Skip to main content

डायरी के पन्ने- 18

चेतावनी: ‘डायरी के पन्ने’ मेरे निजी और अन्तरंग विचार हैं। कृपया इन्हें न पढें। इन्हें पढने से आपकी धार्मिक और सामाजिक भावनाएं आहत हो सकती हैं।
1 दिसम्बर 2013, रविवार
1. पिछले पखवाडे डायरी नहीं लिख सका। इसका एकमात्र कारण है आलस। भगवान ने इस विद्या में मुझे पारंगत बनाया है। फिर भी पिछले पखवाडे की कुछ बातें हैं, जो लिखना चाहता हूं:
#1 ऋषिकेश से ऊपर फूलचट्टी में गंगा किनारे कैम्पिंग करने की योजना बनी। रेल से आने-जाने का आरक्षण भी हो गया। साथ में सहकर्मी विपिन और भरत भी चलने को तैयार हो गये। झांसी से विनय, दिल्ली से तारकेश्वर व देहरादून से भी कुछ मित्र राजी थे। असल में योजना मैंने और विपिन ने ही बनाई थी। बाद में कारवां बढता चला गया। हमारी छुट्टियां भी पास हो गई थीं।
इसी दौरान विपिन की एक परीक्षा आडे आ गई। विपिन कई दिनों तक दुविधा में रहे। एक तरफ गंगा किनारे टैंट लगाकर रहना और दूसरी तरह बेहतर भविष्य की कोशिश। आखिरकार बेहतर भविष्य का मार्ग चुना गया। विपिन के हट जाने से यात्रा का आधार ही समाप्त हो गया। तभी से मेरा भी मन उचट गया। तभी त्यागी जी ने भी अपने निजी कार्य के लिये छुट्टियां लगा दीं लेकिन मेरी वजह से उन्हें छुट्टियां नहीं मिल सकती थीं। उन्होंने मुझसे कहा। यात्रा से मन पहले ही हट गया था, अब बचा-खुचा भी हट गया। अपनी छुट्टियां रद्द कर दीं। साथ ही ऋषिकेश कैम्पिंग भी रद्द।
#2 थोडी सी फिजिक्स झाडने का मन कर रहा है। फिजिक्स में एक फार्मूला है W=Fd. यह किये गये कार्य का फार्मूला है। W का अर्थ है Work यानी कार्य, F का अर्थ है Force यानी बल और d का अर्थ है displacement या distance यानी विस्थापन या दूरी। यह कहता है कि किया गया कार्य किसी वस्तु पर लगाये गये बल व उस बल के कारण वस्तु द्वारा तय की गई दूरी के गुणनफल के बराबर होता है। बल कायदे में उतना ही लगाना पडेगा, जितना वस्तु का भार है। थोडा बहुत कम-फालतू हो जाता है। चिकनी सतह पर कम और खुरदुरी सतह पर ज्यादा। यानी वस्तु जितनी ज्यादा भारी होगी, उसे खींचने के लिये उतना ही ज्यादा कार्य करना पडेगा। इसी तरह वस्तु उस बल के कारण जितनी ज्यादा दूरी तय करेगी, किया गया कार्य भी उतना ही ज्यादा होगा।
अब इसी को साधारण तरीके से समझते हैं। मान लो कोई 70 किलो का आदमी है, उसके पास 30 किलो सामान है। कुल वजन हुआ 100 किलो। वह एक किलोमीटर दूर जाता है। जाहिर है कि उसे कुछ ऊर्जा व्यय करनी पडेगी। व्यय की गई यह ऊर्जा हर तरीके से समान होगी चाहे वो पैदल जाये, साधारण साइकिल से जाये या गियर वाली साइकिल से या मोटरसाइकिल से, कार से, ट्रक से... कैसे भी। इसमें रत्ती भर भी अन्तर नहीं आने वाला। फार्मूले में समय के लिये कोई स्थान नहीं है, इसलिये इस दूरी को एक मिनट में तय किया जाये या एक घण्टे में, तब भी ऊर्जा में कोई कमी-बेसी नहीं हो सकती। हो सकता है कि गियर वाली साइकिल तेज चले या धीमी चले, कोई फरक नहीं पडेगा। किसी वस्तु को ढोने में जितनी ऊर्जा की आवश्यकता है, उससे कम या फालतू कभी नहीं लग सकती। गियर वाली साइकिल चलाने में भी उतनी ही ऊर्जा चाहिये जितनी साधारण साइकिल को चलाने में।
मुझसे कई मित्र गियर वाली साइकिल के बारे में जानकारी लेते हैं। सबसे ज्यादा पूछा जाने वाला प्रश्न होता है कि कौन सी साइकिल लेनी चाहिये। मैं उनसे पूछता हूं कि साइकिल किस मकसद के लिये ली जा रही है। ज्यादातर का उत्तर होता है कि सेहत बनाने के लिये। तब मैं जवाब देता हूं कि साधारण साइकिल सर्वोत्तम है। अगर मैदान में या शहरों में गियर वाली साइकिल चाहिये तो पैसे की बर्बादी ही है। सामने वाले से बात करके ही मालूम हो जाता है कि वह पहाडों पर नहीं जायेगा, तो उन्हें साधारण साइकिल के लिये ही प्रोत्साहित करता हूं। एक मित्र ज्यादा जबरदस्ती करने लगे तो उन्हें पांच हजार की स्टील की गियर वाली साइकिल दिला दी। मित्र अपने पडोसी हैं, उनकी उस साइकिल ने आज तक यमुना भी पार नहीं की है। उन्हें भले ही महसूस न होता हो, लेकिन मुझे फख्र है कि मैंने उनके सात आठ हजार रुपये बचा दिये।
#3 दिसम्बर के शुरू में बुन्देलखण्ड भ्रमण की योजना बनी लेकिन एक शादी की वजह से वह बनने से पहले ही रद्द हो गई।
2. आज वाशिंग मशीन ले ली। साढे ग्यारह हजार की आई। आते ही कम से कम पन्द्रह जोडी गन्दे कपडे ढूंढ निकाले और आधा घण्टा भी नहीं लगा उन्हें रस्सी पर टंगने में। इससे पहले दो जोडी कपडे धोने में ही जंग लडनी पडती थी। पहले दिन कपडे भिगोते ही युद्ध समाप्ति का शंख बज जाता था। दूसरे दिन, तीसरे दिन वे बाल्टी में ही पडे रहते थे। चौथे या पांचवें दिन जब बाथरूम में घुसते ही बदबू आने लगती, तब धोने पडते। कई यात्राएं केवल इसी वजह से रद्द हुईं कि धुले कपडे नहीं थे।
2 दिसम्बर 2013, सोमवार
1. मसिजीवी के नाम से लिखने वाले विजेन्द्र चौहान काफी दिनों से मेरी लद्दाख साइकिल यात्रा पर एक कार्यक्रम आयोजित करना चाह रहे थे। आज उन्होंने बताया कि अब वे यह कार्यक्रम 8 दिसम्बर रविवार को आयोजित करना चाहते हैं। इधर मैं भी बिल्कुल खाली पडा रहता हूं, कोई काम धाम नहीं है तो दो तीन घण्टे के इस कार्यक्रम में भाग लेने की स्वीकृति दे दी। एक समस्या है कि उस दिन मेरी सायंकालीन ड्यूटी है दोपहर बाद दो बजे से रात दस बजे तक, तो इसे परिवर्तित करना पडेगा। कार्यक्रम दोपहर बाद ढाई बजे से आरम्भ होगा।
2. अमित गांव चला गया, साथ में भाभी भी। पता नहीं कब लौटेंगे। बडा अच्छा लग रहा है। खाने की तो थोडी समस्या है लेकिन फिर भी क्वार्टर अब शान्तिमय तपोवन जैसा लग रहा है। भाभी थीं तो चीखती रहती थीं। चीखना उनका तकिया कलाम है। उनकी अनुपस्थिति में ही मुझे अपनी ताकत का एहसास होता है। अब टीवी के चैनल भी मेरे इशारों पर बदल सकते हैं। अपना तो एक ही चैनल है- डिस्कवरी। उधर भाभी को यह जानवरों की मारकाट, खून, चीरफाड वाला चैनल बिल्कुल पसन्द नहीं।
एक दिन जब भाभी रसोई में थीं तो मैंने डिस्कवरी लगा दिया। उसमें कान्हा राष्ट्रीय उद्यान का कार्यक्रम आ रहा था। उद्यान में एक प्राचीन मन्दिर है जिसमें बारहों महीने एक पुजारी रहता है बिल्कुल अकेला। आसपास बाघ आदि खतरनाक जानवर घूमते रहते हैं। संयोग से उसी समय भाभी आ गईं। मन्दिर व पुजारी दिखे तो ठिठककर देखने लगीं। तभी अचानक दृश्य बदला व बाघ ने एक हिरण मार गिराया। ठीक इसी समय मुझे अपने दाहिने तरफ एक कर्णभेदी चीख सुनाई दी- भईया, हटाओ इसे। चीख इतनी घातक थी कि बालकनी में बैठे कबूतर एक झटके में उड गये। कुछ सेकण्ड बाद जब मैं सामान्य हुआ तो सामने टीवी पर स्टार प्लस चल रहा था।
अमित और मुझमें बहुत समानताएं हैं। ऐसे समय पर मैं तो अपने कमरे में चला जाता हूं, अमित को वहीं भवानी के साथ ही रहना होता है। बेचारे पर कैसी बीतती होगी!
3 दिसम्बर 2013, मंगलवार
1. कल बुवा की लडकी की शादी है। इससे पहले उनके दो बच्चों के विवाह हो चुके हैं लेकिन मेरा जाना नहीं हो पाया था। हर बार की तरह इस बार भी मुझसे विशेष आग्रह किया गया, जिसे मैंने स्वीकार कर लिया। गौरतलब है कि मैं किसी भी रिश्तेदारी में जाना पसन्द नहीं करता हूं। बडी बुवा के यहां कम से कम बीस साल पहले गया था पिताजी के साथ। जब डिप्लोमा कर रहा था तो फाइनल ईयर में मैंने कॉलेज के पास रिठानी में कमरा ले लिया था। छोटी बुवा एक किलोमीटर दूर घोपला में ही रहती थीं, मैं कभी नहीं गया। एक बार संयोग से रिठानी बाजार में मिल गईं, उनकी आंखों में आंसू आ गये कि सगा भतीजा घर के सामने रहता है, कभी आता नहीं है। बस तभी गया था आखिरी बार उनके यहां। सात साल से भी ज्यादा हो गये। इसी तरह मामा मोदीनगर में रहते हैं। महीने में कई बार वहां से गुजरना होता है, पता नहीं कब गया था। एक बहन साहिबाबाद में रहती हैं। जब दिल्ली में मेरी नौकरी लगी थी तो उन्होंने मुझे यहां स्थापित होने में काफी सहायता की थी। अब उनकी भी शिकायत रहती है कि मैं उनके यहां नहीं जाता।
खैर, घोपला वाली बुवाजी ने बहुत पहले ही मुझसे वचन ले लिया था कि उनकी छोटी लडकी के विवाह में अवश्य आना है। विवाह चार दिसम्बर का तय हुआ। बाद में जब पता चला कि इसी दिन दिल्ली में विधानसभा के चुनाव भी हैं तो वादे से मुकरने का मन करने लगा। मेरा नाम वोटर लिस्ट में था। फिर सोचा कि वोट डालकर चला जाऊंगा। नौ बजे तक भी अगर वोट डाल दी तो ग्यारह बारह बजे तक घोपला पहुंच जाऊंगा। फिर सोचा कि शाम पांच बजे तक वोटिंग होनी है, वहां से दो बजे भी चल दूंगा तो आराम से वोट डाल सकता हूं। इसी पर मुहर लग गई।
दिल्ली से दो बजे निकलकर पांच बजे तक गांव पहुंच गया। वहां पहुंचकर एक बात पता चली कि बुवा की इच्छा है कि मैं भात देते समय उन्हें नोटों की माला पहनाऊं। दुनिया में इतने परिवर्तन आ रहे हैं लेकिन बुवा में आज तक यही परिवर्तन नहीं आया। आज भी वे पैसों की उतनी ही महत्वाकांक्षी हैं जितनी पहले थीं। उनका गांव मेरठ विकास प्राधिकरण की सीमा में आता है। समय समय पर जमीन अधिग्रहण होता रहता है। बेशुमार मुआवजा मिलता रहता है। गांव से लगती ही मेरठ की एकमात्र हवाई पट्टी है, उसका भी मुवावजा मिला है। लम्बे समय से उन्हें बिना कुछ करे धरे ही पैसों में डूबे रहने की लत पडी हुई है। फिर मेरे सभी ताऊ अच्छे सम्पन्न हैं। उनके लडके अच्छी नौकरियों में हैं। उनकी उदारता ने भी बुवा को आसमान में बैठा रखा है। यह सम्पन्नता जब हमारे यहां भी आई तो वे हमसे भी उसी उदारता की उम्मीद कर बैठी।
नोटों की माला का नाम सुनते ही मैंने तुरन्त नकार दिया। दस दस के नोटों की माला उनके लिये गाली के समान होती। सौ सौ की माला को भी वे अशुभ मानतीं, उन्हें और बडे नोटों की माला चाहिये थी। कम से कम बीस-पच्चीस नोट तो लगते ही। दस हजार से ऊपर माला गूंथने में ही लग जाते। पैसा ही रिश्ते बनाता और बिगाडता है, यह बात मैं अपने आरम्भिक दिनों से देखता आ रहा हूं, इसलिये मुझे भात में ज्यादा धन खर्च करने की कोई इच्छा नहीं थी। पिताजी को भी बता दिया। वे साढे सात हजार नकद भात देने पर तुले हुए थे। मैंने पूछा कि कहां से लाओगे साढे सात हजार। बोले कि तू देगा। मैंने कहा कि मेरे पास तो नहीं हैं इतने पैसे। एक बार कम से कम पूछ तो लेते कि सात आठ हजार देने हैं, तेरे पास हैं या नहीं। मुझे किसी बुवा-ऊवा से लगाव नहीं है, मैं नहीं देने वाला। जिससे लगाव होगा, उसे दूंगा। आपको लगाव है, आप जानो।
और वे भी कहां से लायेंगे? भगवान किसी घर में एक ही स्रोत से आमदनी न होती हो। मैं पांच हजार ले गया था। ढाई हजार पिताजी ने और मिलाये जो मैंने पिछले महीने दिये थे। दिये साढे सात हजार ही। उन्हें कैसे समझाऊं कि मेरे पैर बडे हो गये हैं, चादर अभी भी उतनी ही है। पैर मोडकर गुजारा करना पड रहा है। और अभी तो दोपाया ही हूं, जब चौपाया हो जाऊंगा तब इस चादर से काम नहीं चलेगा। हर महीने कभी दस हजार कभी पन्द्रह हजार की मांग उठती है। हिसाब मांगता हूं तो दूध का नाम लेकर चुप हो जाते हैं। कितना दूध लेते हो रोजाना, किस भाव से? रोज एक किलो और तीस के भाव से। दो किलो लिया करो, हर महीने के दो हजार। बाकी तेरह हजार? इसका कभी जवाब नहीं मिलता।
मैं घरवालों से प्रेम न करने के बावजूद भी सुपुत्र हूं क्योंकि जितना खर्च वे मांगते हैं, उतना उन्हें तुरन्त मिल जाता है। जिस दिन खर्च में कटौती शुरू कर दूंगा, उसी दिन से सुपुत्र से ‘सु’ हटना शुरू हो जायेगा। जब खर्च देना बिल्कुल बन्द कर दूंगा, तुरन्त कुपुत्र का ठप्पा लग जायेगा। वाह दुनिया वाह! पिताजी से कई बार कह चुका हूं कि दिल्ली आ जाओ मेरे पास। घर में कोई ढोर-डंगर नहीं है, कोई बिजनेस भी नहीं है कि ठप पड जायेगा लेकिन महीने दो महीने में एकाध बार आते हैं और अगले दिन चले जाते हैं। हमेशा से ही गांव में रहे हैं। दो दिन चार दिन यहां दिल्ली आकर मन नहीं लगेगा लेकिन धीरे धीरे लग जायेगा। गांव में उनकी संगत पहले से ही अच्छे लोगों से नहीं रही है। मानसिकता कुछ ऐसी है कि मान लो अखबार में बराबर बराबर में दो खबरें छपी हों, एक में लिखा हो कि इंटरनेट दुनिया की सबसे क्रान्तिकारी खोज है, इससे ये फायदे हैं और दूसरी में लिखा हो कि इंटरनेट पर ठगी भी हो जाती है तो वे केवल दूसरी खबर को ही पढेंगे और नमक मिर्च लगाकर उसे सबके सामने पेश करेंगे। खैर, जैसी उनकी मर्जी।
4 दिसम्बर 2013, बुधवार
1. सुबह दस साढे बजे ट्रैक्टर-ट्रॉली पर घोपला की ओर चल दिये। सभी भाती थे। सुभारती मेडिकल कॉलेज से पहले एक सीधा रास्ता जाता है लेकिन किसी कारण से वो रास्ता छूट गया, फिर अगले रास्ते से बाइपास छोडा। आगे जाकर भटक गये। तब गूगल मैप और जीपीएस काम आया। सेकण्डों में पता चल गया कि हम कहां हैं और सही रास्ता कौन सा है। सबने इस तकनीक की बडी तारीफ की।
ढाई बजे तक भात का काम खत्म हुआ। फिर कब चार बज गये, पता ही नहीं चला। दुख इस बात का है कि मैं वोट नहीं डाल पाया। वापस दिल्ली आने के लिये मैं ट्रैक्टर-ट्रॉली से रिठानी आना चाहता था और उसके बाद बस से। लेकिन कुछ ‘शुभचिन्तकों’ ने मना करने के बावजूद भी एक ठसाठस भरी दिल्ली वालों की एक कार में बैठा दिया। उस कार से कुछ लोग मोदीनगर उतरे, कुछ गाजियाबाद और मेरे शास्त्री पार्क जाने की वजह से उन्हें अपना रास्ता बदलना पडा। नहीं तो वे लोनी होते हुए उत्तरी दिल्ली जाते। मुझे यही बात अटपटी लगी कि जो मुझे नहीं जानते और मैं उन्हें नहीं जानता, मेरी वजह से उन्हें एक लम्बा चक्कर काटना पडा। मन में मुझे भी और बिठाने वालों को भी गाली तो जरूर दे रहे होंगे।
5 दिसम्बर 2013, गुरूवार
1. एक कम्प्यूटर की आवश्यकता महसूस हो रही है। इस बारे में विकास चौहान साहब से भी बात की थी, उन्होंने अपने मित्र श्याम को यह काम सौंप दिया। कुछ दिन पहले श्याम से बात हुई। उन्होंने 160GB हार्ड डिस्क व 1GB रैम वाले कम्प्यूटर की कीमत बताई 15000 के आसपास। मुझे कम्प्यूटर हार्डवेयर की कोई जानकारी नहीं है। कुछ जानकार मित्रों से बात की तो उन्होंने मुझे धिक्कारा कि बाबा आदम के जमाने का कम्प्यूटर लेगा। कम से कम 1TB हार्ड डिस्क व 4GB की रैम होनी चाहिये। i3 प्रोसेसर इतने गीगा हर्ट्स, ये मॉनीटर, वो यूपीएस, प्रिण्टर, हैडफोन ये वो सब होना चाहिये। आज पुनः श्याम से ‘नये जमाने’ के कम्प्यूटर की बाबत बात की। उन्होंने नये जमाने के एक सीपीयू का ही खर्च 22000 बता दिया। बाकी खर्चे अलग। सुनते ही भट्टा बैठ गया। कह दिया कि बाद में बताऊंगा।
बाद में क्या बताना? इतना बजट है ही नहीं मेरा। मुझे भी इन चीजों की जानकारी होती तो अब तक जाकर ले आता। किसी से पूछेंगे तो वो भी वही बतायेगा जो स्वयं उसके लिये भी सपना है। अमित बहुत बडा इलेक्ट्रॉनिक्सबाज बना फिरता है। खुद के पास कम्प्यूटर, लैपटॉप कुछ नहीं है, नोकिया 1100 लिये रखता है लेकिन दूसरों के कम्प्यूटरों, मोबाइलों में अपडेटिड वर्जन के नाम पर पता नहीं क्या क्या भरता रहता है। विपिन को वास्तव में जानकारी है लेकिन वे भी हमेशा मेरी तरह धन की कमी में रहते हैं। इनके अलावा जो भी हैं, सब नकली ज्ञानी हैं। मुझे खुद तो जानकारी है नहीं, सामने वाले पर भरोसा भी नहीं कर सकता। किंकर्तव्यविमूढ हूं, लूं या न लूं। फिलहाल न लेने का फैसला कर लिया है। चार साल पुराने उस लैपटॉप से ही काम चलाऊंगा, जिसका हर स्क्रू ढीला हो चुका है, हर जोड हिलता है, बैटरी बैकअप शून्य हो चुका है। हमेशा की तरह अगले दो महीने यात्राओं की दृष्टि से काफी खर्चीले रहने वाले हैं। सॉरी विकास भाई और श्याम भाई।
7 दिसम्बर 2013, शनिवार
1. कल भाभी आई थीं और आज चली गईं। कारण है कि अमित की एएमआईई की परीक्षाएं हैं। कल अमित ने खूब कहा कि मुझे पढ लेने दे, कुछ ही दिनों ही बात है, टीवी मत देख। लेकिन वह नहीं मानीं। आखिरकार अमित ने उन्हें गांव भेज दिया अर्थात भगा दिया। मुझे पता चला तो अमित का समर्थन किया। भाभी को खूब धिक्कारा। हालांकि वे यहां नहीं थीं इसलिये दोनों भाई जमकर धिक्कारते रहे- आदमी विवाह क्यों करता है? चार काम घर के करेगी, पति के हर सुख दुख में भागीदार बनेगी। टीवी में विज्ञापन देख-देखकर नई नई क्रीमों की फरमाईश करती रहती है, मैं उसकी हर फरमाईश पूरी करता हूं। ऐसी ऐसी चीजें खरीद लेती है जिन्हें घर लाने के बाद एक बार भी नहीं देखती, मैं कभी मना नहीं करता। आज मेरे पेपर हैं तो चार दिनों के लिये बिना टीवी के नहीं रह सकती थी? मुझे अब अधिकतम समय पढाई में लगाना है, ऑफिस से छुट्टियां ले रखी हैं। खाना बनाना, बर्तन धोना, साफ सफाई करना सब खुद ही करना पडेगा, यह उसे भी तो देखना चाहिये था। क्या उसे महारानी बनाने को विवाह किया है?
जमकर निन्दा रस का आनन्द लिया। जब केवल मैं और अमित ही होते हैं तो सब्जी अमित बनाता है और रोटी मैं। बर्तन दोनों मिलकर धो लिया करते हैं। आजकल मुझे कुछ फुरसत है तो अमित से कहा- भाई, तू आराम से पढ। खाना मैं बना दूंगा। तेरी घरवाली भाग गई तो क्या तू पेपरों में भी खाना बनायेगा? उस दिन मैंने मटर पनीर की भुजिया बनाई। अब तो दिन में कई बार –तेरी घरवाली भाग गई है तो तू ये करेगा- ऐसा कह देता हूं। अमित खुश हो जाता है। वो भी कह देता है- काश! भाग जाती।
गौरतलब है कि दोनों ने घरवालों की मर्जी से प्रेम-विवाह किया है। विवाह से पहले दोनों फोन पर पूरे पूरे दिन लगे रहते थे। ये एक दूसरे को प्यार से बाबू कहते हैं। एक रिकार्डिंग है मेरे पास उनकी बातचीत की जिसमें अमित बडी ही नाजुक सी आवाज में कह रहा है- बाबू, मेरी क्या गलती है? मैं तो ऐसा सोच भी नहीं सकता। तू ऐसी बात मत किया कर।... बाबू, मैं तेरे बिना नहीं जी सकता। एक एक दिन बडी मुश्किल से कटता है। आज वो इस रिकार्डिंग को सुनकर कहता है- ये मैं नहीं हूं। मैं तो इससे ऐसा कह भी नहीं सकता। क्यों नहीं जी सकता मैं इसके बिना?
8 दिसम्बर 2013, रविवार
1. आज वोटों की गिनती हो रही है। पांच राज्यों में चुनाव हुए थे- दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ और मिजोरम। लेकिन टीवी पर, इण्टरनेट पर अपडेट शुरू के चार राज्यों के ही आ रहे हैं। मेरी जानकारी में गिनती तो पांचों राज्यों में हो रही है, फिर मिजोरम के साथ भेदभाव क्यों? क्या इसलिये कि वो सुदूर है और राष्ट्रीय राजनीति में उसका कोई योगदान नहीं? बाद में पता चला कि वहां मतगणना कल है।
आठ बजे मतगणना शुरू हुई थी, दस बजे तक लगभग सभी सीटों के रुझान आने लगे। दिल्ली में भाजपा 37 सीटों पर आगे थी। कई मित्रों ने कहा कि यहां तो भाजपा की सरकार बन गई है। 36 की आवश्यकता थी, 37 हो गईं। मैंने समझाया कि अभी कोई नतीजा नहीं आया है, ये केवल रुझान हैं। नतीजा तो कभी दोपहर बाद तक आयेगा, शाम तक। रुझान का चक्कर ज्यादातर को नहीं पता था। काफी मुश्किलों से मैं उन्हें समझा पाया। अच्छा लग रहा है कांग्रेस की दुर्गति देखकर।
2. आज मुखर्जी नगर जाना है विजेन्द्र चौहान द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में। स्पेस नाम का एक फाउण्डेशन है जिसका एक आयाम है चरैवेति। चरैवेति अर्थात चलते रहो। इस फाउण्डेशन के बारे में मैं ज्यादा नहीं समझ सका लेकिन इसी चरैवेति के सिलसिले में मुझे बुलाया था। इस तरह के कार्यक्रम होते रहते हैं लेकिन अभी तक दूसरे आयामों के ही कार्यक्रम हुए थे। चरैवेति का यह पहला कार्यक्रम था। कार्यक्रम का नाम था- साइकिल अपनी, ठाठ मुसाफिरी। मेरी लद्दाख साइकिल यात्रा पर केन्द्रित था यह। ढाई बजे पहुंचने का समय दिया था मैंने लेकिन दस मिनट की देरी से पहुंच सका। संजय तिवारी साहब ने फाउण्डेशन का परिचय दिया और मुझे एक उपहार भी दिया। दो पुस्तकें थीं- असगर वज़ाहत की ‘चलते तो अच्छा था’ और मनोज दास की ‘मेरा नन्हा भारत’। दोनों यात्रा वृत्तान्त हैं।
मेरी बारी आई तो माइक मुझे थमा दिया गया। सबसे पहले मैंने इसे ही बन्द करके एक तरफ रखा। इतने ज्यादा श्रोता नहीं थे कि मेरी आवाज दूर तक पहुंचाने की आवश्यकता हो। फिर माइक पर बोलने में मैं असहज महसूस करता हूं। अपनी ही आवाज जब चारों दिशाओं से सुनाई पडती है तो दिमाग गडबड हो जाता है।
प्रोजेक्टर पर मेरी यात्रा के कुछ फोटो चला दिये गये। मैं संक्षिप्त में उनके बारे में बताता गया। बाद में यात्रा के बारे में खुलकर बातचीत हुई, कुछ जिज्ञासाएं थीं, कुछ प्रश्न थे, सभी के बारे में अच्छी वार्ता हुई। साथ ही खाने पीने का दौर भी चलता रहा।
सीधे रास्ते से गया था विधानसभा और विश्वविद्यालय होते हुए लेकिन आया उल्टे रास्ते से। साइकिल जो थी साथ। तीमारपुर होते हुए वजीराबाद पुल से यमुना पार की और सीधे शास्त्रीपार्क वाली पुस्ता सडक पकड ली।
3. चुनाव परिणाम आ गये। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ में तो भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आ गई लेकिन दिल्ली में मामला बडा पेचीदा लग रहा है। इसकी वजह है केजरीवाल का यह कहना कि वे किसी के भी साथ गठबन्धन नहीं करेंगे, न तो समर्थन देंगे और न ही लेंगे। अब एक ही स्थिति बचती है कि धुर विरोधी पार्टियां भाजपा और कांग्रेस गठबन्धन कर लें। ऐसा करना भाजपा के लिये नुकसान का सौदा है, इसलिये भाजपा ऐसा कभी नहीं करेगी। मामला केवल दिल्ली विधानसभा का ही नहीं है बल्कि इन दोनों की निगाहें अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों पर है।
9 दिसम्बर 2013, सोमवार
1. अजीब स्थिति बन गई है। आम आदमी पार्टी और भाजपा दोनों कह रही है कि जिसे सरकार बनानी हो, बना लें। वे तो विपक्ष में बैठेंगे। उधर कुछ भी करने में असमर्थ कांग्रेस का कहना है कि वे आम आदमी पार्टी को बिना शर्त समर्थन देने को तैयार हैं। तीनों अपना भावी फायदा देख रहे हैं, दूसरे द्वारा उठाये गये कदमों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। भाजपा का नुकसान है कि उसे सरकार बनाने के लिये या तो कांग्रेस की शरण में जाना पडेगा या फिर आम आदमी पार्टी की। दोनों ही परिस्थितियां उसकी साख पर बट्टा लगाने के लिये काफी हैं। कांग्रेस का किसी को भी समर्थन देने में कोई नुकसान नहीं है। आज वे केजरीवाल को समर्थन देने की बात कर रहे हैं, कल भाजपा को भी समर्थन देने की बात करें तो ताज्जुब नहीं। मेरे समर्थन से अगर सरकार बने तो बना लो, हम समर्थन देंगे वो भी बिना शर्त। इससे जनमानस की सहानुभूति का कुछ हिस्सा कांग्रेस को जायेगा।
मुसीबत अरविन्द केजरीवाल की है। पहले तो उसने कह दिया कि समर्थन नहीं लेंगे। अब अगर वो समर्थन ले ले तो इज्जत का कबाडा हो जायेगा। फिर उसने एकान्त में बैठकर कुछ समय के लिये मुख्यमन्त्री बनकर सोचा तो होगा कि जो वादे जनता से करके इस मुकाम तक पहुंचा हूं, वे बातों से ही पूरे नहीं हुआ करते। महंगाई मुख्य मुद्दा था। दिल्ली में जहां खाने-पीने से लेकर ओढने-पहनने तक की सभी वस्तुएं बाहर से आती हैं, दाम कम करना आसान काम नहीं है। दूसरों को कोसना तो बडा आसान है, लेकिन जब वही बात अपने सिर पर आ पडती है तब पता चलता है। यही हालत आज केजरीवाल के सामने है। समर्थन न लेकर वह अपने उन लोगों का विश्वास खोता जा रहा है जिन्होंने उस पर विश्वास करके उसे वोट दिया है। एक दूसरा पहलू भी है। कांग्रेस समर्थन देने को तैयार बैठी है। मुख्यमन्त्री बनकर वह अपनी राजनैतिक पारी शुरू कर सकता है। समस्याएं आयेंगी, उनका सामना भी हो जायेगा। अगर भविष्य में किसी जनहित के मुद्दे पर कांग्रेस अपना समर्थन वापस लेती है तो उससे कांग्रेस की ही मिट्टी पलीत होगी और आम आदमी पार्टी का कद और बढ जायेगा। समर्थन न लेने की जिद पर अडे केजरीवाल को इस निश्चित फायदे से भी हाथ धोना पडेगा। जनता सब जानती है। वह जनता का भरोसा खोता जा रहा है।
अगर दिल्ली में पुनर्मतदान होता है तो आम आदमी पार्टी को नुकसान होगा। फायदा निश्चित रूप से भाजपा को मिलेगा। शायद थोडा बहुत कांग्रेस को भी। अरे केजरीवाल, ले ले समर्थन। राजनीति को आज तेरी सख्त जरुरत है।
10 दिसम्बर 2013, मंगलवार
1. एक शादी का निमन्त्रण आया हुआ है- अमरोहा से। कल अवकाश है, कोई कामधाम नहीं है इसलिये चला जाऊंगा। शाम चार बजे सम्पर्क क्रान्ति से जाऊंगा। छह बजे तक पहुंच जाऊंगा। नाइट ड्यूटी से आया। सोया तो ऐसा सोया कि शाम सवा चार बजे आंख खुली। सम्पर्क क्रान्ति तो छूट चुकी थी, देखा कि अब कौन सी गाडी है। सवा पांच बजे साहिबाबाद से बरेली इंटरसिटी मिल जायेगी। बिना नहाये धोये घर से भाग लिया। जूते भी पहनना भूल गया।
साहिबाबाद पहुंचा तो साढे पांच बज चुके थे और इंटरसिटी भी जा चुकी थी। अब बीस मिनट बाद सत्याग्रह आयेगी। आधे घण्टे विलम्ब से आई। भीड थी लेकिन कडक आवाज का फायदा उठाया। ऊपर वाली बर्थ पर दो जने कुछ सिकुड गये और मेरे बैठने की जगह बन गई।
किसी भी शहर की हमारे मन में छाप उसके निवासियों से बनती है। अमरोहा की अच्छी छाप बनी मेरे मन में। रात साढे आठ बजे स्टेशन से निकलकर एक रिक्शा वाले से पूछा- कैलसा रोड पर रौनक वाटिका है- हां जी है- कितने पैसे लोगे- बीस रुपये और एक सवारी और बैठाऊंगा- बैठा ले। वो करीब दस मिनट तक खडा रहा लेकिन उधर जाने वाली कोई सवारी नहीं मिली। एक मिला भी लेकिन उसके लिये उसे करीब आधा किलोमीटर का अतिरिक्त चक्कर लगाना पडता। रिक्शावाले ने कहा भी कि फलानी जगह छोड दूंगा जहां से पैदल चलकर जरा सी दूर ही है लेकिन यात्री राजी नहीं हुआ। उसने बाद में मुझे बताया कि उसके लिये आधे किलोमीटर का चक्कर लगाना पडता। मैंने कहा कि मुझे कोई जल्दी नहीं थी, तू आधे क्या एक किलोमीटर का चक्कर लगा सकता था। आखिर तेरे भी दस रुपये बन जाते। खैर, सवारी नहीं मिली तो मुझे अकेले को ही लेकर चल दिया और बीस रुपये ही लिये जबकि दूरी कम से कम तीन किलोमीटर है।
तेजपाल साहब से मिला। वे मुझे मेरे ब्लॉग से ही जानते हैं। उनकी बडी लडकी की शादी है। वे दिल्ली में वसन्त विहार में रहते हैं और मैं उनके यहां जाता रहता हूं। कुछ महीने पहले जब जेएनयू में मुझे सम्मानित किया गया था तो रात को देर हो जाने के कारण उन्हीं के यहां चला गया था। घर के सभी सदस्य खासकर दीप्ति और हर्षित मेरी बडी इज्जत करते हैं। जब दस साल के हर्षित को मेरे आने का पता चला तो वो अपनी बाल-मण्डली छोडकर मेरे ही साथ लगा रहा। तेजपाल साहब ने भी अपने कुछ मित्रों से मुझे मिलवाया- ये भारत के वास्कोडिगामा हैं। यह सुनकर मेरे पास गन्दे दांत दिखाने के अलावा कोई चारा नहीं था। मैं कैसे मना करता कि मैं वास्कोडिगामा नहीं हूं? वे मुझसे बडे हैं, अनुभवी हैं, जो कह रहे हैं, सही ही कह रहे होंगे। चाहे किसी को वास्कोडिगामा बतायें या मार्कोपोलो। मैं क्यों उनका विरोध करूं?
खा पी लिया तो मैं बोर होने लगा। इस परिवार के पांच छह सदस्यों के अलावा मुझे कोई नहीं जानता। और ये भी मेजबान होने के नाते काफी व्यस्त थे, इसलिये मेरा हर समय इन्हीं के साथ साथ रहना भी ठीक नहीं था। एक कुर्सी ली और हलवाईयों के पास जाकर बैठ गया। आराम से पीछे कमर लगाई, आंखें बन्द की और शरीर ढीला छोड दिया। कुछ देर बाद एक साहब आये। नाम भूल गया हूं। वे दिल्ली में तेजपाल साहब के पडोसी हैं और मेरी घुमक्कडी को जानते हैं। कहने लगे कि जब आप पिछली बार वसन्त विहार आये थे, तब मैं कहीं बाहर गया हुआ था, नहीं तो आपसे अवश्य मिलता।
भिवानी से बारात आई थी, ढाई सौ किलोमीटर से भी ज्यादा। दूल्हे का नाम है कश्मीर सिंह। अवश्य वो कश्मीर में पैदा हुआ होगा। पंजाब सिंह सुना था, आज कश्मीर सिंह भी सुन लिया।
जब और ज्यादा बोर हो गया तो वापस जाने का फैसला कर लिया। आधी रात हो चुकी थी। एक बजे रानीखेत एक्सप्रेस आयेगी। मेरा मन रात को ट्रेन के जनरल डिब्बे में यात्रा करने का नहीं था। दूसरा तरीका था बस से जाने का। यहां से दस किलोमीटर दूर जोया है जो राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है और वहां से हमेशा दिल्ली की बसें मिल जाती हैं। लेकिन समस्या थी रात के इस समय अमरोहा से जोया पहुंचने की। तेजपाल साहब के पास गया। सीधे सीधे तो नहीं कह पाया कि जाना चाहता हूं। कुछ घुमा-फिराकर कहने की कोशिश की तो उन्होंने मुझे यहीं एक कमरे की चाबी देकर कहा कि जाकर सो जाओ। खुशी का ठिकाना नहीं रहा। तुरन्त चाबी ली और सोने चल दिया।
यह कमरा उसी कमरे के बराबर में था जिसमें कश्मीर ठहरा हुआ था। इसलिये बारातियों की खूब चहल पहल थी। तभी कुछ दूर एक शोर सुनाई पडा। लडाई और गाली गलौच हो रहा था। दो लोग भिडे हुए थे जिन्हें कुछ अन्यों ने अलग किया। दूल्हे समेत सभी बाराती दौड पडे। मामला शान्त हुआ तो मैंने एक बाराती से पूछा कि क्या बात हुई थी। उसने बताया कि हमारे ही यहां के दो जने भिड गये हैं। दोनों भाई हैं और कभी भी उनकी नहीं बनती, मौका मिलते ही एक दूसरे पर हमला कर देते हैं। यहां भी लड पडे। ये भी नहीं सोचा कि इससे हमारी कितनी बेइज्जती होगी। साले नशेडी एक नम्बर के, इन्हें बारात में लाना ही नहीं चाहिये था।
खैर, मैं कमरे में गया तो बिस्तर व रजाईयां पडे थे। इत्मीनान से कपडे उतारकर चप्पल एक तरफ रखकर रजाई तानकर लेट गया। तभी कमरा खुला देखकर कुछ बाराती अन्दर आ गये और ‘युद्ध’ की चर्चा करने लगे- यूपी वाले ऐसे ही होते हैं, जिसकी लाठी उसकी भैंस। फिर तो यूपी की आलोचना शुरू हो गई। मैं सोचने लगा कि लडाई तो दो हरियाणवियों की हुई थी, आलोचना यूपी की क्यों हो रही है? अवश्य बात कुछ और है।
जब नींद आ गई तो शोर सुनकर आंख खुली। फिर से मारपीट की आवाजें आ रही थी। मैं उठा और कपडे पहनकर बाहर निकला तो देखा सामने फिर से जबरदस्त भिडन्त हो रही है। बाद में पता चला कि एक घराती ने ही बारातियों के साथ मारपीट की है। ऐसे में मामला और ज्यादा बिगड जाया करता है लेकिन दोनों पक्षों के समझदार लोग आगे आये व मामला शान्त कराया और बाकी क्रिया-कलाप भी सामान्य ढंग से सम्पन्न कराये।
तेजपाल साहब के एक मित्र अभी दिल्ली जाने की तैयारी में थे। रात के दो बजे थे। इनकी बातें सुनकर मैंने भी एक बेवकूफी भरा फैसला किया- मैं भी इन्हीं के साथ निकल जाऊंगा। दोनों जने निकल पडे। तेजपाल साहब ने हमें जोया तक जाने के लिये एक कार का इन्तजाम करा दिया। जोया उतरे और कार वापस चली गई तो मुझे अपनी करनी पर पछतावा होने लगा। मेरे सहयात्री की तो मजबूरी थी अभी लौटने की लेकिन मेरे साथ कोई मजबूरी नहीं थी। अच्छा खासा रजाई में घुस गया था, सो भी गया था। पूरी रात अच्छी तरह सोता। अब जबरदस्त ठण्ड लग रही थी। कई बसें नहीं रुकीं, आखिरकार एक बस ने हमें बैठा लिया। दिल्ली पहुंचने में अब तीन घण्टे लगेंगे। ये तीन घण्टे बडे बुरे बीते। चप्पलों की वजह से पैर ठिठुर गये। कोई चादर या कम्बल भी नहीं थी, ठण्ड लगती रही और नींद भी नहीं आई। बुरी तरह पछताता रहा।
12 दिसम्बर 2013, गुरूवार
1. एक छोटा सा धार्मिक वाद-विवाद हो गया। हम तीन जने बैठे मक्खियां मारते, इससे अच्छा कुछ बातचीत ही कर लें। बात धर्म पर आ गई। मैं कहने लगा कि हिन्दू कोई धर्म नहीं है। हमने दूसरे धर्मों से प्रतियोगिता करने के लिये एक नया धर्म हिन्दू ईजाद कर लिया है। इस शब्द का हमारे किसी भी धार्मिक ग्रन्थ में जिक्र नहीं है। हिन्दू शब्द सिन्धु से निकला है। यह एक देश है, भूमि है। अरब हमलावर जब इधर हमला करने आते थे तो उन्होंने यह नाम दिया। यह बात एक चौथे ने सुन ली। चौथा फट पडा कि आप हिन्दू होते हुए भी कह रहे हैं कि यह कोई धर्म नहीं है। क्या आप हिन्दू नहीं हो? मैंने कहा कि हां, हूं लेकिन हिन्दू कोई धर्म नहीं है। बात की गहराई उसकी समझ में नहीं आई। कहने लगा कि आप हिन्दू नहीं हो तो क्या हो? मुसलमान हो? ईसाई हो? सरदार हो? क्या हो? मैंने पीछा छुडाने की गरज से कहा कि अरे यार मैं कुछ भी नहीं हूं। तुम मुझे किसी एक पाये से बांधने की कोशिश मत करो।
13 दिसम्बर 2013, शुक्रवार
1. पिताजी दिल्ली आये। इस बार वे दो रात रुके, पहली बार ऐसा हुआ। इसकी वजह थी कि भाभी थी नहीं और टीवी उनके सामने था, बिजली कभी जाती नहीं। धीरज और पिताजी दोनों बाप-बेटे इस मामले में बराबरी पर हैं। उन्हें कहीं भी टीवी चलता दिखा और वे लगे देखने। उन्हें इस बात से कोई फरक नहीं पडता कि क्या प्रोग्राम आ रहा है, किस भाषा में आ रहा है। बस स्क्रीन पर कुछ चलते रहना चाहिये।
अक्सर जिस काम को बडे देर से करते हैं, वो काम छोटे फटाफट कर देते हैं। पिछले महीने जब मैं गढ गंगा मेले में गया था तो मेला घूमने के दौरान गोलू और लक्की को भी ले गया था। नाव से गंगा के उस तरफ भी गये। लौटकर आठ साल के लक्की ने सभी को वृत्तान्त सुनाया- “बाब्बाजी, मेरा तो एक भी पैसा नहीं लगा। नीरज चाचा और गोलू भैया का ही टिकट लगा गंगा पार करने के लिये, मैं फ्री में गया और फ्री में ही आया। नीरज चाचा की एक फ्रेण्ड मिल गई, उसने हमें जूस पिलाया और आइसक्रीम खिलाई और पैसे भी उसी ने दिये। हम तो फ्री में मेला देखकर आ गये।”
बच्चे का मकसद था अपनी मितव्ययिता दिखाना जबकि बडों को सुनाई दिया- नीरज की फ्रेण्ड। मेरे सामने तो किसी ने कुछ जिक्र नहीं किया। बाद में पिताजी के सामने कुछ कहा होगा तभी तो वे इस बार आते ही उस लडकी के बारे में पूछने लगे। क्या करती है, क्या गोत्र है, तुझसे बडी है या छोटी आदि? लग रहा है कि अब हवा सही दिशा में बहनी शुरू हुई है।
उसका जिक्र मैं घर में कई बार कर चुका था। माताजी के सामने भी उसके बारे में बताया था। कोई और मुद्दा होता तो मम्मी-पापा कभी भी एकमत नहीं होते लेकिन इस मुद्दे पर दोनों एकमत हो गये- “नहीं, वो लडकी चरित्रहीन है। जो जवान लडकी एक अनजान लडके के साथ घण्टों घूमती रहती हो, वह पक्की चरित्रहीन है। तू उसके चक्कर में मत पड।” इस पर मुझे क्रोध भी आया। इन्हें समझाया भी कि ऐसा नहीं है। अपनी तरफ से सफाई भी दी जिसका अर्थ यही निकला कि लडका उसके पीछे पागल है। उसके सामने अपने उन मां-बाप की भी नहीं सुन सकता, जिन्होंने उसे जन्म दिया है, पाला है, बडा किया है, पढाया है,...। मैंने उसके बाद कोई जिक्र नहीं किया और अविवाहित रहने का फैसला कर लिया। यह फैसला उस लडकी को भी बता दिया जिसे उसने थोडे से विरोध के बाद यह कहते हुए स्वीकार कर लिया- मैं भी अविवाहित रहूंगी।
अब चूंकि यह बात घर से निकलकर बाहर भी फैल चुकी है कि नीरज की कोई फ्रेण्ड है। पिताजी ने कुछ दिन पहले फोन पर पूछा था कि क्या यह वही लडकी है। मैंने कहा हां। बाहरवालों को पिताजी ने पूरी कहानी सुनाई होगी तो सभी ने अवश्य इस रिश्ते को स्वीकारने का दबाव डाला होगा। पिताजी में स्वयं निर्णय लेने की ताकत नहीं है, बच्चों के निर्णय मानने को अपना अपमान समझते हैं, बाहर वालों के हर निर्णय को मानना अपनी शान समझते हैं, भले ही वह हमारे लिये घातक ही क्यों न हो। जब से होश संभाला है, तभी से इस परिपाटी को देखता आ रहा हूं। इतने आघातों के बाद भी यह आदत गई नहीं है। ताऊओं ने ही कहा होगा, तभी वे दिल्ली आये। कुछ अमित से पूछा, कुछ मुझसे और लडकी से मिलने की इच्छा जाहिर की। मैंने यह कहकर उन्हें मना किया कि लडकी दिल्ली से बाहर रहती है, जब आयेगी बता दूंगा। लडकी से कैसे मिलवा दूं? उन्हें उसके घरवालों से मिलना चाहिये। विवाह एक सामाजिक कार्य है, मैंने अपना काम कर दिया, आगे का काम समाज जाने।
14 दिसम्बर 2013, शनिवार
1. एक साइकिल यात्रा का कार्यक्रम बन रहा है। पिछली दो यात्राएं रद्द करने के बाद अब मेरे हाथ में छह दिन हैं। थार में साइकिल चलाने की बडी इच्छा थी। यह यात्रा केवल दिसम्बर और जनवरी में ही हो सकती है। बाकी समय वहां गर्मी रहती है। कार्यक्रम इस प्रकार है:
22 दिसम्बर- राजस्थान सम्पर्क क्रान्ति से रात साढे दस बजे जोधपुर के लिये प्रस्थान।
23 दिसम्बर- जोधपुर आगमन। साइकिल से जोधपुर भ्रमण। रात को ग्यारह बजे जैसलमेर एक्सप्रेस से जैसलमेर के लिये रवाना।
24 दिसम्बर- जैसलमेर आगमन। जैसलमेर से धुर पश्चिम में पाकिस्तान सीमा के पास स्थित तनोट के लिये साइकिल यात्रा शुरू। दूरी 125 किलोमीटर।
25 दिसम्बर- तनोट से लोंगेवाला होते हुए रामगढ तक साइकिल यात्रा। दूरी 110 किलोमीटर।
26 दिसम्बर- रामगढ से साम तक साइकिल यात्रा। दूरी 80 किलोमीटर।
27 दिसम्बर- साम से जैसलमेर तक साइकिल यात्रा। दूरी 45 किलोमीटर।
28 दिसम्बर- आरक्षित दिन, जैसलमेर भ्रमण। शाम छह बजे दिल्ली के लिये ट्रेन।
यात्रा में 24 और 25 दिसम्बर बेहद कठिन हैं। क्योंकि एक तो दूरी बहुत ज्यादा है, फिर रास्ता भी ऊबड खाबड है। पता नहीं कि उस दिन के लक्ष्यों तक पहुंच भी पाऊंगा या नहीं। इस परेशानी से बचने के लिये साथ में टैण्ट और स्लीपिंग बैग भी लेकर चलूंगा। यात्रा के लिये अभी तक नटवर ने ही सहमति दी है। उसने बताया है कि उसने कई सालों से साइकिल नहीं चलाई है, फिर भी मैं इतना तो चल ही लूंगा, सौ किलोमीटर होते ही कितने हैं। मैंने चेतावनी दे दी है कि यात्रा आसान नहीं रहने वाली। पहले ही दिन पिछवाडे पर फफोले न पड गये तो कहना। हालांकि उसे अभी से समय निकालकर कम से कम बीस किलोमीटर रोज साइकिल चलाने की हिदायत दी है लेकिन वो यह हिदायत मानेगा नहीं।
15 दिसम्बर 2013, रविवार
1. रात नौ बजे अरशद अंसारी आये- नीरज भाई, कल मुझे सिक्किम के लिये निकलना है। कुछ सुझाव दो। मैंने कहा कि ठण्ड से बचने का पूरा इंतजाम करके जाना। पूछा कि वहां ठण्ड भी मिलेगी क्या? मैंने कहा कि जितनी ठण्ड आपने अभी तक दिल्ली में झेली है, उससे बहुत ज्यादा मिलेगी। माइनस में भी मिल सकती है। मोटी मोटी जुराबें, दस्ताने, मंकी कैप समेत गर्म इनर, जैकेट, ये, वो सब लाद लेना। क्या होगा अगर एक दो किलो सामान बढ भी जायेगा? वहां जाकर अगर ठण्ड में ठिठुरते रहे तो यात्रा खराब हो जायेगी। वहां भी सभी गर्म चीजें मिल जायेंगी, लेकिन उन्हें खरीदने को मन नहीं करेगा। महंगी मिलेंगी। कहने लगे कि मेरे पास तो दस्ताने और मंकी कैप है ही नहीं। मैंने बताया कि अभी शाहदरा जाओ, पुल के नीचे सब मिल जायेगा।
उन्हें एलटीसी लेनी है। दिसम्बर चल रहा है। अगर इस महीने नहीं ली तो सरकारी खर्चे से हवाई जहाज में यात्रा करने का एक मौका छूट जायेगा। मैंने एक मौका गंवा दिया है, इसलिये बखूबी जानता हूं कि समय बीतने पर मन पर कैसी बीतती है।

डायरी के पन्ने-17 | डायरी के पन्ने-19




Comments

  1. नीरज जी आपकी हिन्दू धर्म के ऊपर कही गयी बात काफी अच्छी लगी ..................... वास्तव में यह धर्म न होकर कई वृहद मतों का समूह था ............... पुराने समय में जो कोई भी कुछ रिसर्च करता था अध्यात्म के क्षेत्र में बस अपनी थीसिस पब्लिश्ड कर देता था जिन्हे हम आज उपनिषद और बारह दर्शन (छह आस्तिक और छह नास्तिक ) के नाम से जानते हैं..................... मुझे भी एक बार इसी तरह कि स्थिति का सामना करना पड़ा और और ऐसे उग्र धर्मवादियों के सामने शांत रहना पड़ा

    ReplyDelete
    Replies
    1. जो भी हो अपने आप को हिन्दू केंहने मे गर्व महसूस होना चाहिए

      Delete
  2. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  3. नीरज महीने के पंद्रह हजार घर पर... वाकई सुपुत्र हो :) बाकी ये फायदे का सौदा है कि नहीं ये मुझे नहीं पता।
    कार्यक्रम में हम सभी को मजा आया। जैसेलमेर साइकिल यात्रा के लिए शुभकामनाएं।

    ReplyDelete
  4. कार्य की परिभाषा में दूरी और बल एक ही दिशा में होना चाहिये, यहाँ तो दोनों ही लम्बवत हैं।

    ReplyDelete
  5. बेचारा अमित शादी का लड्डू खा तो लिया पर हजम नही हो पाया
    नीरज जी राम-राम

    ReplyDelete
  6. Jaao Neeraj maje karo. Waise Hindustan me do Tanot Mandir hain, ek Tanot Rajashtan me aur dusra Kartarpur Punjab me.

    ReplyDelete
  7. नीरज भाई तुम बहुत समझदार हो... गाँव से दिल्ली गए हो इसलिए दोनों जगह की समझ रखते हो... दिल्ली में कीमतें कम करने वाली बात बहुत सही कही... ऊँगली उठाना आसान है बजे करने के... फिर दिल्ली में रोजाना बाहर से भी इतने जाने आते हैं की चीजें सस्ती करना बहुत मुश्किल है... मर्म को पकड़ गए आप...

    ReplyDelete
  8. नीरज , आज की डायरी वाकई मे बहुत ही रोचक बन पडी है . पहली बार मैंने 1-1 शब्द पूरा पढा है. आपकी स्पश्ट्वादिता देखकर मज़ा आ गया .आप जैसा आदमी ही इतनी साफगोई से अपने घर या रिश्तेदारो के प्रति ऐसा लिख सकता है. मैं तो आपका फैन पहले से ही था, आज और ज्यादा हो गया हूँ . आपकी बाते बहुत प्रभावित करती हैं. आपके लेख , ज़िंदगी के झंझटो से कुछ समय के लिये ही सही, पर टेंसन कम कर देते हैं. अनेकानेक धन्यवाद और साईकिल यात्रा के लिये शुभकामनाये

    ReplyDelete
  9. hamesha ki traha bahut achhi hai aapki diary neeraj ji. keep writing and keep traveling. all the best for your new cycle journey.

    ReplyDelete
  10. नीरजजी साइकल पर राजस्थान कि यात्रा आपकी सफल हो ऐसी मेरी कामना स्वीकार करें, बारमेर की तरफ आने का प्रोग्राम हो तो बालोतरा नाकोडा की यात्रा में मेरा सहयोग आपको मिलेगा

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

स्टेशन से बस अड्डा कितना दूर है?

आज बात करते हैं कि विभिन्न शहरों में रेलवे स्टेशन और मुख्य बस अड्डे आपस में कितना कितना दूर हैं? आने जाने के साधन कौन कौन से हैं? वगैरा वगैरा। शुरू करते हैं भारत की राजधानी से ही। दिल्ली:- दिल्ली में तीन मुख्य बस अड्डे हैं यानी ISBT- महाराणा प्रताप (कश्मीरी गेट), आनंद विहार और सराय काले खां। कश्मीरी गेट पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास है। आनंद विहार में रेलवे स्टेशन भी है लेकिन यहाँ पर एक्सप्रेस ट्रेनें नहीं रुकतीं। हालाँकि अब तो आनंद विहार रेलवे स्टेशन को टर्मिनल बनाया जा चुका है। मेट्रो भी पहुँच चुकी है। सराय काले खां बस अड्डे के बराबर में ही है हज़रत निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन। गाजियाबाद: - रेलवे स्टेशन से बस अड्डा तीन चार किलोमीटर दूर है। ऑटो वाले पांच रूपये लेते हैं।