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Showing posts from November, 2010

हल्दीघाटी- जहां इतिहास जीवित है

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । हल्दीघाटी एक ऐसा नाम है जिसको सुनते ही इतिहास याद आ जाता है। हल्दीघाटी के बारे में हम तीसरी चौथी कक्षा से ही पढना शुरू कर देते हैं: रण बीच चौकडी भर-भर कर, चेतक बन गया निराला था। राणा प्रताप के घोडे से, पड गया हवा का पाला था। 18 अगस्त 2010 को जब मैं मेवाड (उदयपुर) गया तो मेरा पहला ठिकाना नाथद्वारा था। उसके बाद हल्दीघाटी। पता चला कि नाथद्वारा से कोई साधन नहीं मिलेगा सिवाय टम्पू के। एक टम्पू वाले से पूछा तो उसने बताया कि तीन सौ रुपये लूंगा आने-जाने के। हालांकि यहां से हल्दीघाटी लगभग पच्चीस किलोमीटर दूर है इसलिये तीन सौ रुपये मुझे ज्यादा नहीं लगे। फिर भी मैंने कहा कि यार पच्चीस किलोमीटर ही तो है, तीन सौ तो बहुत ज्यादा हैं। बोला कि पच्चीस किलोमीटर दूर तो हल्दीघाटी का जीरो माइल है, पूरी घाटी तो और भी कम से कम पांच किलोमीटर आगे तक है। चलो, ढाई सौ दे देना। ढाई सौ में दोनों राजी।

रोहतक ब्लॉगर मिलन के बाद

21 नवम्बर को रोहतक में ब्लॉगर मिलन सम्पन्न हुआ। तीस के आसपास ब्लॉगर इकट्ठे हुए। इसमें ना तो कोई मुख्य अतिथि था, ना ही कोई मुद्दा। कुर्सी डालकर गोल घेरे में बैठ गये और बातों का सिलसिला शुरू हुआ। सभी को अपने विचार रखने के लिये समय ही समय था। तय समय पर नाश्ता, लंच और शाम का हल्का नाश्ता हुआ। वैसे तो इस बारे में सभी ने कुछ ना कुछ लिख ही दिया है, फिर भी कुछ फोटो मैंने खींचे हैं; उन्हें भी देख लिया जाये।

नाथद्वारा

नाथद्वारा राजस्थान के राजसमन्द जिले में उदयपुर जाने वाली रोड पर स्थित है। इसकी उदयपुर से दूरी लगभग 48 किलोमीटर है। कहा जाता है कि मुगल बादशाह औरंगजेब के काल में मथुरा-वृन्दावन में भयंकर तबाही मचाई जाती थी। उस तबाई से मूर्तियों की पवित्रता को बचाने के लिये श्रीनाथ जी की मूर्ति यहां लायी गई। यह काम मेवाड के राजा राजसिंह ने किया। जिस बैलगाडी में श्रीनाथजी लाये जा रहे थे, इस स्थान पर आकर गाडी के पहिये मिट्टी में धंस गये और लाख कोशिशों के बाद भी हिले नहीं। तब पुजारियों ने श्रीनाथजी को यही स्थापित कर दिया कि जब उनकी यहीं पर रहने की इच्छा है तो उन्हें यही रखा जाये। यहां श्रीनाथजी के दर्शनों का समय निर्धारित है। आठ दर्शन होते हैं: मंगला, श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थपन, भोग, आरती और शयन।

बीना - कोटा पैसेंजर रेल यात्रा

उस दिन तारीख थी 26 जुलाई 2010. मुझे उदयपुर जाना था। कोई रिजर्वेशन नहीं था। दसेक दिन पहले ही अमरनाथ से आया था। जल्दबाजी इतनी कि कोई योजना भी नहीं बनी। सोचा कि किसी तरह 27 की सुबह तक उदयपुर पहुंच जाऊंगा। दिन भर घूमकर शाम सात-शाढे सात बजे तक वापस कोटा चला जाऊंगा। कोटा से वापसी का रिजर्वेशन कराया मेवाड एक्सप्रेस का। यह वैसे तो उदयपुर से ही आती है और कोटा आधी रात को पहुंचती है। अच्छा, इस दौरान दिनेशराय द्विवेदी जी से भी मिलने की चिट्ठी लिख दी। छब्बीस की सुबह को निजामुद्दीन से ताज एक्सप्रेस पकडी। मथुरा उतर गया। एक दोस्त का तकादा था। उससे सुलटने में दिनभर लग गया। रात को साढे नौ बजे फिर स्टेशन पर पहुंचा। पता चला कि उदयपुर जाने वाली मेवाड एक्सप्रेस अभी-अभी निकली है। मन परेशान तो हुआ लेकिन मायूस नहीं। पीछे ही मालवा एक्सप्रेस आ रही थी। इन्दौर जाती है। सोचा कि इससे कोटा चला जाता हूं। कोटा से उदयपुर के लिये कोई ना कोई गाडी मिल ही जायेगी। हां, उस समय मेरा अन्दाजा था कि कोटा से उदयपुर की दूरी सौ किलोमीटर के लगभग होगी।

ताऊ की घुमक्कड पहेलियों का शतक

अभी पिछले दिनों ताऊ पहेलियों का शतक पूरा हो गया है। ताऊ पहेलियां घुमक्कडों को घुमक्कडी और पर्यटकों को पर्यटन के रास्ते बताती हैं। इस मौके पर एक नजर पहेलियों पर भी मार लेते हैं कि कब किस स्थान के बारे में बताया गया।

पटनीटॉप में एक घण्टा

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । अमरनाथ से लौटते हुए एक रात तो हमने गुजारी सोनमर्ग में, दूसरी रात गुजारी श्रीनगर में। सुबह उठकर श्रीनगर से चल पडे। नाश्ता भी नहीं किया था। नाश्ता व खाना एक साथ किया अनन्तनाग के पास आकर। फिर जवाहर सुरंग भी पार कर ली और कुछ देर में पहुंच गये पटनीटॉप। पटनीटॉप जम्मू कश्मीर राज्य में जम्मू इलाके का एक प्रसिद्ध हिल स्टेशन है। यहां हमेशा पर्यटकों की भीड रहती है। ज्यादातर पर्यटक वैष्णों देवी के दर्शन करके यहां आते हैं। जब हम पटनीटॉप पहुंचे, मेरी आंख लगी हुई थी। यहां पहुंचकर सबने मुझे जगाया। बोले कि पटनीटॉप पहुंच गये।

दिल्ली में राष्ट्रमण्डल खेल

बात उन दिनों की है जब दिल्ली में राष्ट्रमण्डल खेल हुआ करते थे। हालांकि इस घटना को काफी दिन बीत चुके हैं लेकिन अपने जेहन में अभी भी ताजा हैं। टीवी पर उदघाटन समारोह देखकर ही सोच लिया कि समय मिलते ही सभी गेम टीवी पर जरूर देखूंगा। तभी एक-दो दिन बाद नितिन का फोन आया। बोला कि कैमरा चाहिये। क्यों? गेम के टिकट ले रखे हैं- गेम देखने जाना है। हां, यह नितिन अपना एक दोस्त है। दिल्ली की शान कही जानी वाली मेट्रो में नौकरी करता है। तीस हजारी स्टेशन पर स्टेशन नियन्त्रक है।

श्रीनगर में डल झील

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । पहली जुलाई को अमरनाथ यात्रा शुरू होने से पहले ही श्रीनगर में कर्फ्यू लग गया था। 16 जुलाई को जुम्मे की नमाज के समय शान्ति रही तो कर्फ्यू हटा लिया गया। उस दिन हम सोनमर्ग में थे। खबर हम तक भी पहुंची। हमने तय किया कि आज की रात श्रीनगर में रुकेंगे। और शाम होते-होते श्रीनगर पहुंच गये। डल झील का तीन चौथाई चक्कर काटते हुए शंकराचार्य पहाडी के नीचे गगरीबल इलाके में पहुंचे। यहां अनगिनत हाउसबोट और शिकारे हैं। यहां पहुंचते ही मनदीप और शहंशाह हाउसबोट की तरफ निकल गये। यहां झील का एक हिस्सा नहर की शक्ल में है। उस पार हाउसबोट हैं। वहां तक जाने के लिये नावें हैं- फ्री में। वापस आकर उन्होनें बताया कि 2500 रुपये में सौदा पट गया है। यह रकम खजानची कालू को बहुत ज्यादा लगी। कहने लगा कि हाउसबोट में रुकना जरूरी नहीं है, होटल में रुकेंगे। एक होटल में पता किया तो वो 1500 में मान गया- दो बडे-बडे कमरे, टीवी व गर्म पानी सहित। हालांकि वो होटल भी हाउसबोटों से ही घिरा था, जाने का रास्ता सिर्फ नाव से था। वो हाउसबोट तो नहीं था, लेकिन उससे कम भी नहीं था।

सोनमर्ग से श्रीनगर तक

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें । यह यात्रा कथा इसी साल जुलाई की है, जब हम अमरनाथ गये थे। दर्शन करके वापस बालटाल आये तो एक रात सोनमर्ग में गुजारी। यहां पता चला कि पिछले पन्द्रह-बीस दिनों से श्रीनगर में लगा कर्फ्यू कल शाम हटा लिया गया है। अब हमारे दिमाग में एक बात आयी कि अगली रात श्रीनगर में ही गुजारेंगे। सोनमर्ग से श्रीनगर लगभग अस्सी किलोमीटर दूर है। इसलिये दोपहर बाद निकल पडे। सोनमर्ग से चलकर कंगन, कुलान, गुण्ड जैसे कई छोटे-छोटे गांव पडते हैं। हर जगह हालांकि पहाड वाली शान्ति तो है लेकिन सन्नाटा भी है। अमरनाथ यात्रा की गाडियां और मिलिटरी की कानवाई साथ-साथ चलकर माहौल को और भी रहस्यमय बना देती हैं। किसी भी गांव में अगर गाडी की स्पीड कम हो गई तो कई लोग पीछे पड जाते हैं। नफरत और अलगाववाद के कारण नहीं, बल्कि रोजी-रोटी कमाने के लिये। मेवों, फलों और कश्मीरी शालों से दुकानें भरी हैं। लेकिन खरीदने वाले नहीं है।