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12 जुलाई 2012 की शाम पांच बजे तक मैं पोखरा पहुंच गया। मुझे पोखरा के बारे में बस इतना ही मालूम था कि यहां एक ताल है जिसका नाम फेवा ताल है। मैं पृथ्वी चौक के पास था। बारिश हो रही थी, इसलिये एक शेड में शरण ले ली। बारिश थमी तो बाहर निकला और एक टैक्सी वाले से पूछा कि फेवा ताल कितना दूर है। बोला कि छह किलोमीटर है, आओ बैठो, आठ सौ रुपये लगेंगे। मैं किसी टैक्सी वाले से इस तरह के प्रश्न नहीं पूछता हूं, लेकिन पृथ्वी चौक से काठमाण्डू रोड पर काफी दूर तक इन्हीं लोगों का साम्राज्य रहता है, तो पूछना पडा।
काठमाण्डू की तरह यहां भी लोकल बस सेवा बडी अच्छी है- पोखरा मिनी माइक्रो बस सेवा। मुझे पूरी उम्मीद थी कि यहां से फेवा ताल के लिये कोई ना बस जरूर मिल जायेगी। मैं आज ताल के किनारे ही रुकना चाहता था। हालांकि ताल से दूर रुकने की अपेक्षा ताल के किनारे रुकना हमेशा महंगा होता है। किसी राह चलते आदमी से इस बारे में पूछा तो उसने बता दिया कि कहां से फेवा ताल की बस मिलेगी। बस मिलती, इससे पहले ही एक लडका मेरे पास आया और पूछा कि कमरा चाहिये? मैंने मना कर दिया। नेपाली भाषा भले ही देवनागरी में लिखी जाती हो, लेकिन जब कोई नेपाली आदमी हिन्दी बोलता है तो कभी कभी बडा मजेदार लगता है। उसने उसी मजेदार लहजे में कहा कि सभी लोग ताल के किनारे ही रुकना पसन्द करते हैं, हमारे यहां ताल से दूर कोई नहीं रुकता। मैंने पूछा कि कमरा कितने का होगा, तो बोला कि दो सौ से शुरू हैं। बिना टीवी और बिना टॉयलेट का दो सौ रुपये, इसके बाद जैसे जैसे सुविधा बढेंगी, किराया भी बढता जायेगा। आखिरकार मैंने उसकी बात मंजूर कर ली।
अटैच बाथरूम वाला कमरा साढे तीन सौ का था, जिसे मोलभाव करके तीन सौ तक पहुंचा दिया गया। जाते ही कैमरा- मोबाइल चार्जिंग पर लगाये और बिस्तर पर पडते ही ऐसी नींद आई कि आठ बजे बेचारा होटल वाला खाने के लिये बुलाने आया लेकिन मुझे नहीं उठा पाया। मैं भूखा ही सो गया।
अगले दिन यानी 13 जुलाई को आराम से उठा। बिना कुछ खाये पीये सीधा पृथ्वी चौक पहुंचा। एक लोकल बस खडी थी- फेवा ताल जाने वाली। अन्धे को क्या चाहिये? अपन हो लिये उसमें सवार। आधे घण्टे में मैं ताल के सामने था।
मेरे सामने ताल के अन्दर एक टापू पर एक मन्दिर था। इसे बाराही मन्दिर कहते हैं। मन्दिर तक जाने के लिये नावें चलती हैं जिनका किराया तीस रुपये प्रति सवारी होता है और टिकट काउण्टर से पैसे देकर टिकट लेना होता है। मैं नावों के पास खडा होकर ताल का सौन्दर्य देख ही रहा था कि एक नाव वाले ने मुझसे पूछा कि मन्दिर तक जाना है क्या। मैंने हां कहा, साथ ही किराया भी पूछ लिया। उसने बताया पचास रुपये। हर जगह का यही नियम होता है कि बाहरी आदमियों को जितना ठग सको, ठग लो। मैंने कहा कि मेरे पास टिकट भी नहीं है। बोला कि कोई बात नहीं। मुझे तभी मुम्बई की एलीफेण्टा गुफाएं याद आ गईं जहां टिकट काउण्टर से टिकट लो और फिर किसी भी फेरी में बैठकर चले जाओ और किसी में भी बैठकर वापस आ जाओ। यहां भी बिल्कुल वही सिस्टम है लेकिन यह नाव वाला अपने पैसे बनाने के लिये ऐसा कर रहा है। चल बेटा, बैठ जाता हूं तेरी नाव में पर याद रखेगा तू भी। मन्दिर से वापस लौटते समय मैं दूसरी नाव में चढकर आ गया। सालों से यही नियम चला आ रहा है कि जो कोई नाव में बैठ गया, समझो कि वो टिकटधारी है। फ्री में बाराही मन्दिर घूम लिया।
पोखरा में मुझे मात्र फेवा ताल के बारे में ही पता था। फेवा ताल देख लिया, अब कहां जाऊं। मैं अक्सर किसी लोकल आदमी से नहीं पूछता कि यहां घूमने लायक क्या-क्या जगहें हैं, इसलिये किसी से पूछा भी नहीं। सोचा कि ताल का चक्कर लगाते हैं। लेकिन ताल की विशालता देखते ही यह सोच धराशायी हो गई। तभी ताल के दूसरी तरफ एक हरी-भरी पहाडी पर सफेद रंग का मन्दिर जैसा कुछ दिखा। एक से पूछा कि वो क्या है। पता चला कि शान्ति स्तूप है। रास्ता कहां से है? और रास्ता भी पता चल गया।
बताये गये रास्ते के अनुसार बस में बैठकर मैं एक चौराहे पर पहुंचा। उस चौराहे का नाम मुझे ध्यान नहीं। लेकिन इतना पता है कि पृथ्वी चौक से जो सडक छोरेपाटन जाती है, उस पर वो चौराहा है। और यही सडक आगे चलकर स्यांग्जा बाजार, तानसेन और बुटवल होती हुई सुनौली चली जाती है।
मैंने सुबह से कुछ भी नहीं खाया था। मैं शाकाहारी होने के साथ साथ अण्डाहारी भी हूं, मांसाहारी नहीं हूं। नेपाल में हर जगह मांसाहार मिल जाता है, लेकिन अपने जैसे शाकाहारियों को थोडी बहुत परेशानी हो सकती है। भारतीय होटल ढूंढना पडता है। यह काम मैंने कभी नहीं किया। मैं वैसे तो हिन्दीभाषी क्षेत्र से बाहर ज्यादा नहीं निकला हूं लेकिन फिर भी मेरी दिलचस्पी शाकाहारी होटल ढूंढने से ज्यादा फल, पकौडे-समौसे, पैक्ड चीजें जैसे कोल्ड ड्रिंक, चिप्स, बिस्कुट आदि में ज्यादा रहती है, सस्ते भी पड जाते हैं। इसी चौक पर मेरे सामने एक छोटी सी खाने-पीने की दुकान थी- मोमो और चाऊमीन की। मैं जा पहुंचा। पता चला कि मीट वाले मोमो हैं, वेज मोमो नहीं हैं, हां वेज चाऊमीन बन सकती है। कोल्ड ड्रिंक की आधी लीटर की बोतल और हाफ प्लेट चाऊमीन- पेट में तसल्ली हो गई।
एक लोकल बस आई। मैंने कंडक्टर से कहा कि मुझे ऊपर शान्ति स्तूप जाना है। बोला कि ऊपर तक बस तो नहीं जायेगी, लेकिन मैं उस जगह पर छोड दूंगा जहां से ऊपर का रास्ता जाता है। फिर वहां से पैदल जाना पडेगा। मैं खुश।
करीब डेढ दो किलोमीटर ही चले होंगे कि एक बडा बोर्ड दिखाई दिया- डेविस फाल। बस रुकवाई और वहीं उतर गया। यह कोई झरना है जिसका नाम मैंने सुना था लेकिन भूला बैठा था। टाइम काटने का एक और साधन मिल गया।
झरना देखने का बीस रुपये का टिकट लगता है। ... और ऐसा झरना मैंने आज तक नहीं देखा। एक नदी आती है बहुत संकरी जगह में से और झरना बनाती हुई भूमिगत हो जाती है। मानसून होने के कारण नदी में पानी अच्छा खासा था। सडक के जिस तरफ झरना है, उसी तरफ करीब दो किलोमीटर दूर फेवा ताल है। हिमालय के तालों में पानी रुकता नहीं है। यानी ताल बहती नदी का ही हिस्सा होते हैं। किसी भौगोलिक वजह से पानी इकट्ठा हो जाता है, झील बन जाता है। लेकिन रुकता नहीं है, बहता ही रहता है। मुझे समझते देर नहीं लगी कि यह पानी फेवा ताल का ही पानी है। और ऊपर शान्ति स्तूप से देखने पर इसकी पुष्टि भी हो गई।
लेकिन गजब का आकर्षण है इस झरने में। पानी संकरी जगह में गर्जना करता हुआ नीचे गिरता है और कुछ मीटर चलकर भूमिगत हो जाता है, फिर पता नहीं कहां जाकर निकलता है। दर्शकों को झरने के ऊपरी हिस्से के पास खडा होकर देखना होता है।
यहीं आसपास ही एक गुफा भी है, बल्कि दो गुफाएं हैं। एक छोटी, दूसरी बडी। छोटी गुफा को गुप्तेश्वर महादेव गुफा कहते हैं, उसमें फोटो खींचना मना है। बडी गुफा में मानसून के महीनों में जाना मना है, लेकिन जब जाते हैं तो उसमें फोटो खींच सकते हैं। साथ ही छोटी गुफा में जाने की फीस तीस रुपये है। मैं नहीं गया छोटी गुफा में। मेरा अन्दाजा है कि जहां से डेविस फाल का पानी भूमिगत होता है, वहीं से बडी गुफा में जाने का रास्ता है, और मानसून की वजह से पानी ज्यादा आने के कारण उसे बन्द कर रखा है।
यहां से वो पहाडी पास ही थी, जिस पर शान्ति स्तूप बना हुआ है। मैंने वहां जाने का रास्ता पूछा और पैदल ही चल दिया।
फेवा ताल |
वाराही मन्दिर |
डेविस फाल |
यह पानी का गुबार आसपास के पेडों तक पहुंच जाता है। |
डेविस फाल के पानी का ऊंचा उठता गुबार। लोगबाग भीग भी जाते हैं। |
गुप्तेश्वर महादेव गुफा जाने का रास्ता |
अगला भाग: पोखरा- शान्ति स्तूप और बेगनासताल
नेपाल यात्रा
1. नेपाल यात्रा- दिल्ली से गोरखपुर
2. नेपाल यात्रा- गोरखपुर से रक्सौल (मीटर गेज ट्रेन यात्रा)
3. काठमाण्डू आगमन और पशुपतिनाथ दर्शन
4. पोखरा- फेवा ताल और डेविस फाल
5. पोखरा- शान्ति स्तूप और बेगनासताल
6. नेपाल से भारत वापसी
Bhagwan,veer tum badhe chalo.photo bahut hi sunder hai.thanks.
ReplyDeleteक्या दिलेरी है , नए कैमरा के फोटो बहुत बड़ियाँ हैं
ReplyDeleteअचानक नए जगह घूमना वोह भी इतनी सुंदर नीरज ही कर सकता है .. अल्पाहार का चेहरे पर प्रभाव दिख रहा है......... फिर वीर तुम बड़े चलो
सुन्दर यात्रा विवरण. क्या ये फोटो नए कैमरे के हैं?
ReplyDeleteराम राम जी, फेवा ताल, और डेविस फाल के फोटो अच्छे हैं. पोखरा के बारे में इतने विस्तारपूर्वक पहली बार पढ़ और देख रहा हूँ. धन्यवाद बहुत बहुत, वन्देमातरम.
ReplyDeleteनीरज जी..पोखरा के बारे में कई लोगो से सुन चुका हैं.....आज लेख के माध्यम से समझ और देख भी लिया....| बहुत ही सुन्दर जगह लगी..... एक बात बताओ जो आपने ऊपर अपने लेख में खर्चो का जिक्र किया हैं....वह भारतीय मुद्रा में हैं या फिर नेपाली मुद्रा में....?
ReplyDeleteफोटो बहुत ही सुन्दर लगी...
नेपाल के बहुत यात्रा-विवरण पढ़े है पर लोग पशुपतिनाथ वगैरा ही बताते हैं. डेविसफाल पहली बार सुना व देखा... चित्र जानदार हैं...
ReplyDeleteक्या ये फोटे तुम बड़े नही कर सकते... छोटे चित्रों मे उतना मजा नही आता.
..............ADBHUT.............
ReplyDeleteवाह, नेपाल भी इतना सुन्दर है..
ReplyDeletePokhra ka matlab hai-- Pokhar= Taal ya Taalaab(Taal+Aab, Aab=Paani) ! Kyun Neeraj Bhai sahi kaha na ?
ReplyDeleteनये कैमरे से नेपाल की खूबसूरती निखर कर आ रही है ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteश्रावणी पर्व और रक्षाबन्धन की हार्दिक शुभकामनाएँ!
Majedar hai our atyant sundar bhi aap ko bahut bahut dhanyawad. @Carenaman
ReplyDeleteहमेशा की तरह यह संस्मरण भी शानदार
ReplyDeleteऔर फोटो के तो क्या कहने
gooooooood
ReplyDeletePhotos aur vivran dono rochak rahe
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