढ बजे पचमढी से चल दिये और एक घण्टे में ही मटकुली पहुंच गये। रास्ता पहाडी है और ढलान भरा है। हम रात के अन्धेरे में पचमढी आये थे। तब यह रास्ता बहुत मुश्किल लग रहा था, अब उतना मुश्किल नहीं लगा। पचमढी में मौसम अच्छा था, लेकिन जितना नीचे आते गये, उतनी ही गर्मी बढती गई।

पचमढी: चौरागढ यात्रा

   आज हम जल्दी उठे और साढे छह बजे तक कमरा छोड दिया। आज हमें चौरागढ जाना था और वापस आकर दोपहर से पहले पचमढी छोड देना था। कल हम महादेव गये थे, जो कि पचमढी से दस किलोमीटर दूर है। आज भी सबसे पहले महादेव ही गये। रास्ते भर कोई नहीं मिला। लेकिन महादेव जाकर देखा तो हमसे पहले भी कई लोग चौरागढ जाने को तैयार मिले। दुकानें खुली मिलीं और उत्पाती बन्दर भी पूरे मजे में मिले। पार्किंग में बाइकें खडी करने लगे तो दुकान वालों ने कहा कि उधर बाइक खडी मत करो, बन्दर सीट कवर फाड देंगे। यहां हमारे पास खडी कर दो। उनके कहे अनुसार बाइक खडी कीं और उनके ही कहे अनुसार सीटों पर पत्थर रख दिये ताकि बन्दर सीटों पर ज्यादा ध्यान न दें।    पैदल रास्ता यहीं से शुरू हो जाता है हालांकि सडक भी थोडा घूमकर कुछ आगे तक गई है। करीब एक किलोमीटर बाद सडक और पैदल रास्ते मिले हैं। हमें किसी ने नहीं बताया इस बारे में। बाइक वहां तक आसानी से चली जाती हैं और उधर बन्दरों का आतंक भी नहीं है। खैर।

पचमढी: राजेन्द्रगिरी, धूपगढ और महादेव

   अप्सरा विहार से लौटकर हम गये राजेन्द्रगिरी उद्यान। यहां जाने का परमिट नहीं लगता। हमारा गाइड सुमित था ही। राजेन्द्रगिरी जैसा कि नाम से ही पता चल रहा है कि एक ऊंची जगह है। ज्यादा ऊंची नहीं है लेकिन यहां से पचमढी के कई अन्य आकर्षण दिखाई देते हैं। एक तरफ धूपगढ दिखता है तो दूसरी तरफ चौरागढ। राजेन्द्रगिरी में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की एक प्रतिमा है और अच्छा उद्यान भी है।    इसके बाद रुख किया हमने धूपगढ का। यह पचमढी की सबसे ऊंची चोटी है। यहां से सूर्योदय और सूर्यास्त का अच्छा नजारा दिखता है। यहां जाने का परमिट लगता है, जिसे हम सुबह ही ले चुके थे। एक जगह जांच चौकी थी, जहां परमिट चेक किये और रजिस्टर में हमारी एण्ट्री की। सडक ठीक बनी है हालांकि संकरी और ‘बम्पी’ है। पहाडी रास्ता है और चढाई भी। कुछ ही दिन पहले तीज थी और उसके दो दिन बाद शायद नागपंचमी। आदिवासी समाज में नागों का बहुत महत्व होता है और इन्हें पूजा भी जाता है। तब यहां मेला लगा होगा। तभी तो रास्ते भर निर्जनता होने के बावजूद भी मेले के निशान मिलते गये।

पचमढी: पाण्डव गुफा, रजत प्रपात और अप्सरा विहार

20 अगस्त 2015 की रात नौ बजे हम पचमढी पहुंचे। दिल्ली से चलते समय हमने जो योजना बनाई थी, उसके अनुसार हमें पचमढी नहीं आना था इसलिये यहां के बारे में कोई खोजबीन, तैयारी भी नहीं की। मुझे पता था कि यह एक सैनिक छावनी है। हमारे यहां लैंसडाउन और चकराता में भी सैनिक छावनियां हैं। दोनों के अनुभवों से मुझे सन्देह था कि इतनी रात को यहां कोई कमरा मिल जायेगा। लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं हुआ। अच्छी चहल-पहल थी और बाजार भी खुला था। सुमित यहां पहले आ चुका था, इसलिये हमारा मार्गदर्शक वही था। मेरे पास समय की कोई कमी नहीं थी। मेरी बस एक ही इच्छा थी कि वापसी में पातालकोट देखना है। आज हमारे पास बाइक है और पातालकोट यहां से ज्यादा दूर भी नहीं, इसलिये इस मौके को मैं नहीं छोडने वाला था। बाकी रही पचमढी, तो जैसे भी घुमाना है, घुमा।

भोजपुर, मध्य प्रदेश

   अगस्त 2009 में मैं पहली बार मध्य प्रदेश घूमने गया था। सबसे पहले पहुंचा था भीमबेटका । उसी दिन इरादा बना भोजपुर जाने का। भीमबेटका के पास ही है। लेकिन कोई सार्वजनिक वाहन उपलब्ध न होने के कारण आधे रास्ते से वापस लौटना पडा। तब से कसक थी कि भोजपुर जाना है। आज जब बाइक साथ थी और हम उसी सडक पर थे जिससे थोडा सा हटकर भोजपुर है, तो हमारा भोजपुर जाना निश्चित था। भोपाल से थोडा सा आगे भैरोंपुर है। भैरोंपुर से अगर सीधे हाईवे से जायें तो औबेदुल्लागंज 22 किलोमीटर है। लेकिन अगर भोजपुर होते हुए जायें तो यही दूरी 30 किलोमीटर हो जाती है। यह कोई ज्यादा बडा फर्क नहीं है।    सावन का महीना होने के कारण भोजपुर में थोडी चहल-पहल थी अन्यथा बाकी समय यहां सन्नाटा पसरा रहता होगा। बेतवा के किनारे है भोजपुर। राजा भोज के कारण यह नाम पडा। उन्होंने यहां बेतवा पर बांध बनवाये थे और इस शिव मन्दिर का निर्माण करवाया था। किन्हीं कारणों से निर्माण अधूरा रह गया। पूरा हो जाता तो यह बडा ही भव्य मन्दिर होता। इसकी भव्यता का अन्दाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि एक बडे ऊंचे चबूतरे पर मन्दिर बना है और मन्दिर में जो शिवलिंग है वो 5

इन्दौर से पचमढी बाइक यात्रा

21 अगस्त 2015    मुझे छह बजे ही उठा दिया गया, नहीं तो मैं अभी भी खूब सोता। लेकिन जल्दी उठाना भी विवशता थी। आज हमें पचमढी पहुंचना था जो यहां से 400 किलोमीटर से ज्यादा है। रास्ते में देवास से सुमित को अपने साले जी को भी साथ लेना था। सीबीजेड एक्सट्रीम पर मैं और निशा थे जबकि बुलेट पर सुमित और उनकी पत्नी। साले जी की अपनी बाइक होगी। सुमित ने हमें धन्यवाद दिया कि हम दोनों को देखकर ही उनकी पत्नी भी साथ चलने को राजी हुई हैं अन्यथा उनका दोनों का एक साथ केवल इन्दौर-देवास-इन्दौर का ही आना-जाना होता था, कहीं बाहर का नहीं।    तो साढे छह बजे यहां से चल दिये। सुबह-सुबह का समय था, आराम से शहर से पार हो गये। मेन रोड यानी एनएच 3 पर पहुंचे। यह शानदार छह लेन की सडक है। देवास तक हम इसी पर चलेंगे, उसके बाद भोपाल के लिये दूसरी सडक पकड लेंगे।

शीतला माता जलप्रपात, जानापाव पहाडी और पातालपानी

शीतला माता जलप्रपात (विपिन गौड की फेसबुक से अनुमति सहित)    इन्दौर से जब महेश्वर जाते हैं तो रास्ते में मानपुर पडता है। यहां से एक रास्ता शीतला माता के लिये जाता है। यात्रा पर जाने से कुछ ही दिन पहले मैंने विपिन गौड की फेसबुक पर एक झरने का फोटो देखा था। लिखा था शीतला माता जलप्रपात, मानपुर। फोटो मुझे बहुत अच्छा लगा। खोजबीन की तो पता चल गया कि यह इन्दौर के पास है। कुछ ही दिन बाद हम भी उधर ही जाने वाले थे, तो यह जलप्रपात भी हमारी लिस्ट में शामिल हो गया।    मानपुर से शीतला माता का तीन किलोमीटर का रास्ता ज्यादातर अच्छा है। यह एक ग्रामीण सडक है जो बिल्कुल पतली सी है। सडक आखिर में समाप्त हो जाती है। एक दुकान है और कुछ सीढियां नीचे उतरती दिखती हैं। लंगूर आपका स्वागत करते हैं। हमारा तो स्वागत दो भैरवों ने किया- दो कुत्तों ने। बाइक रोकी नहीं और पूंछ हिलाते हुए ऐसे पास आ खडे हुए जैसे कितनी पुरानी दोस्ती हो। यह एक प्रसाद की दुकान थी और इसी के बराबर में पार्किंग वाला भी बैठा रहता है- दस रुपये शुल्क बाइक के। हेलमेट यहीं रख दिये और नीचे जाने लगे।

महेश्वर यात्रा

20 अगस्त 2015    हमें आज इन्दौर नहीं आना था। अभी दो दिन पैसेंजर ट्रेनों में घूमना था और तीसरे दिन यहां आना था लेकिन निशा एक ही दिन में पैसेंजर ट्रेन यात्रा करके थक गई और तब इन्दौर आने का फैसला करना पडा। महेश्वर जाने की योजना तो थी लेकिन साथ ही यह भी योजना थी कि दो दिनों में पैसेंजर यात्रा करते करते हम महेश्वर के बारे में खूब सारी जानकारी जुटा लेंगे, नक्शा देख लेंगे लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं हो सका। सुमित के यहां नेट भी बहुत कम चलता है, इसलिये हम रात को और अगले दिन सुबह को भी जानकारी नहीं जुटा पाये। हालांकि सुमित ने महेश्वर के बारे में बहुत कुछ समझा दिया लेकिन फिर भी हो सकता है कि हम महेश्वर के कुछ अत्यावश्यक स्थान देखने से रह गये हों।

घुमक्कड पत्रिका- 2

1. सम्पादकीय 2. लेख A. ब्लॉगिंग: एकल या सामूहिक B. किसी ब्लॉग को कैसे फॉलो करें? 3. यात्रा-वृत्तान्त A. पहाड तो आपके अपने हैं, इन्हें क्यों गन्दा करते हो? (अंशुल ग्रोवर) B. घुमक्कड और घुमक्कडी से साक्षात्कार (डॉ. सुमित शर्मा) 4. ब्लॉग अपडेट

भिण्ड-ग्वालियर-गुना पैसेंजर ट्रेन यात्रा

   18 अगस्त 2015    आज है 20 सितम्बर यानी यात्रा किये हुए एक महीना हो चुका है। अमूमन मैं इतना समय वृत्तान्त लिखने में नहीं लगाता हूं। मैं यथाशीघ्र लिखने की कोशिश करता हूं ताकि लेखन में ताजगी बनी रहे। वृत्तान्त जितनी देर से लिखेंगे, उतना ही यह ‘समाचार’ होने लगता है। इसका कारण था कि वापस आते ही अण्डमान की तैयारियां करने लगा। फिर लद्दाख वृत्तान्त भी बचा हुआ था। अण्डमान तो नहीं जा पाये लेकिन फिर कुछ समय वहां न जाने का गम मनाने में निकल गया। अभी परसों ही चम्बा की तरफ निकलना है, उसमें ध्यान लगा हुआ है। न लिखने के कारण ब्लॉग पर ट्रैफिक कम होने लगा है। बडी अजीब स्थिति है- जब चार दिन वृत्तान्त न लिखूं और मित्रगण कहें कि बहुत दिन हो गये लिखे हुए तो मित्रों को गरियाता हूं कि पता है कितना समय लगता है लिखने में। तुमने तो चार सेकण्ड लगाये और शिकायत कर दी। इस बार किसी मित्र ने शिकायत नहीं की तो भी गरियाने का मन कर रहा है- भाईयों, भूल तो नहीं गये मुझे?

लद्दाख बाइक यात्रा का कुल खर्च

इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें ।    हम कोठारी साहब के साथ यात्रा पर निकले थे। खर्च हमने सम्मिलित रूप से शुरू किया था, बाद में दिल्ली आकर हिसाब लगा लेते। लेकिन कोठारी साहब श्रीनगर में बिछड गये। इन तीन-चार दिनों का हमने कोई हिसाब नहीं किया। जो खर्च कोठारी साहब ने किया, वो उनका था और जो हमने किया, वो हमारा था।  दिनांक: 6 जून 2015, शनिवार स्थान दूरी समय खर्च दिल्ली 0 17:50 800 पेट्रोल (12 लीटर) बहलगढ 47 19:20 पानीपत पार 103 20:15-20:45 70 कोल्ड ड्रिंक (कोठारी जी) पीपली 170 22:05-22:15 अम्बाला छावनी 211 23:00-23:20 बनूड 242 23:59 कुल दूरी: 242 मेरा कुल खर्च: 800

लद्दाख बाइक यात्रा- 21 (केलांग-मनाली-ऊना-दिल्ली)

23 जून 2015 हम किसी भी जल्दी में नहीं थे। हमें परसों दोपहर तक दिल्ली पहुंचना था और केलांग से हम आराम से दो दिन में दिल्ली पहुंच सकते हैं। इसी वजह से रोज की तरह आज भी देर तक सोये। उठे तो मनदीप का फोन आया। वो आज सपरिवार मनाली आ रहा है और अभी बिलासपुर के आसपास था। यानी दोपहर तक वह मनाली पहुंच जायेगा। उसके पास अपनी गाडी है। हमने भी इरादा बना लिया कि आज हम मनदीप के साथ ही रुकेंगे और शाम को शानदार डिनर करेंगे। दस बजे केलांग से चले। जल्दी ही टांडी पहुंच गये। यहां बारालाचा-ला से निकलकर दो अलग-अलग दिशाओं में बही चन्द्रा और भागा नदियों का संगम होता है। आलू के परांठे खाये और बाइक की टंकी फुल करा ली। हिमाचल में रोहतांग पार पूरे लाहौल में एकमात्र पेट्रोल पम्प टांडी में ही है। टांडी से आगे अगला पेट्रोल पम्प लगभग साढे तीन सौ किलोमीटर दूर लेह के पास कारू में है। बाइक की टंकी लगभग खाली हो चुकी थी, इसमें 11.83 लीटर पेट्रोल आया। कम्पनी के अनुसार टंकी की क्षमता 10 लीटर है। मैंने गुजरात से लेकर हिमाचल और जम्मू-कश्मीर तक हर जगह टंकी फुल कराई है, इसमें हमेशा 10 लीटर से ज्यादा ही तेल आता है। अब या तो कम्पनी ग

घुमक्कड पत्रिका- 1

1. सम्पादकीय 2. लेख A. घुमक्कडी क्या है और कैसे घुमक्कडी करें? B. असली जीटी रोड 3. यात्रा-वृत्तान्त A. रानीखेत-बिनसर यात्रा B. सावन में ज्योतिर्लिंग ओमकारेश्वर की परिक्रमा व दर्शन 4. ब्लॉग अपडेट

लद्दाख बाइक यात्रा- 20 (भरतपुर-केलांग)

22 जून 2015 आज हमें केवल केलांग तक ही जाना था इसलिये उठने में कोई जल्दबाजी नहीं की बल्कि खूब देर की। मुजफ्फरनगर वाला ग्रुप लेह की तरफ चला गया था और उनके बाद लखनऊ वाले भी चले गये। टॉयलेट में गया तो पानी जमा मिला यानी रात तापमान शून्य से नीचे था। सामने ही बारालाचा-ला है और इस दर्रे पर खूब बर्फ होती है। मनाली-लेह सडक पर सबसे ज्यादा बर्फ बारालाचा पर ही मिलती है। बर्फ के कारण सडक पर पानी आ जाता है और ठण्ड के कारण वो पानी जम भी जाया करता है इसलिये बाइक चलाने में कठिनाईयां आती हैं। देर से उठने का दूसरा कारण था कि धूप निकल जाये और सडक पर जमा हुआ पानी पिघल जाये ताकि बाइक न फिसले। लखनऊ वालों ने रात अण्डा-करी बनवा तो ली थी लेकिन सब सो गये और सारी सब्जी यूं ही रखी रही। रात उन्होंने कहा था कि सुबह वे अण्डा-करी अपने साथ ले जायेंगे लेकिन अब वे नहीं ले गये। मन तो हमारा कर रहा था कि अण्डा-करी मांग लें क्योंकि दुकानदार को भुगतान हो ही चुका था। हमें ये फ्री में मिलते लेकिन ज़मीर ने साथ नहीं दिया। दूसरी बात कि तम्बू वाले दोनों पति-पत्नी थे। इस तम्बू के सामने वाला तम्बू इसी महिला की मां संभाल रही थी। यह महि

लद्दाख बाइक यात्रा- 19 (शो कार-डेबरिंग-पांग-सरचू- भरतपुर)

21 जून 2015 आराम से सोकर उठे- नौ बजे। नाश्ते में चाय, आमलेट के साथ एक-एक रोटी खा ली। कल जितना मौसम साफ था, आज उतना ही खराब। बूंदाबांदी भी हो जाती थी। पिछली बार यहां आया था, तब भी रात-रात में मौसम खराब हो गया था, आज भी हो गया। पेट्रोल की बात की तो दुकान वाले ने आसपास की दुकानों पर भागादौडी की लेकिन पेट्रोल नहीं मिला। कहा कि डेबरिंग में मिल जायेगा। बाइक कल ही रिजर्व में लग चुकी थी, अब बोतल का दो लीटर पेट्रोल भी खाली कर दिया। दस बजे यहां से चल दिये। रात हमने बाइक से सामान खोला ही नहीं था। केवल टैंक बैग उतार लिया था। खोलने में तो मेहनत लगती ही है, सुबह बांधने में और भी ज्यादा मेहनत लगती है।

लद्दाख बाइक यात्रा- 18 (माहे-शो मोरीरी- शो कार)

20 जून 2015 साढे आठ बजे सोकर उठे और नौ बजे तक यहां से निकल लिये। बारह किलोमीटर आगे सुमडो है जहां खाने पीने को मिलेगा, वहीं नाश्ता करेंगे। सुमडो का अर्थ होता है संगम। गांव का नाम है पुगा और दो धाराओं के संगम पर बसा होने के कारण बन गया- पुगा सुमडो। लेकिन आम बोलचाल में सुमडो ही कहा जाता है। यहां से एक रास्ता शो मोरीरी जाता है और दूसरा रास्ता शो-कार । आपको याद होगा कि शो-कार झील लेह-मनाली रोड के पास स्थित है। हमें आज पहले शो मोरीरी जाना है, फिर वापस सुमडो तक आकर शो-कार वाले रास्ते पर चल देना है। शो-कार की तरफ चलने का अर्थ है मनाली की ओर चलना और मनाली की ओर चलने का अर्थ है दिल्ली की ओर चलना। इस प्रकार जैसे ही आज हम शो-मोरीरी से वापस मुडेंगे, दिल्ली के लिये वापसी आरम्भ कर देंगे। सुमडो से थोडा आगे एक दुकान है। हम यहीं रुक गये। दस बजने वाले थे, हम पेट भर ही लेना चाहते थे लेकिन यहां ज्यादा कुछ नहीं मिला। चाय, बिस्कुट में काम चलाया। कोई बात नहीं, आगे शो-मोरीरी पर बहुत कुछ खाने को मिलेगा।

लद्दाख बाइक यात्रा- 17 (लोमा-हनले-लोमा-माहे)

19 जून 2015 भारतीय सेना के अपनेपन से अभिभूत होकर सुबह सवा नौ बजे हमने हनले के लिये प्रस्थान किया। जरा सा आगे ही आईटीबीपी की चेकपोस्ट है और दो बैरियर भी हैं। यहां से एक रास्ता सिन्धु के साथ-साथ उप्शी और आगे लेह चला जाता है, एक रास्ता वही है जिससे हम आये हैं यानी चुशुल वाला और तीसरा रास्ता सिन्धु पार जाने के लिये है। सिन्धु पार होते ही फिर दो रास्ते मिलते हैं- एक सीधा हनले जाता है और दूसरा बायें कोयुल होते हुए देमचोक। देमचोक ही वो स्थान है जहां से सिन्धु तिब्बत से भारत में प्रवेश करती है। गूगल मैप के भारतीय संस्करण में देमचोक को भारत का हिस्सा दिखाया गया है, अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण  में इसे विवादित क्षेत्र बताया है जो भारतीय दावे और चीनी दावे के बीच में है और चीनी संस्करण  में इसे चीन का हिस्सा दिखाया है। लेकिन फिलहाल जमीनी हकीकत यह है कि देमचोक भारतीय नियन्त्रण में है। देमचोक का परमिट बिल्कुल नहीं मिलता है। अगर आपकी सैन्य पृष्ठभूमि रही है तो शायद आप वहां जा सकते हैं अन्यथा नहीं। हालांकि लोमा में सिन्धु पार करके देमचोक वाली सडक पर कोई नहीं था, आप भूलवश कुछ दूर तक जा सकते हैं, शायद कोयुल

लद्दाख बाइक यात्रा- 16 (मेरक-चुशुल-सागा ला-लोमा)

18 जून 2015 दोपहर के पौने दो बजे हम पेंगोंग किनारे स्थित मेरक गांव से चले। हमारा आज का लक्ष्य हनले पहुंचने का था जो अभी भी लगभग 150 किलोमीटर दूर है। मेरे पास सभी स्थानों की दूरियां थीं और यह भी ज्ञात था कि कितनी दूर खराब रास्ता मिलेगा और कितनी दूर अच्छा रास्ता। इन 150 किलोमीटर में से लगभग 60 किलोमीटर खराब रास्ता है, बिल्कुल वैसा ही जैसा हमने स्पांगमिक से यहां तक तय किया है। इन 60 किलोमीटर को तय करने में तीन घण्टे लगेंगे और बाकी के 90 किलोमीटर को तय करने में भी तीन ही घण्टे लगेंगे; ऐसा मैंने सोचा था। यानी हनले पहुंचने में अन्धेरा हो जाना है। अगर कुछ देर पहले वो बुलेट खराब न होती तो हम उजाला रहते हनले पहुंच सकते थे।

लद्दाख बाइक यात्रा- 15 (पेंगोंग झील: लुकुंग से मेरक)

17 जून 2015 दोपहर बाद साढे तीन बजे हम पेंगोंग किनारे थे। अर्थात उस स्थान पर जहां से पेंगोंग झील शुरू होती है और लुकुंग गांव है। इस स्थान को ‘पेंगोंग’ भी कह देते हैं। यहां खाने-पीने की बहुत सारी दुकानें हैं। पूरे लद्दाख में अगर कोई स्थान सर्वाधिक दर्शनीय है तो वो है पेंगोंग झील। आप लद्दाख जा रहे हैं तो कहीं और जायें या न जायें लेकिन पेंगोंग अवश्य जायें। अगर शो-मोरीरी छूट जाये तो छूटने दो, नुब्रा छूटे तो छूटने दो लेकिन पेंगोंग झील नहीं छूटनी चाहिये। यह एक साल्टवाटर लेक है यानी नमक के पानी की झील है। नमक का पानी होने का यह अर्थ है कि इसका पानी रुका हुआ है, बहता नहीं है। हिमालय में अक्सर बहते पानी के रास्ते में कोई अवरोध आता है तो वहां झील बन जाती है। जब पानी का तल अवरोध से ऊंचा होने लगता है तो पानी बह निकलता है, रुकता नहीं है। लेकिन पेंगोंग ऐसी झील नहीं है। इसमें चारों तरफ से छोटे छोटे नालों से पानी आता रहता है और जाता कहीं नहीं है। तेज धूप पडती है तो उडता रहता है और खारा होता चला जाता है।

लद्दाख बाइक यात्रा- 14 (चांग ला - पेंगोंग)

17 जून 2015 शोल्टाक से हम सवा दस बजे चले। तीन किलोमीटर ही चले थे कि दाहिनी तरफ एक झील दिखाई दी। इसका नाम नहीं पता। हम रुक गये। यह एक काफी चौडी घाटी है और वेटलैण्ड है यानी नमभूमि है। चांगला और अन्य बर्फीली जगहों से लगातार पानी आता रहता है और नमी बनी रहती है। साथ ही हरियाली भी। ऐसी जगहें लद्दाख में कई हैं। मनाली रोड पर डेबरिंग तो विश्व प्रसिद्ध है। डेबरिंग की पश्मीना भेडों का बडा नाम है। कहीं भेडपालन होता है, कहीं याकपालन। यहां जहां रात हम रुके थे, वहां याकपालन हो रहा था। पानी के रास्ते में थोडा सा अवरोध आते ही वो झील का रूप ले लेता है। यहां भी इसी तरह की झील बनी है। अच्छी लगती है। हो सकता है कि पेंगोंग के चक्कर में आपने यह झील न देखी हो। अगली बार पेंगोंग जाना हो तो इसे अवश्य देखना। पेंगोंग अपनी जगह है लेकिन यह भी खूबसूरती में कम नहीं है। इससे आगे रास्ता भी बेहद खूबसूरत है। हरी घास कालीन की तरह बिछी है और लद्दाख के बंजर में आंखों को अच्छी लगती है। थोडा ही आगे यह नदी दुरबुक की तरफ से आती एक नदी में मिल जाती है और दोनों सम्मिलित होकर श्योक में मिलने चल देती हैं। जहां इसका और श्योक का संगम

लद्दाख बाइक यात्रा- 13 (लेह-चांग ला)

(मित्र अनुराग जगाधरी जी ने एक त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाया। पिछली पोस्ट में मैंने बाइक के पहियों में हवा के प्रेशर को ‘बार’ में लिखा था जबकि यह ‘पीएसआई’ में होता है। पीएसआई यानी पौंड प्रति स्क्वायर इंच। इसे सामान्यतः पौंड भी कह देते हैं। तो बाइक के टायरों में हवा का दाब 40 बार नहीं, बल्कि 40 पौंड होता है। त्रुटि को ठीक कर दिया है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद अनुराग जी।) दिनांक: 16 जून 2015 दोपहर बाद तीन बजे थे जब हम लेह से मनाली रोड पर चल दिये। खारदुंगला पर अत्यधिक बर्फबारी के कारण नुब्रा घाटी में जाना सम्भव नहीं हो पाया था। उधर चांग-ला भी खारदुंगला के लगभग बराबर ही है और दोनों की प्रकृति भी एक समान है, इसलिये वहां भी उतनी ही बर्फ मिलनी चाहिये। अर्थात चांग-ला भी बन्द मिलना चाहिये, इसलिये आज उप्शी से शो-मोरीरी की तरफ चले जायेंगे। जहां अन्धेरा होने लगेगा, वहां रुक जायेंगे। कल शो-मोरीरी देखेंगे और फिर वहीं से हनले और चुशुल तथा पेंगोंग चले जायेंगे। वापसी चांग-ला के रास्ते करेंगे, तब तक तो खुल ही जायेगा। यह योजना बन गई।

लद्दाख बाइक यात्रा- 12 (लेह-खारदुंगला)

16 जून 2015 एक बात मैं अक्सर सोचता हूं। हम मैदानों में बाइक के पहियों में हवा लगभग 35 पौंड पर भरते हैं। जब हम लद्दाख जैसी ऊंची जगहों पर पहुंचते हैं तो वातावरण में हवा का दबाव कम होने के कारण पहियों में हवा का दाब बढ जाता है। जैसे कि मान लो लेह में हवा का दाब दिल्ली के मुकाबले आधा है, तो दिल्ली में भरी गई 35 पौंड की हवा लेह में 70 पौंड का प्रभाव पैदा करेगी। यह खतरनाक हो सकता है। बाइकों में अधिकतम 40 पौंड तक ही हवा भरी जाती है, उससे ज्यादा हवा अगर भरी गई तो टायर के फटने का डर हो जाता है। लेकिन ऊंचाईयों पर पहुंचने पर दाब 70 पौंड तक भी पहुंच जाता है, जो निश्चित रूप से अत्यधिक खतरनाक है। ऐसे में अत्यधिक दाब वाली हवा ट्यूब पर, पहिये पर दबाव डालती है और ट्यूब जहां से भी कमजोर होती है, वहीं से पंचर हो जाती है। लद्दाख में दर्रों के आसपास पंचर ज्यादा होते हैं। केवल इसीलिये। इसलिये जरूरी था कि हवा चेक की जाये। यह काम हम कल नहीं करा सके, सोचा कि आज चलते समय करायेंगे। लेकिन आज सुबह नौ बजे हम चल पडे, लेह से बाहर निकल गये लेकिन हवा चेक नहीं कराई। यह खतरनाक तो था लेकिन जो होगा देखा जायेगा।

लद्दाख बाइक यात्रा- 11 (खालसी-लेह)

14 जून 2015, आज रविवार था और हम खालसी में थे। हमें आगे की यात्राओं के लिये चुशुल, हनले और चुमुर के परमिट की आवश्यकता थी। लेकिन आज परमिट नहीं बन सकता। इसलिये योजना थी कि आज खारदुंगला पार करके पनामिक तक पहुंचने की कोशिश करेंगे। कल तुरतुक और परसों वारी-ला के रास्ते कारू पहुंचेंगे, टंकी फुल करायेंगे और परमिट बनवाने लेह आ जायेंगे। उसके बाद फिर कारू और आगे पेंगोंग की तरफ चले जायेंगे। लेकिन नौ बजे सोकर उठे। जब तक यहां से चले, तब तक दस बज चुके थे। यहां से लेह सौ किलोमीटर दूर है और शानदार टू लेन सडक बनी है। काफी रास्ता समतल है इसलिये तीन घण्टे में लेह पहुंच जाने का इरादा था। रास्ता सिन्धु के साथ साथ है। ससपोल से आगे ऊपर चढकर जहां से लिकिर गोम्पा के लिये रास्ता अलग होता है, हम रुक गये। यहां काफी लम्बा-चौडा मैदान है। अच्छा लगता है। दस मिनट यहां रुके, फिर चल पडे। बारह बजे तक निम्मू पार कर लिया। यहां सिन्धु में जांस्कर नदी आकर मिलती है। जांस्कर एक बहुत बडे इलाके का पानी अपने साथ लाती है। इसका जल-प्रवाह क्षेत्र इतना दुर्गम है कि आज तक वहां ढंग की सडक भी नहीं बन पाई है। इसी जांस्कर घाटी में सर्दियों

डायरी के पन्ने- 33

नोट: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। 1. हमारा एक व्हाट्स एप ग्रुप है- `घुमक्कडी... दिल से'। इसमें वे लोग शामिल हैं जो घूमते हैं और फिर उसे ब्लॉग पर लिखते भी हैं। लेकिन इसमें कुछ ऐसे भी लोग हैं जो साल में एकाध यात्रा-पोस्ट डाल देते हैं। इनमें दर्शन कौर धनोए प्रमुख हैं। कुछ तो ऐसे भी लोग हैं जो न लिखते हैं और न ही कहीं घूमने जाते हैं। ये लोग बेवजह आकर बेकार की बातें करते थे। मुझे इन लोगों से आपत्ति थी और एक बार ग्रुप छोड भी दिया था लेकिन एडमिन साहब अपने बेहद नजदीकी हैं, इसलिये पुनः शामिल हो गया। एक दिन प्रदीप चौहान ने अपने ब्लॉग का लिंक शेयर किया- safarhaisuhana.blogspot.in । उधर रीतेश गुप्ता जी के ब्लॉग का यूआरएल है- safarhainsuhana.blogspot.in । जाहिर है कि दोनों में एक N का फर्क है। रीतेश गुप्ता भी इस ग्रुप में शामिल हैं। प्रदीप ने हम सबसे अपना ब्लॉग पढने और टिप्पणी करने की गुजारिश की थी। मेरा दूसरों के यात्रा-वृत्तान्त पर टिप्पणी करने का कडवा अनुभव रहा है, इसलिये आजकल मैं न कोई यात्रा ब्लॉग पढता हूं और न ही टिप्पणी करता हूं; एकाध को छोडकर। मैं जब कोई यात्रा-वृत्तान्

लद्दाख बाइक यात्रा- 10 (शिरशिरला-खालसी)

13 जून 2015 सवा दो बजे हम शिरशिरला पहुंच गये थे। यह स्थान समुद्र तल से 4800 मीटर ऊपर है। यहां से फोतोकसर दिख तो नहीं रहा था लेकिन अन्दाजा था कि कम से कम दस किलोमीटर तो होगा ही। रास्ता ढलान वाला है, फिर भी स्पीड में कोई बढोत्तरी नहीं होगी। हम औसतन दस किलोमीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से यहां तक आये थे। फिर भी मान लो आधा घण्टा ही लगेगा। यानी हम तीन बजे तक फोतोकसर पहुंच जायेंगे। भूख लगी थी, खाना भी खाना होगा और गोम्पा भी देखना होगा। जल्दी करेंगे फिर भी चार साढे चार बज जाने हैं। पांच बजे तक वापस शिरशिरला आयेंगे। वापसी में दो घण्टे हनुपट्टा के और फिर कम से कम दो घण्टे ही मेन रोड तक पहुंचने के लगेंगे। यानी वापस खालसी पहुंचने में नौ बज जायेंगे। वैसे तो आज ही लेह पहुंचने का इरादा था जोकि खालसी से 100 किलोमीटर आगे है। हमारा सारा कार्यक्रम बिगड रहा है और हम लेट भी हो रहे हैं।

लद्दाख बाइक यात्रा- 9 (खालसी-हनुपट्टा-शिरशिरला)

13 जून 2015 नौ बजकर पचास मिनट हो गये थे जब हम खालसी से निकले। इससे पहले आठ बजे के आसपास हम उठ भी गये थे। कल 200 किलोमीटर बाइक चलाई थी, बहुत थकान हो गई थी। पहाडों में संकरे रास्तों पर 200 किलोमीटर भी बहुत ज्यादा हो जाते हैं। आज हमारे सामने दो विकल्प थे- एक, आज ही लेह जायें और चुशुल, हनले का परमिट लेकर खारदुंग-ला पार कर लें। दूसरा, आज फोतोकसर गोम्पा जायें और रात तक लेह पहुंच जायें। कल रविवार है, परमिट नहीं मिलेगा। इसलिये कल खारदुंग-ला पार जाकर नुब्रा घाटी देख लें और मंगलवार को वापसी में चुशुल, हनले का परमिट ले लें। पहले विकल्प में हमें फोतोकसर देखने को नहीं मिल रहा है लेकिन दूसरे में फोतोकसर भी मिल रहा है और बाकी सबकुछ भी। इसलिये दूसरा विकल्प चुना। आलू के परांठे खाते समय होटल वाले ने पक्का कर दिया कि फोतोकसर तक बाइक चली जायेगी।

लद्दाख बाइक यात्रा- 8 (बटालिक-खालसी)

12 जून 2015 सिन्धु यहां बहुत गहरी घाटी में बहती है। पहाड बिल्कुल सीधे खडे हैं। ऐसे इलाके दुर्गम होते हैं। लेकिन इसके बावजूद भी यहां कुछ बसावट है, कुछ गांव हैं। इनमें जो लोग निवास करते हैं, वे स्वयं को शुद्ध आर्य बताते हैं। इसीलिये धा और हनुथांग व अन्य गांव प्रसिद्ध हैं। वैसे तो हिमाचल के मलाणा निवासी भी स्वयं को आर्य कहते हैं लेकिन उनमें बहुत सी गन्दगी पनप गई है। यहां वो गन्दगी नहीं है। मेरी इच्छा इसी तरह के किसी गांव में रुकने की थी। लद्दाख के ज्यादातर गांवों में होम-स्टे की सुविधा मिलती है, रुकने की ज्यादा समस्या नहीं आती। लेकिन हम चलते रहे। शाम का समय था और सूरज की किरणें अब नीचे नहीं आ रही थीं। अन्धेरा होने से पहले ही रुक जाना ठीक था। लेकिन धा गांव कब निकल गया, पता ही नहीं चला। एक निर्जन पुल के पास साइनबोर्ड अवश्य लगा था जिस पर मोटे मोटे अक्षरों में अंग्रेजी में लिखा था- धा। हो सकता है कि गांव सडक से कुछ ऊपर हो। हम इसे छोडकर आगे बढ गये। धा के बाद एक गांव और मिला। यहां एक होम-स्टे का बोर्ड भी लगा था लेकिन हम इसे भी छोडकर आगे चल दिये।

लद्दाख बाइक यात्रा- 7 (द्रास-कारगिल-बटालिक)

12 जून 2015, शुक्रवार सुबह आराम से सोकर उठे। कल जोजी-ला ने थका दिया था। बिजली नहीं थी, इसलिये गर्म पानी नहीं मिला और ठण्डा पानी बेहद ठण्डा था, इसलिये नहाने से बच गये। आज इस यात्रा का दूसरा ‘ऑफरोड’ करना था। पहला ऑफरोड बटोट में किया था जब मुख्य रास्ते को छोडकर किश्तवाड की तरफ मुड गये थे। द्रास से एक रास्ता सीधे सांकू जाता है। कारगिल से जब पदुम की तरफ चलते हैं तो रास्ते में सांकू आता है। लेकिन एक रास्ता द्रास से भी है। इस रास्ते में अम्बा-ला दर्रा पडता है। योजना थी कि अम्बा-ला पार करके सांकू और फिर कारगिल जायेंगे, उसके बाद जैसा होगा देखा जायेगा। लेकिन बाइक में पेट्रोल कम था। द्रास में कोई पेट्रोल पम्प नहीं है। अब पेट्रोल पम्प कारगिल में ही मिलेगा यानी साठ किलोमीटर दूर। ये साठ किलोमीटर ढलान है, इसलिये आसानी से बाइक कारगिल पहुंच जायेगी। अगर बाइक में पेट्रोल होता तो हम सांकू ही जाते। यहां से अम्बा-ला की ओर जाती सडक दिख रही थी। ऊपर काफी बर्फ भी थी। पूछताछ की तो पता चला कि अम्बा-ला अभी खुला नहीं है, बर्फ के कारण बन्द है। कम पेट्रोल का जितना दुख हुआ था, सब खत्म हो गया। अब मुख्य रास्ते से ही कार

लद्दाख बाइक यात्रा- 6 (श्रीनगर-सोनमर्ग-जोजीला-द्रास)

11 जून 2015 सुबह साढे सात बजे उठे। मेरा मोबाइल तो बन्द ही था और कोठारी साहब का पोस्ट-पेड नम्बर हमारे पास नहीं था। पता नहीं वे कहां होंगे? मैं होटल के रिसेप्शन पर गया। उसे अपनी सारी बात बताई। उससे मोबाइल मांगा ताकि अपना सिम उसमें डाल लूं। मुझे उम्मीद थी की कोठारी साहब लगातार फोन कर रहे होंगे। पन्द्रह मिनट भी सिम चालू रहेगा तो फोन आने की बहुत प्रबल सम्भावना थी। लेकिन उसने मना कर दिया। मैंने फिर उसका फोन ही मांगा ताकि नेट चला सकूं और कोठारी साहब को सन्देश भेज सकूं। काफी ना-नुकुर के बाद उसने दो मिनट के लिये अपना मोबाइल मुझे दे दिया। बस, यही एक गडबड हो गई। होटल वाले का व्यवहार उतना अच्छा नहीं था और मुझे उससे प्रार्थना करनी पड रही थी। यह मेरे स्वभाव के विपरीत था। अब जब उसने अपना मोबाइल मुझे दे दिया तो मैं चाहता था कि जल्द से जल्द अपना काम करके उसे मोबाइल लौटा दूं। इसी जल्दबाजी में मैंने फेसबुक खोला और कोठारी साहब को सन्देश भेजा- ‘सर, नौ साढे नौ बजे डलगेट पर मिलो। आज द्रास रुकेंगे।’ जैसे ही मैसेज गया, मैंने लॉग आउट करके मोबाइल वापस कर दिया। इसी जल्दबाजी में मैं यह देखना भूल गया कि कोठारी साहब

लद्दाख बाइक यात्रा-5 (पारना-सिंथन टॉप-श्रीनगर)

10 जून 2015 सात बजे सोकर उठे। हम चाहते तो बडी आसानी से गर्म पानी उपलब्ध हो जाता लेकिन हमने नहीं चाहा। नहाने से बच गये। ताजा पानी बेहद ठण्डा था। जहां हमने टैंट लगाया था, वहां बल्ब नहीं जल रहा था। रात पुजारीजी ने बहुत कोशिश कर ली लेकिन सफल नहीं हुए। अब हमने उसे देखा। पाया कि तार बहुत पुराना हो चुका था और एक जगह हमें लगा कि वहां से टूट गया है। वहां एक जोड था और उसे पन्नी से बांधा हुआ था। उसे ठीक करने की जिम्मेदारी मैंने ली। वहीं रखे एक ड्रम पर चढकर तार ठीक किया लेकिन फिर भी बल्ब नहीं जला। बल्ब खराब है- यह सोचकर उसे भी बदला, फिर भी नहीं जला। और गौर की तो पाया कि बल्ब का होल्डर अन्दर से टूटा है। उसे उसी समय बदलना उपयुक्त नहीं लगा और बिजली मरम्मत का काम जैसा था, वैसा ही छोड दिया।

लद्दाख बाइक यात्रा-4 (बटोट-डोडा-किश्तवाड-पारना)

9 जून 2015 हम बटोट में थे। बटोट से एक रास्ता तो सीधे रामबन, बनिहाल होते हुए श्रीनगर जाता ही है, एक दूसरा रास्ता डोडा, किश्तवाड भी जाता है। किश्तवाड से सिंथन टॉप होते हुए एक सडक श्रीनगर भी गई है। बटोट से मुख्य रास्ते से श्रीनगर डल गेट लगभग 170 किलोमीटर है जबकि किश्तवाड होते हुए यह दूरी 315 किलोमीटर है। जम्मू क्षेत्र से कश्मीर जाने के लिये तीन रास्ते हैं- पहला तो यही मुख्य रास्ता जम्मू-श्रीनगर हाईवे, दूसरा है मुगल रोड और तीसरा है किश्तवाड-अनन्तनाग मार्ग। शुरू से ही मेरी इच्छा मुख्य राजमार्ग से जाने की नहीं थी। पहले योजना मुगल रोड से जाने की थी लेकिन कल हुए बुद्धि परिवर्तन से मुगल रोड का विकल्प समाप्त हो गया। कल हम बटोट आकर रुक गये। सोचने-विचारने के लिये पूरी रात थी। मुख्य राजमार्ग से जाने का फायदा यह था कि हम आज ही श्रीनगर पहुंच सकते हैं और उससे आगे सोनामार्ग तक भी जा सकते हैं। किश्तवाड वाले रास्ते से आज ही श्रीनगर नहीं पहुंचा जा सकता। अर्णव ने सुझाव दिया था कि बटोट से सुबह चार-पांच बजे निकल पडो ताकि ट्रैफिक बढने से पहले जवाहर सुरंग पार कर सको। अर्णव को भी हमने किश्तवाड के बारे में नहीं

लद्दाख बाइक यात्रा- 3 (जम्मू से बटोट)

8 जून 2015 आज का दिन बहुत खराब बीता और बहुत अच्छा भी। पहले अच्छाई। कोठारी साहब की बाइक स्टार्ट होने में परेशानी कर रही थी और कुछ इंडीकेटर भी ठीक काम नहीं कर रहे थे। मुझे लगा बैटरी में समस्या है। इसे ठीक कराना जरूरी था क्योंकि आगे ऊंचाईयों पर ठण्ड में यह काम करना बन्द भी कर सकती है। चलिये, आगे की कहानी शुरू से शुरू करते हैं। छह बजे मेरी आंख खुल गई थी हालांकि अलार्म 7 बजे का लगाया था। अभी तक निशा भी सो रही थी और कोठारी साहब भी। यह बडी अच्छी बात है कि कोठारी जी भी पक्के सोतडू हैं। उनके ऐसा होने से इतना तो पक्का हो गया कि इस यात्रा में मुझे कभी कोई नहीं उठायेगा। निशा भी इसी श्रेणी की जीव है। अगर उसे न उठाया जाये तो वह दस बजे तक भी नहीं उठने वाली।

लद्दाख बाइक यात्रा- 2 (दिल्ली से जम्मू)

यात्रा आरम्भ करने से पहले एक और बात कर लेते हैं। परभणी, महाराष्ट्र के रहने वाले निरंजन साहब पिछले दो सालों से साइकिल से लद्दाख जाने की तैयारियां कर रहे थे। लगातार मेरे सम्पर्क में रहते थे। उन्होंने खूब शारीरिक तैयारियां की। पश्चिमी घाट की पहाडियों पर फुर्र से कई-कई किलोमीटर साइकिल चढा देते थे। पिछले साल तो वे नहीं जा सके लेकिन इस बार निकल पडे। ट्रेन, बस और सूमो में यात्रा करते-करते श्रीनगर पहुंचे और अगले ही दिन कारगिल पहुंच गये। कहा कि कारगिल से साइकिल यात्रा शुरू करेंगे। खैर, निरंजन साहब आराम से तीन दिनों में लेह पहुंच गये। यह जून का पहला सप्ताह था। रोहतांग तभी खुला ही था, तंगलंग-ला और बाकी दर्रे तो खुले ही रहते हैं। बारालाचा-ला बन्द था। लिहाजा लेह-मनाली सडक भी बन्द थी। पन्द्रह जून के आसपास खुलने की सम्भावना थी। उनका मुम्बई वापसी का आरक्षण अम्बाला छावनी से 19 जून की शाम को था। इसका अर्थ था कि उनके पास 18 जून की शाम तक मनाली पहुंचने का समय था। मैंने मनाली से लेह साइकिल यात्रा चौदह दिनों में पूरी की थी। मुझे पहाडों पर साइकिल चलाने का अभ्यास नहीं था। फिर मनाली लगभग 2000 मीटर पर है, ले

लद्दाख बाइक यात्रा- 1 (तैयारी)

बुलेट निःसन्देह शानदार बाइक है। जहां दूसरी बाइक के पूरे जोर हो जाते हैं, वहां बुलेट भड-भड-भड-भड करती हुई निकल जाती है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि लद्दाख जाने के लिये या लम्बी दूरी की यात्राओं के लिये बुलेट ही उत्तम है। बुलेट न हो तो हम यात्राएं ही नहीं करेंगे। बाइक अच्छी हालत में होनी चाहिये। बुलेट की भी अच्छी हालत नहीं होगी तो वह आपको ऐसी जगह ले जाकर धोखा देगी, जहां आपके पास सिर पकडकर बैठने के अलावा कोई और चारा नहीं रहेगा। अच्छी हालत वाली कोई भी बाइक आपको रोहतांग भी पार करायेगी, जोजी-ला भी पार करायेगी और खारदुंग-ला, चांग-ला भी। वास्तव में यह मशीन ही है जिसके भरोसे आप लद्दाख जाते हो। तो कम से कम अपनी मशीन की, इसके पुर्जों की थोडी सी जानकारी तो होनी ही चाहिये। सबसे पहले बात करते हैं टायर की। टायर बाइक का वो हिस्सा है जिस पर सबसे ज्यादा दबाव पडता है और जो सबसे ज्यादा नाजुक भी होता है। इसका कोई विकल्प भी नहीं है और आपको इसे हर हाल में पूरी तरह फिट रखना पडेगा।

करसोग-दारनघाटी यात्रा का कुल खर्च

दिनांक: 4 मई 2015, सोमवार स्थान दूरी समय खर्च शास्त्री पार्क, दिल्ली 0 06:05 पेट्रोल- 700 (11 लीटर) पानीपत पार 104 07:45-08:15 परांठे- 140 पीपली 169 09:20-09:25 साइकिल यात्रियों को- 50 अम्बाला छावनी 211 10:10-10:15 शम्भू बॉर्डर 225 10:30-10:35 खरड 266 11:20-11:40 मौसमी जूस- 60

कुफरी-चायल-कालका-दिल्ली

9 मई 2015 डेढ बजे हम कुफरी पहुंचे। हे भगवान! इतनी भीड... इतनी भीड कि निशा ने कहा- सभी लोग कुफरी ही आ गये, शिमला पास ही है, कोई शिमला क्यों नहीं जा रहा? और बदबू मची पडी पूरे कुफरी की सडकों पर गधों और घोडों की लीद की। गधे वालों में मारामारी हो रही कि कौन किसे अपने यहां बैठाये और अच्छे पढे लिखे भी सोच-विचार कर रहे कि इस गधे पर बैठे कि उस गधे पर। यह चार रुपये ले रहा है और वो तीन रुपये। जरूर इस चार रुपये वाले गधे में कुछ खास बात है, तभी तो महंगा है। (नोट: गधे को खच्चर या घोडा पढें।) थोडी देर रुकने का इरादा था, कुफरी देखने का इरादा था लेकिन मुझसे पहले ही पीछे बैठी ‘प्रधानमन्त्री’ ने जब कहा कि कुफरी देखने की चीज नहीं है, आगे चलता चल तो मैं भी आगे चलता गया। अच्छा हुआ कि कुफरी से चायल वाली सडक पर आखिर में कुछ दुकानें थीं और उनमें से एक में हमारी बहुप्रतीक्षित कढी चावल भी थे तो हम रुक गये। बाइक किनारे खडी की नहीं कि तीस रुपये की पर्ची कट गई पार्किंग की। मुझसे ज्यादा निशा हैरान कि यह क्यों हुआ? मैंने कहा- यह टूरिस्ट-फ्रेण्डली स्थान है। ऐसी जगहों पर ऐसा ही होता है।

हाटू चोटी, नारकण्डा

9 मई 2015 सुबह सात बजे सोकर उठे। नहा-धोकर जल्दी ही चलने को तैयार हो गये। जसवाल जी आ गये और साथ बैठकर चाय पी व आलू के परांठे खाये। परांठे बडे स्वादिष्ट थे। आलू के परांठे तो वैसे भी स्वादिष्ट ही होते हैं। यहां से जसवाल जी ने ऊपर मेन रोड तक पहुंचने का शॉर्ट कट बता दिया। यह शॉर्ट कट बडी ही तेज चढाई वाला है। नौ बजे हम नारकण्डा थे। देखा जाये तो अब हम दिल्ली के लिये वापसी कर चुके थे। लेकिन चूंकि आज हमें एक रिश्तेदारी में कालका रुकना था, इसलिये कोई जल्दी नहीं थी। नारकण्डा से हाटू पीक की ओर मुड लिये। यहां से इसकी दूरी आठ किलोमीटर है। दो किलोमीटर चलने पर इस नारकण्डा-थानाधार रोड से हाटू रोड अलग होती है।

दारनघाटी और सरायकोटी मन्दिर

8 मई 2015 दारनघाटी की कुछ जानकारी तो पिछली बार दे दी थी। बाकी इस बार देखते हैं। दारनघाटी 2900 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और यहां से दो किलोमीटर दूर सरायकोटी माता का मन्दिर है जो समुद्र तल से 3090 मीटर ऊपर है। 3000 मीटर की ऊंचाई पर पहुंचने का अलग ही आकर्षण होता है। 2999 मीटर में उतना आकर्षण नहीं है जितना इससे एक मीटर और ऊपर जाने में। दारनघाटी का जो मुख्य रास्ता है यानी तकलेच-मशनू को जोडने वाला जो रास्ता है, उसमें से सरायकोटी मन्दिर जाने के लिये एक रास्ता और निकलता है। यह सरकारी रेस्ट हाउस से एक किलोमीटर तकलेच की तरफ चलने पर आता है। यह पूरी तरह कच्चा है, खूब धूल है और तीव्र चढाई। इसी तरह की चढाई पर एक जगह जहां खूब रेत थी, बाइक धंस गई। आगे एक मोड था और रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था; हमने सोचा कि आगे अब पैदल जाना पडेगा। बाइक वहीं रेत में खडी की, सामान इसी पर बंधा रहने दिया और पैदल बढ चले।

सराहन से दारनघाटी

8 मई 2015 आराम से सोकर उठे। आज जाना है हमें दारनघाटी। दारनघाटी हमारे इधर आने की एक बडी वजह थी। रास्ता बहुत खराब मिलने वाला है। सराहन में इसके बारे में पूछताछ की तो सुझाव मिला कि मशनू से आप दारनघाटी चढ जाना। फिर दारनघाटी से आगे तकलेच मत जाना, बल्कि वापस मशनू ही आ जाना और वहां से रामपुर उतर जाना। क्योंकि एक तो मशनू से दारनघाटी का पूरा रास्ता बहुत खराब है और उसके बाद तकलेच तक चालीस किलोमीटर का रास्ता भी ठीक नहीं है। यह हमें बताया गया। भीमाकाली के दर्शन करके और श्रीखण्ड महादेव पर एक दृष्टि डालकर सवा दस बजे हम सराहन से प्रस्थान कर गये। चार किलोमीटर तक तो ज्यूरी की तरफ ही चलना पडता है फिर घराट से मशनू की तरफ मुड जाना होता है। मशनू यहां से बीस किलोमीटर है। दस किलोमीटर दूर किन्नू तक तो रास्ता बहुत अच्छा है, फिर बहुत खराब है। रास्ता सेब-पट्टी से होकर है तो जाहिर है कि मौसम बहुत अच्छा था। सेब-पट्टी 2000 मीटर से ऊपर होती है। चारों तरफ सेब के बागान थे। अभी कहीं फूल लगे थे, कहीं नन्हें-नन्हें सेब आ गये थे। कहीं सेब के पेडों के ऊपर जाल लगा रखा था ताकि आंधी तूफान से ज्यादा नुकसान न हो। दो महीने बाद

डायरी के पन्ने-32

ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। इस बार डायरी के पन्ने नहीं छपने वाले थे लेकिन महीने के अन्त में एक ऐसा घटनाक्रम घटा कि कुछ स्पष्टीकरण देने के लिये मुझे ये लिखने पड रहे हैं। पिछले साल जून में मैंने एक पोस्ट लिखी थी और फिर तीन महीने तक लिखना बन्द कर दिया। फिर अक्टूबर में लिखना शुरू किया। तब से लेकर मार्च तक पूरे छह महीने प्रति सप्ताह तीन पोस्ट के औसत से लिखता रहा। मेरी पोस्टें अमूमन लम्बी होती हैं, काफी ज्यादा पढने का मैटीरियल होता है और चित्र भी काफी होते हैं। एक पोस्ट को तैयार करने में औसतन चार घण्टे लगते हैं। सप्ताह में तीन पोस्ट... लगातार छह महीने तक। ढेर सारा ट्रैफिक, ढेर सारी वाहवाहियां। इस दौरान विवाह भी हुआ, वो भी दो बार। आप पढते हैं, आपको आनन्द आता है। लेकिन एक लेखक ही जानता है कि लम्बे समय तक नियमित ऐसा करने से क्या होता है। थकान होने लगती है। वाहवाहियां अच्छी नहीं लगतीं। रुक जाने को मन करता है, विश्राम करने को मन करता है। इस बारे में मैंने अपने फेसबुक पेज पर लिखा भी था कि विश्राम करने की इच्छा हो रही है। लगभग सभी मित्रों ने इस बात का समर्थन किया था।

करसोग से किन्नौर सीमा तक

6 मई 2015 आज हमें वहां नहीं जाना था जहां शीर्षक कह रहा है। हमारी योजना थी शिकारी देवी जाने की। यहां से शिकारी देवी जाना थोडा सा ‘ट्रिकी’ है। कुछ समय पहले तक जो सडक का रास्ता था वो डेढ सौ किलोमीटर लम्बा था- रोहाण्डा , चैल चौक, जंजैहली होते हुए। जंजैहली से शिकारी देवी 16 किलोमीटर है। इसमें 10 किलोमीटर चलने पर एक तिराहा आता है जहां से शिकारी देवी तो 6 किलोमीटर रह जाता है और तीसरी सडक जाती है करसोग जो इस तिराहे से 16 किलोमीटर है। असल में करसोग और जंजैहली के बीच में एक धार पडती है। यह धार सुन्दरनगर के पास से ही शुरू हो जाती है। कमरुनाग इसी धार के ऊपर है। यह धार आगे और बढती जाती है। आगे शिकारी देवी है। इसके बाद भी धार आगे जाती है और जलोडी जोत होते हुए आगे कहीं श्रीखण्ड महादेव के महाहिमालयी पर्वतों में विलीन हो जाती है। इस तरह अगर हम शिकारी देवी पर खडे होकर दक्षिण की तरफ देखें तो करसोग दिखेगा और अगर उत्तर में देखें तो जंजैहली दिखेगा। लेकिन अभी तक सडक सुन्दरनगर के पास से इसका पूरा चक्कर लगाकर आती थी। पिछले कुछ महीनों में इस धार के आरपार सडक बनी है। पहले जहां करसोग से शिकारी देवी डेढ सौ किलो