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डायरी के पन्ने- 19

चेतावनी: ‘डायरी के पन्ने’ मेरे निजी और अन्तरंग विचार हैं। कृपया इन्हें न पढें। इन्हें पढने से आपकी धार्मिक और सामाजिक भावनाएं आहत हो सकती हैं।
18 दिसम्बर 2013, सोमवार
1. साहिबाबाद दीदी के यहां चला गया। मेरे ठिकाने से उनका घर बारह किलोमीटर है, साइकिल से गया, पौन घण्टा लगा। इनके यहां एक विचित्र रिवाज देखा- मच्छरों को न आने देने का रिवाज। मुख्य प्रवेश द्वार पर दो दरवाजे हैं- एक जालीदार और दूसरा ठोस। दोनों दरवाजों पर हमेशा कुण्डी लगी रहती है। जब भी किसी को अन्दर आना होता है या बाहर जाना होता है तो दिन में तो मच्छरों के आने का कोई खतरा नहीं है लेकिन रात को यह आना-जाना जोखिम भरा होता है। दरवाजा खुले तो मच्छरों के आ जाने का डर रहता है। इसलिये कुण्डी खोलने से पहले सबसे पहले घर की लाइटें बन्द की जाती हैं, फिर कुण्डी खोलकर झट से बन्द कर दी जाती है। लाइटें इसलिये बन्द की जाती हैं ताकि अन्धेरे में मच्छरों को रास्ता न दिखे। यही बात बडी विचित्र है क्योंकि मच्छर सामान्यतः एक रात्रिचर कीट है जिसे अन्धेरा पसन्द होता है। फिर भी अगर कोई मच्छर अन्दर आ जाता है तो उसका काम तमाम होते देर नहीं लगती। घर से सभी सदस्य अखबार लेकर मच्छर के पीछे पड जाते हैं। कोई बिस्तर पर चढकर छत तक धावा बोलता है तो कोई कुर्सी पर चढकर। मच्छर के मर जाने पर उसकी लाश को ढूंढने की जल्दी मचती है ताकि पक्का हो जाये कि वो मर गया है।
वैसे दिनभर में दो-चार बार मच्छर का काट लेना लाभदायक ही होता है। इससे मच्छर दंश के प्रति शरीर की प्रतिरोधकता बढती है।
19 दिसम्बर 2013, मंगलवार
1. पिछले साल मैं रूपकुण्ड गया था तो बेदिनी बुग्याल पर आईएएस अफसरों का एक दल मिला था। उनका गाइड था देवेन्द्र। देवेन्द्र रात को मेरे ही टैण्ट में सोता था और रूपकुण्ड जाते समय वह अघोषित रूप से मेरा भी गाइड बन गया था। मेरा बैग उसकी पीठ पर था और उसमें सभी बीस पच्चीस लोगों का भोजन भी था।
आज देवेन्द्र दिल्ली आया। मैं उस समय साहिबाबाद था। उसने फोन पर ही बता दिया कि वह दिल्ली नौकरी करने आया है। हमारे पहाड के युवाओं के लिये दिल्ली स्वर्गपुरी की तरह है जहां कोई दुख नहीं, बस सुख ही सुख है, पैसा ही पैसा है, बेरोजगारी नहीं है, काम ही काम है। पहले तो मेरे मन में आया कि उसे मना कर दूं कि मैं दिल्ली में नहीं हूं, दस दिनों के लिये बाहर गया हूं। फिर सोचा कि मैं भी जब उनके ‘देश’ जाता हूं तो मेरी भी कुछ उम्मीदें होती हैं जैसे किसी के घर में रुकूं, किसी के यहां भोजन करूं आदि। मैंने न जाने कहां कहां अपने दिल्लीवासी होने के बारे में बता रखा है। साथ ही यह भी कि कभी दिल्ली आओ तो हमसे मिलना, दिल्ली दिखायेंगे, मेट्रो घुमायेंगे, ये, वो। आज पहली बार ऐसा मौका मिला है तो कुछ दायित्व तो बनता है।
देवेन्द्र नई दिल्ली स्टेशन पर था। मैंने उसे कहा था कि मैं दो बजे तक तुझे लेने नई दिल्ली पहुंच जाऊंगा। वैसे तो उससे मेट्रो पकडने के बारे में भी कहा लेकिन उसकी बातों से लग रहा था कि वह दिल्ली आकर ही बदहवास है, मेट्रो में क्या हाल होगा? मैं ही चला जाऊंगा। दो बजे से मेरी ड्यूटी भी थी। सोच रखा था कि सबसे पहले ऑफिस जाऊंगा, फिर नई दिल्ली जाकर उसे ले आऊंगा। लेकिन जब ऑफिस गया तो एक जरूरी काम आडे आ गया। इसे दस मिनट भी नहीं खिसकाया जा सकता था। तब फिर देवेन्द्र को फोन करके कहा कि अपने पास किसी भी ऑटो वाले से बात कराओ और उसे ऑटो से शास्त्री पार्क मेट्रो स्टेशन पर आने को कह दिया। पौन घण्टे बाद वह आया और किराये के सौ रुपये मुझे देने पडे।
देवेन्द्र यहां नौकरी करने आया था और मुझे सीढी बनाना चाहता था। दिल्ली में उसका जानकार केवल मैं ही था। मैं कहीं बात करूं, कहीं सिफारिश लगाऊं, यही उसकी इच्छा थी। आठवीं तक ही पढा हुआ है वह। जिस तरह मैं स्वयं बिना किसी सिफारिश के, बिना किसी आरक्षण के, एक के बाद एक पायदान चढता चला गया तो मेरा पक्का विश्वास है कि कोई भी आदमी ऐसा कर सकता है चाहे वो कम पढा लिखा हो या अच्छा पढा लिखा। मैंने कभी भी कहीं भी किसी की सिफारिश नहीं की है लेकिन मुझे भ्रम है कि मेरी जान-पहचान ऐसे लोगों तक है जो किसी को भी नौकरी दे सकते हैं।
खैर, मैंने देवेन्द्र से कहा कि मैं तुम्हें पांच हजार तक की नौकरी दिलवा सकता हूं। उसकी आंखें चमक उठीं। इसके बाद मैंने और दो चार बातें और जोडीं- तुम्हें बारह बारह पन्द्रह पन्द्रह घण्टे रोज हाडतोड मेहनत करनी पडेगी, गालियां सुननी पडेंगी, एक छोटी सी जगह में गन्दे लोगों के बीच रहना पडेगा, उस छोटी सी जगह का किराया भी तुम्हें दो ढाई हजार रुपये देना पडेगा। पानी तक तुम्हें खरीदकर पीना पडेगा। छुट्टियां नहीं मिलेंगीं।
मेरा प्रवचन चालू रहा- तुम पहाड के रहने वाले हो। उसमें भी वहां के जहां साल में जमकर यात्री आते हैं। रूपकुण्ड के रास्ते में तुम्हारा गांव पडता है। ज्यादातर यात्रियों के लिये तुम गाइड कभी पॉर्टर का काम करते हो। सात आठ हजार महीना तो तुम्हारे लिये सीजन में साधारण सी बात है। वहां तुम राजा की तरह रहते हो। आईएएस अफसर भी तुम्हारे पीछे पीछे चलते हैं। तुम्हारे एक इशारे पर रुकते हैं, एक इशारे पर आगे बढते हैं। कोई गलती करता है तो तुम उन्हें डपट भी देते हो। ऐसा रुतबा पूरे हिन्दुस्तान में किसी और का नहीं है। यहां दिल्ली में तुम किसी की रिक्शा पर बैठकर तो देखो। पैसे नहीं दिये तो मारपीट हो जाती है। देखा था ना ऑटो वाले ने जरा सी दूर के सौ रुपये ले लिये थे।
जमकर वीर रस के प्रवचन दिये। लेकिन उसके चेहरे को देखने से लग रहा था कि उसने एक भी प्रवचन नहीं सुना लेकिन संकोचवश वापस जाने की हामी भर ली। मैंने कहा कि आज तुम हमारे यहां रुकना, कल वापस चले जाना। आखिर इतना कर्तव्य तो बनता है। हम भी तो उनके घर में रुकने की ख्वाहिश रखते हैं। नहीं तो उसके लिये सर्वोत्तम होता कि वो आज रात ऋषिकेश की बस पकडे और सुबह ऋषिकेश से आगे की।
अगली सुबह उसने अपने बैग से दो जोडी कपडे निकालकर पूछा कि मुझे कपडे धोने हैं, धोने वाली जगह दिखा दो। मैंने कहा कि कोई बात नहीं, हमारे यहां मशीन है, उससे धुल जायेंगे। उसने पहली बार वाशिंग मशीन देखी थी। आंखे फाड-फाडकर मशीन की एक एक कार्यप्रणाली को देखता रहा। दो बजे जब मेरा ड्यूटी जाने का समय हो गया तो मैंने पूछा कि बस से जायेगा या ट्रेन से, साढे पांच बजे ट्रेन है। बोला कि ट्रेन से जाना ही बेहतर है। मैंने बताया कि ट्रेन सुबह तक पहुंचायेगी और सीधी ऋषिकेश जाती है। फिर भी उसने ट्रेन को ही वरीयता दी। वैसे भी इन दिनों मेरठ के बाद ऋषिकेश पैसेंजर खाली ही चलती है, इसलिये उसके आराम से सोते या लेटते हुए जाने की उम्मीद थी। पांच बजे उसे शाहदरा स्टेशन छोड दिया, इसके साथ ही उसने मेट्रो की भी सवारी कर ली। टिकट भी उसी ने लिया और मुझे सन्देह नहीं रहा कि सुबह तक वो ऋषिकेश पहुंच जायेगा।
हमारे पहाड के लोगों को नशा करने की बडी बुरी आदत है। देवेन्द्र भी अपवाद नहीं है। जब पहले ही दिन उसे मेट्रो स्टेशन में प्रवेश कराने लगा, उसकी चेकिंग भी हुई। चेकिंग तो खैर ठीक सुलट गई लेकिन इसके बाद उसके होश उड गये। कहने लगा कि उसके पास सुल्फा है। सुल्फा यानी चरस। इतना उसे मालूम था कि चरस रखना अपराध है और फिर अगर चेकिंग भी होने लगे तो इसके पकडे जाने का खतरा और भी बढ जाता है। अगले दिन जब पुनः मेट्रो में जाने लगे तो मैंने पूछा कि कितनी चरस है तेरे पास? उसने बैग में से निकालकर दिखाई। करीब एक इंच लम्बी और ढाई तीन सूत मोटी एक बत्ती थी। मैंने कहा कि कल तो किसी तरह बच गया, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं हुआ करता। पकडा जायेगा। होश उड गये- तो मुझे कोई लम्बा पैदल का रास्ता बता दो। मैंने कहा कि कोई रास्ता नहीं है और है भी तो वहां भी चेकिंग है। बिना चेकिंग के मेट्रो में जा ही नहीं सकते। उसने तुरन्त उस बत्ती को झाडियों में फेंक दिया- चेकिंग कराकर वापस आऊंगा और उठाकर ले जाऊंगा। मैंने बताया कि ऐसा नहीं हुआ करता। एक बार चेकिंग हो गई तो बाहर नहीं आ सकते और बाहर आ गये तो दोबारा अन्दर जाने के लिये फिर से चेकिंग होगी। कहने लगा तो आप ले लो, चेकिंग के बाद दे देना। मैंने कहा कि मेरी भी तो चेकिंग होगी। काफी देर तक असमंजस में खडा रहा जैसे उसका खजाना लुट रहा हो और जान पर भी बनी हो। आखिरकार उसे चरस छोडनी ही पडी।
इसका मुझे दुख भी है लेकिन उससे ज्यादा खुशी है। दुख इस बात का कि उसने इस जरा सी चरस की कीमत डेढ सौ रुपये बताई थी। एक सीधे साधे इंसान को डेढ सौ का नुकसान हो गया। झाडी में स्वयं ही फेंकने पडे डेढ सौ रुपये। और खुशी तो है ही। मैं अब उसे नशेडी कहूंगा। जो अभी तक मेरे सामने एक सीधा साधा गढवाली था, अब नशेडी हो गया। ऐसी घटनाओं से किसी चरसी पर कोई फर्क नहीं पडता। वो ऋषिकेश जाते ही पुनः खरीद लेगा। ऋषिकेश इन नशों का अड्डा है।
20 दिसम्बर 2013, शुक्रवार
1. अमित एलटीसी लेकर हरिद्वार गया। उसे घूमने का शौक बिल्कुल नहीं है। शौक है तो बस रिश्तेदारियों में घूमने का। हर महीने हर रिश्तेदार के यहां हाजिरी लगाने का। चार साल में एक बार एलटीसी मिलती है, इसे पांचवें साल तक भी बढाया जा सकता है। दिसम्बर खत्म होते ही अमित का पांचवां साल खत्म हो जायेगा। अगर पांचवां साल भी खत्म हो जायेगा तो उसे एलटीसी न ले पाने का मलाल नहीं रहेगा। लेकिन वह पैसों का एक नम्बर का लालची है। वो 100 रुपये सिर्फ तभी खर्च करेगा अगर उसे उसके बदले 101 रुपये मिलने की उम्मीद हो, भले ही इसके लिये उसे दस दिनों तक सिर नीचे करके खडा रहना पडे। असल में उसे एलटीसी में आने जाने के किराये के अलावा पांच हजार नकद भी मिलते हैं। हरिद्वार जाने में खर्च कुछ नहीं होना, लेकिन वे पांच हजार सीधे उसकी जेब में जायेंगे। खर्च क्यों नहीं होना, बताता हूं। भाभी को पतंजलि से कुछ दवाईयां लेनी हैं। हो सकता है कि एकाध दिन वहां रुकना पडे। वापस आने पर मेडिकल क्लेम कर देगा। पतंजलि में रुकने का जितना खर्च होगा, सब मिल जायेगा। तीसरी बात कि बस से गया है, प्राइवेट वोल्वो बस से। इसमें भी एक चाल है कि सौ रुपये के टिकट पर दो सौ आराम से लिखवाया जा सकता है। सौ रुपये बस वाले को देगा और बाकी सौ अपनी जेब में। वाकई कमाल का दिमाग है!
यह सब मेरा अनुमान ही है। पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई है।
इतना दिमाग मुझमें नहीं है। पिछले साल जब हवाई जहाज से लेह गया था तो पहले आठ नौ हजार के टिकट बुक कर लिये और उसके बाद पता किया कि लेह की फ्लाइट का पैसा मिल जाता है या नहीं। फिर पांच हजार क्लेम करना भूल गया। दो तरह की एलटीसी होती हैं- एक ऑल इण्डिया और दूसरी होम टाउन। ऑल इण्डिया में पांच हजार अतिरिक्त मिलते हैं जबकि होम टाउन में ये नहीं मिलते। मैं फार्म भरते समय होम टाउम पर टिक कर बैठा। साथ ही पांच हजार रुपये से भी हाथ धो बैठा। इतना ही काफी नहीं था। यात्रा जनवरी में की थी, उससे पहले एडवांस के लिये क्लेम कर दिया था। आठ हजार का चेक भी बन गया। जहां बना था, वहीं रखा रहा। यात्रा हो गई। वापस लौटकर टिकट विकट जमा कर दिये। जो अतिरिक्त राशि थी वह मेरे खाते में आ गई लेकिन आठ हजार का चेक एकाउण्ट डिपार्टमेण्ट में ही रखा रहा। लाना ही भूल गया। पांच महीने हो गये, मई में जब किसी काम से एकाउण्ट वालों के यहां गया तो चेक भी ले लिया। तब तक तीन महीने वाला वो चेक एक्सपायर हो चुका था। उसे नया बनवाने के चक्कर में साहब लोगों की सुननी भी पडी।
तो ऐसी है अपनी व्यावसायिक बुद्धि।
2. गूगल से एक टी-शर्ट आई। मैंने गूगल मैप द्वारा आयोजित मैपाथन में भाग लिया था। करीब 70 स्थानों, सडकों आदि को गूगल मैप में अपडेट किया। उसमें शीर्ष पर रहने वालों के लिये और भी शानदार पुरस्कार थे, अपना कद टी-शर्ट तक ही था। गर्मी लायक टी-शर्ट है, दो महीने बाद निकालूंगा।
23 दिसम्बर 2013, सोमवार
1. थार साइकिल यात्रा शुरू हो गई। विस्तार से अलग से प्रकाशित किया जायेगा।
29 दिसम्बर 2013, रविवार
1. फेसबुक पर एक अफवाह सी फैली कि मुझे हिन्दी के सर्वोत्तम छह यात्रा-लेखकों में शामिल किया गया है। एक वेबसाइट होप एराउंड इंडिया ने यह लिस्ट जारी की। फेसबुक पर एक मित्र ने उस लिस्ट को चेप दिया। बस, फिर क्या था? जैसे जैसे दूसरे मित्रों को पता चलता गया, बधाईयों का सिलसिला शुरू होता गया जो आज तक भी जारी है।
मैं इस वेबसाइट पर गया तो वहां लिखा मिला- ‘‘In case I missed any hindi travel blog in this list and that should be here please feel free to post your URL under comment section below.’’
मेरी अक्ल के अनुसार इसका मतलब होता है- “अगर मुझसे इस लिस्ट में कोई और हिन्दी यात्रा ब्लॉग छूट गया है तो उसकी सूचना दें।” जाहिर है कि वेबसाइट संचालक को इन्हीं छह हिन्दी ब्लॉगों की जानकारी थी और इतना भी पक्का है कि यह लिस्ट किसी मेरिट पर आधारित नहीं है। ठीक है कि संचालक को छह ब्लॉगों में से मेरे ब्लॉग की भी जानकारी थी, फिर भी यह कोई ज्यादा बडी बात नहीं है। कुछ मित्रों ने आपत्ति भी की कि मुझे इस लिस्ट में चौथे स्थान पर नहीं बल्कि पहले स्थान पर होना चाहिये था। सब बेकार की बातें हैं।
और हां, संचालकों ने मेरे ब्लॉग के परिचय में लिखा है –‘‘Neeraj Kumar's hobby is Tourism which is an expensive, Time-consuming.” है ना बिल्कुल मेरे स्वभाव के विपरीत?
31 दिसम्बर 2013, मंगलवार
1. 2013 की घुमक्कडी का लेखा-जोखा प्रकाशित किया। इसे सुप्रसिद्ध जर्नलिस्ट रवीश कुमार ने फेसबुक पर शेयर कर दिया। बस, उनके शेयर करने की देर थी। इसी दिन कई रिकार्ड टूट गये। एक तो लगातार दिनभर फ्रेण्ड रिक्वेस्ट की लाइन लगी रही। कई फोन भी आये जिन्होंने रवीश जी के माध्यम से मुझे जानने की बात कही। और सबसे बडा रिकार्ड टूटा एक दिन में ब्लॉग पर सर्वाधिक हिट का- ढाई हजार से भी ज्यादा। दिसम्बर माह में औसतन सात सौ हिट प्रतिदिन आते रहे। आज ऑल टाइम सर्वाधिक का रिकार्ड टूट गया। फिर इसी पोस्ट पर आज पहले ही दिन 1000 हिट मिले। ऐसा कभी नहीं हुआ था। किसी पोस्ट पर अगर पहले ही दिन दो सौ हिट भी आते थे तो काफी होता था। 1000 हिट होने से यह सर्वकालिक पढी जाने वाली पांच टॉप पोस्टों में आ गई है। खुशी मिलती है। आखिर हम ब्लॉग लेखकों की कमाई ही क्या है? ये हिट ही तो कमाई हैं।

डायरी के पन्ने-18 | डायरी के पन्ने-20




Comments

  1. हो जग का कल्याण, पूर्ण हो जन-गण आसा |
    हों हर्षित तन-प्राण, वर्ष हो अच्छा-खासा ||

    शुभकामनायें आदरणीय

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  2. 16 और 17 तारिख को छुपा गये नीरज जी...

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  3. यादों में बसाओ पुरानी बातें, नया साल है कुछ नया कर दिखाना है,

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  4. बहुत देखी जमाने कि राहें, लेकिन अभी और भी राहें बाकी है मेरे दोस्त, आपकी डायरी में पूरा पुर्वोत्तर बाकी है, आसाम, मेघालय, सिक्किम, अरुणांचल, नागालैंड सहित पूरी ७ बहनें आप का इंतजार कर रही है, उनका घर भी तो देख आओ

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

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