Skip to main content

चन्द्रखनी दर्रे की ओर- दिल्ली से नग्गर

इस यात्रा पर चलने से पहले इसका परिचय दे दूं। यह दर्रा हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में है। जैसा कि हर दर्रे के साथ होता है कि ये किन्हीं दो नदी घाटियों को जोडने का काम करते हैं, तो चन्द्रखनी भी अपवाद नहीं है। यह ब्यास घाटी और मलाणा घाटी को जोडता है। मलाणा नाला या चाहें तो इसे मलाणा नदी भी कह सकते हैं, आगे चलकर जरी के पास पार्वती नदी में मिल जाता है और पार्वती भी आगे भून्तर में ब्यास में मिल जाती है। इसकी ऊंचाई समुद्र तल से 3640 मीटर है।
बहुत दिन से बल्कि कई सालों से मेरी यहां जाने की इच्छा थी। काफी समय पहले जब बिजली महादेव और मणिकर्ण गया था तब भी एक बार इस दर्रे को लांघने का इरादा बन चुका था। अच्छा किया कि तब इसकी तरफ कदम नहीं बढाये। बाद में दुनियादारी की, ट्रेकिंग की ज्यादा जानकारी होने लगी तो पता चला कि चन्द्रखनी के लिये एक रात कहीं रास्ते में बितानी पडती है। उस जगह रुकने को छत मिल जायेगी या नहीं, इसी दुविधा में रहा। खाने पीने की मुझे कोई ज्यादा परेशानी नहीं थी, बस छत चाहिये थी। तभी एक दिन पता चला कि रास्ते में कहीं एक गुफा है, जहां स्लीपिंग बैग के सहारे रात गुजारी जा सकती है। लेकिन यह जानकारी भी आधी-अधूरी थी। तब तक मैंने टैंट नहीं लिया था। केवल इस एक वजह से मैं यहां जाने से हिचक रहा था।

अब चूंकि टैंट ले चुका, तो छत की तरफ से बेफिक्र हो गया। कमरुनाग यात्रा में सुरेन्द्र रावत से अच्छा तालमेल बना तो इस यात्रा की जानकारी उन्हें भी दे दी। वे तुरन्त साथ चलने को राजी हो गये। तभी इन्दौर के अशोक भार्गव से चैटिंग हो रही थी तो बोले कि नीरज भाई, कभी किसी ट्रेक पर हमें भी ले चलो। उन्हें भी इसकी जानकारी दे दी। साथ ही यह भी बता दिया कि मेरा टैंट फुल हो चुका है, आपको अपने बलबूते पर चलना पडेगा यानी टैंट और स्लीपिंग बैग का इन्तजाम स्वयं करना होगा। भाई दुविधा में पड गये। वे इस मौके को गंवाना भी नहीं चाहते थे और टैंट-स्लीपिंग बैग खरीदना भी नहीं चाहते थे। ये चीजें उन्हीं के ज्यादा काम की होती हैं, जो नियमित बाहर जाते रहते हैं। अशोक भाई इस मामले में नियमित नहीं हैं। अब मुझे इसकी सूचना फेसबुक पर प्रसारित करनी पडी। दिल्ली के ही मधुर गौड तैयार हो गये। अशोक और मधुर दोनों ने आपस में तय कर लिया कि टैंट-स्लीपिंग बैग दिल्ली से किराये पर ले लेंगे।
16 जून को नाइट ड्यूटी से निबटकर सुबह साढे सात बजे कश्मीरी गेट पहुंच गये। पन्द्रह मिनट बाद चलने वाली मनाली की बस में कुल्लू के तीन टिकट लेने में कोई परेशानी नहीं हुई। अगर यह शाम का समय होता तो जून के महीने में निश्चित ही यह परेशानी की बात होती क्योंकि हिमाचल की बसों में ऑनलाइन बुकिंग होती है तो बसें पहले ही भरी रहती हैं। मधुर दक्षिणी दिल्ली से आये थे, थोडा विलम्ब हो गया। जैसे ही उन्होंने बस में प्रवेश किया, बस तुरन्त चल पडी।
अब ज्यादा विस्तार से लिखने की जरुरत नहीं है। मधुर और मैं पहली बार मिले थे, तो मुझसे बात करने में उन्होंने जबरदस्त उत्साह दिखाया लेकिन जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था तो हरियाणा की गर्मी ने बेहाल कर दिया। बाद में रही सही कसर चण्डीगढ के बाद पंजाब ने पूरी कर दी। बस चलती रहती तो थोडा बहुत सुकून मिलता लेकिन जैसे ही रुक जाती तो ऊपर से नीचे तक पसीने-पसीने हो जाते। बिल्कुल सडी गर्मी हो रही थी। रात ग्यारह बजे कुल्लू पहुंचे।
बस में से किसी ने अशोक का बैग चोरी कर लिया। उसमें अशोक के गर्म कपडे थे। अच्छा था कि पैसे या अन्य जरूरी कागजात नहीं थे। लेकिन चोर अपना बैग छोड गया। इससे पता चलता है कि किसी ने गलती से उसका बैग उठा लिया था। उस बैग में एक गीला तौलिया व गीला कच्छा था। और हां, एक जोडी नये जूते भी थे। भागते भूत की लंगोटी भली। अशोक ने उस बैग को ही उठा लिया। बाद में बाकी सामान तो हमने छोड दिया, लेकिन जूते बडी दूर तक ढोने पडे। नये थे, उन्हें छोड देने का मन नहीं होता था।
कुल्लू जैसी बडी जगह पर रात के ग्यारह बजे कहीं रुकने में कोई दिक्कत नहीं है लेकिन पता नहीं क्या बात थी कि बस अड्डे के आसपास के सभी होटल छान मारे, कोई कमरा नहीं मिला। एक जगह डॉरमेट्री मिली लेकिन वहां गन्दगी और सीलन की बदबू आ रही थी, इसलिये भाग खडे हुए। अब बस अड्डे से दूर जाने लगे तो बराबर में भांग की झाडियों के बीच से आवाज आई कि भाई जी, कमरा चाहिये क्या? हम सभी के मुंह से स्वचालित रूप से निकला- हां, चाहिये। लेकिन कुछ पल बाद जब होश आया और देखा कि ये तो भांग की झाडियां हैं तो तुरन्त यहां से भाग जाने को उद्यत हो गये। अवश्य यहां कोई भूत है। तभी फिर आवाज आई- तो आ जाओ, यहां से बस थोडी ही दूर एक कमरा खाली है। हमने कहा कि आ तो जायेंगे लेकिन तुम कौन हो, कहां से बोल रहे हो और रास्ता कहां है? आवाज आई कि आप झाडियों में घुस जाओ।
यहां एक पगडण्डी बनी हुई थी। अशोक और मधुर कमरा देखने चले गये, मैं यहीं ठहरकर उनके उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ देर बाद बडी दूर से किसी ने मेरा नाम लिया- नीरज भाई, आ जाओ। कमरा मिल गया। आवाज निश्चित ही ऊंचाई से आ रही थी। और होटल था भी कुछ ऊपर ही, फिर तीसरी मंजिल पर कमरा। आधा चन्द्रखनी यहीं फतह हो गया।
पूरे दिन बस यात्रा, धूल-धक्कड और भयंकर गर्मी, पसीना। कपडों की ऐसी-तैसी हो गई थी। आधी रात को कुल्लू के ठण्डे पानी में नहाए और कपडे भी धोये। बाहर अच्छी हवा चल रही थी, कपडे बाहर रेलिंग पर टांग दिये और अन्दर से कुण्डी लगाकर सो गये। हवा इतनी तेज थी कि पता नहीं कपडे मिलेंगे भी या नहीं। सुबह तक उनके उड जाने का डर था। हालांकि सुबह कपडे सही-सलामत मिले और सूखे हुए भी।
अब एक नजर अपने चौथे साथी पर भी डाल लेनी चाहिये। सुरेन्द्र सिंह रावत शाम आठ बजे अपनी ड्यूटी से आजाद हुए और सीधे कश्मीरी गेट पहुंच गये। दस बजे तक कश्मीरी गेट से मनाली वाली बस में बैठ गये। इसका अर्थ था कि उसे कुल्लू आने में दोपहर के बारह जरूर बज जाने हैं।
बाकियों का तो पता नहीं लेकिन मुझे भयंकर नींद आई। आठ बजे आंख खुली। सुरेन्द्र तब तक बिलासपुर पहुंच चुका था। उसने मनाली का टिकट ले रखा था। यह अच्छा भी था क्योंकि अब उसे कुल्लू उतरने की जरुरत नहीं। नौ बजे तक हमने कमरा छोड दिया और बस अड्डे पर आलू के परांठे खाकर मनाली वाली बस में पतलीकुहल का टिकट ले लिया। चन्द्रखनी का रास्ता नग्गर से शुरू होता है। नग्गर ब्यास नदी के उस तरफ है। पतलीकुहल ब्यास के इस तरफ नग्गर के सामने है। पतलीकुहल से हमें नग्गर वाली गाडी में बैठना पडेगा।
घण्टा भर लगा पतलीकुहल पहुंचने में। कुल्लू में ब्यास घाटी संसार की सुन्दरतम घाटियों में से एक है। कभी मनाली गये होंगे तो जरूर गौर किया होगा कि कुल्लू के बाद नजारों में एकदम से दिलकशी आने लगती है जो मनाली पहुंचते-पहुंचते चरम पर पहुंच जाती है। न गौर किया हो तो इस बार जाओगे तो करना।
पतलीकुहल में एक तिराहा है। सीधी सडक मनाली चली जाती है। तीसरी सडक नग्गर जाती है। नग्गर से आगे यह सडक भी ब्यास के उस तरफ मनाली ही जाती है। इस तरह कुल्लू से मनाली जाने के दो रास्ते हैं- एक सीधा और दूसरा नग्गर होते हुए। यहां पता चला कि नग्गर की बस दो घण्टे बाद आयेगी। नग्गर जाने के लिये टैक्सी करनी होती है। इनका किराया निश्चित है- सौ रुपये। मारुति की ओमनी कारें होती हैं। कितनी भी सवारियां बैठ जायें, किराया सौ रुपये ही होगा। ज्यादा यात्री हों तो प्रति यात्री किराया कम हो जाता है। हम तीन थे तो एक टैक्सी ले ली और पन्द्रह मिनट में नग्गर पहुंच गये। हां, यहीं पतलीकुहल में तिराहे पर कुछ मोची बैठे थे। एक मोची ने हमें टैक्सी का सिस्टम बताया। चलते समय मैंने उससे कह दिया कि दो घण्टे बाद हमारा एक साथी भी आयेगा और तुमसे सम्पर्क करेगा, उसे भी इसी तरह समझा देना। हंसते हुए उसने मेरी बात मान ली। मेरे हिमालय के निवासी ऐसे ही होते हैं।
हमने अभी तक कुछ भी नहीं खाया था। नग्गर से आगे कुछ खाने को मिले या न मिले, इसलिये यहीं पेट भर लेना उचित है और आगे के लिये कुछ बांध लेना भी ठीक है। तीनों ने भरपेट तो खाया ही, रास्ते के लिये भी बंधवा लिया। लेकिन एक गडबड हो गई जो बाद में पता चली। हम खाने के समय सुरेन्द्र को भूल गये। तीनों ने दो-दो के हिसाब से परांठे पैक करा लिये लेकिन सुरेन्द्र भी है, भूल गये। हालांकि बाद में कोई दिक्कत नहीं आई।
जब सवा बारह बजे हमने पैदल यात्रा शुरू कर दी, तब तक सुरेन्द्र कुल्लू पहुंच चुका था। मैं लगातार उसके सम्पर्क में था। पतलीकुहल उतरने को उससे बता ही दिया था। अब जब वो कुल्लू पहुंच गया तो उसका फोन आया- नीरज भाई, यहां बस में कुछ लोकल लोग कह रहे हैं कि नग्गर जाने के लिये मनाली ही उतरना पडेगा। मैंने तुरन्त कहा कि उनकी बात अनसुनी कर दे और पतलीकुहल ही उतरना। बोला कि ये लोकल हैं, यहं के रहने वाले हैं तो गलत थोडे ही बतायेंगे। कहीं पतलीकुहल में मैं फंस न जाऊं। मैंने कहा कि हम घण्टे भर पहले ही उसी रास्ते से आये हैं, निश्चिन्त रह।
उसे अभी पतलीकुहल पहुंचने में एक घण्टा लगेगा। फिर वह नग्गर आयेगा और कुछ खायेगा-पीयेगा भी। अर्थात वह अभी हमसे दो घण्टे पीछे है। आज शाम तक हमें मिल ही जाना है, इसलिये धीरे-धीरे चलेंगे ताकि हम ज्यादा दूर न निकल जायें या फोन का नेटवर्क न चला जाये या वह किसी दूसरे रास्ते से निकलकर हमसे बिछड न जाये।

अशोक कुल्लू वाली बस में


नग्गर में

अगला भाग: रोरिक आर्ट गैलरी, नग्गर

चन्द्रखनी ट्रेक
1. चन्द्रखनी दर्रे की ओर- दिल्ली से नग्गर
2. रोरिक आर्ट गैलरी, नग्गर
3. चन्द्रखनी ट्रेक- रूमसू गांव
4. चन्द्रखनी ट्रेक- पहली रात
5. चन्द्रखनी दर्रे के और नजदीक
6. चन्द्रखनी दर्रा- बेपनाह खूबसूरती
7. मलाणा- नशेडियों का गांव




Comments

  1. hmesa ki tarah behtrin....

    ReplyDelete
  2. मतलब तैने नया लैपटॉप ले लिया :)

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी शर्मा जी, नया लैपटॉप ले लिया।

      Delete
  3. Wow... dubara se sab kuch yaad aa gaya..Neeraj bhai

    ReplyDelete
  4. ek nayi samasya ab roj subah neeraj bhai ka intjaar karo......................

    aapka swagat hai

    ReplyDelete
  5. नीरज भाई राम राम,
    आपने दोबारा ब्लॉग लिखना चालू किया ओर एक खुबसूरत पोस्ट भी कि,बढिया है..
    अब फटाफट इन तीन महिनो मे जितनी यात्रा की है,वो लिख डालो.

    ReplyDelete
    Replies
    1. सचिन भाई, सब लिखा हुआ है। बस, अपलोड करना है।

      Delete
  6. नीरज भाई एक उम्दा शुरुआत। जब भी आप ऐसा लिखते हो की "मेरे हिमाचल के निवासी होते ही ऐसे हैं" चेहरे पर अपने आप ख़ुशी आ जाती है। :)
    वैसे Google Mapathon वाली टी-शर्ट अच्छी लग रही है। :D

    ReplyDelete
  7. SHANDAR PRASTUTI.REST KE BAD FRESH HOKAR DUTY JANE ME JO MAJA HAI WAHI ES BLOG KA BREAK LEKAR NAYE ANDAJ KE SATH SHURUAT KARNE ME HAI.VIMLESH CHANDRA

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी, आप ठीक कह रहे हो। बिल्कुल फ्रेश फ्रेश अनुभव कर रहा हूं।

      Delete
  8. Neeraj bhai kafi samay se apki post ka wait tha....nice one start.

    ReplyDelete
  9. धन्यवाद बाकी मित्रों का भी...

    ReplyDelete
  10. बहुत सुंदर यात्रा वृतांत अगले भाग का इंतज़ार है

    ReplyDelete
  11. BAHUT INTJAR KARVAYA NEERAJ BHAI ..LIKIN KOI BAT NAHI INTJAR KA FAL MEETHA MILA HI...........

    ReplyDelete
  12. नीरज जी, शानदार प्रस्तुति, निर्विवाद आप नंबर वन हैं

    ReplyDelete

  13. आपकी लिखने की शैली ने मुझे यात्रा वृतांत पड़ने को मजबूर कर दिया है। व् मै प्रतिदिन आपके नए लेखन कार्य की प्रतिक्छा करता हु। आप चिर युवा रहे ,खूब घूमे ,और हम आपके कलम पर सवार होकर घूमे। भगवान मेरी इच्छा पूरी कर।

    ReplyDelete
  14. Neeraj bhai....
    Sabse pehle aapka sukria.
    Lambe intzar k bad ek romanchak trake pe le jane k liye....
    Shubkamnao k saath...
    Ranjit....

    ReplyDelete
  15. बहुत बढ़िया पोस्ट ! नीरज भाई एक लम्बे समय के बाद आपका ब्लॉग पढ़ने को मिला थॅंक्स !

    ReplyDelete
  16. नीरज भाई ,सादर प्रणाम। एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद आखिर आपने नई पोस्ट अपडेट कर ही दी। मै तो आसमानी बिजली वाली पोस्ट को देख -देख कर थक चुका था। खैर ,नये लैपटॉप के लिए हार्दिक शुभकामनाए , रही बात लेखन की तो मेरी नजर मे तो नीरज का कोई सानी नही है। शुरुआत नई पर बात वही.…वाहा उत्तम -अति उत्तम - सर्वश्रेष्ठ।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब